मुखर होती भारत की विदेश नीति
सरकार के कृषि कानूनों पर. किसानों के एक वर्ग द्वारा किए जा रहे विरोध पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो की टिप्पणी न केवल अनुचित, बल्कि हैरान करने वाली भी है। टूडो ने प्रदर्शनकारी किसानों के साथ भारतीय सुरक्षा बलों के रवैये पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि उनकी सरकार हमेशा से शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन की समर्थक रही है। उनका बयान अनुचित इस कारण है कि यह भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप हैरान करने वाला है इसलिए कि यह एक पारिपक्व लोकतंत्र माने जाने वाले देश के नेता ने दिया है।
वैसे कनाडा और भारत का संघीय ढांचा कमोबेश एक जैसा है। भारत सरकार किसानों के साथ वार्ता कर उनकी आपत्तियों के निराकरण में भी जुटी है, जैसा किसी समृद्ध लोकतंत्र में होता है। किसानों का विरोध-प्रदर्शन भी अभी तक पूरी तरह शांतिपूर्ण रहा है, जिसमें किसी अप्रिय घटना का कोई समाचार नहीं आया। इस प्रकार पूरे परिदृश्य में ऐसा कुछ नहीं, जिस पर अंतरराष्ट्रीया बिरादरी को ध्यान केंद्रित करना पड़े। यह विशुद्ध रूप से भारत का अंदरूनी मसला है और जैसा कि किसी जीवंत एवं गतिशील लोकतंत्र में होता है. जहां वार्ता और विमर्श के माध्यम से हल निकाल लिया जाता है, वैसा ही इस मुद्दे का भी निकल जाएगा। जाहिर है कि इसमें किसी भी दूसरे देश को दखलंदाजी करने का कोई हक नहीं। __
भारत ने टूडो के बयान को अविलंब खारिज करके उचित किया। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने दो-टूक लहजे में कहा कि यह टिप्पणी अधकचरी जानकारी पर आधारित, सच्चाई से परे और एक लोकतांत्रिक देश के मामलों में हस्तक्षेप है। सरकार ने केवल बयानबाजी से मामले का पटाक्षेप नहीं किया, बल्कि शुक्रवार को विदेश मंत्रालय ने भारत में कनाडा के उच्चायोग को तलब कर चेतावनी दी कि ऐसी टिप्पणी द्विपक्षीय रिश्तों पर बुरा असर डालेगी। भारत-कनाडा के रिश्तों में पहले से ही कोई खास गर्मजोशी नहीं है, जिसमें ऐसे बयान और कड़वाहट घोलने का ही काम करेंगे। फिर आखिर टूडो ने संबंधों को दांव पर लगाने का जोखिम क्यों लिया? इसकी पड़ताल में यही जवाब मिलेगा कि घरेलू राजनीति की मजबूरियों को देखते हुए ही टूडो ने यह कदम उठाया। चूंकि प्रदर्शनकारी किसान मुख्य रूप से पंजाब के हैं तो टूडौ कनाडा में बसे पंजाबी सिखों से हमदर्दी दिखाकर उनके बीच अपना समर्थन और बढ़ाना चाहते हैं। कनाडा में पांच लाख से अधिक सिख हैं और कुल आबादी में उनकी करीब 1.4 प्रतिशत हिस्सेदारी है। ऐसे में सभी दल इस तबके को लुभाना चाहते हैं और इनमें टूडो की लिबरल पार्टी खासी आगे रहती है। टूडो खुद इसे जाहिर करते रहे हैं। कनाडा की कमान संभालते हुए उन्होंने गर्वोक्ति के साथ कहा था कि उनके मंत्रिमंडल में इतने सिख मंत्री हैं, जितने भारत सरकार में भी नहीं। यहां तक कि कनाडा में वह जस्टिन 'सिंह' टूडो के नाम से मशहूर हैं।
अतीत से ही भारत-कनाडा संबंधों में कुछ खटास रही है। इस खटास की एक वजह कनाडा द्वारा कुछ अलगाववादी खालिस्तानी समर्थकों को शह देना भी रहा है, जिसकी चिंगारी रह-रहकर अभी भी भड़कती रहती है। कनाडा की राजनीतिक बिरादरी में ऐसे तत्वों की सक्रियता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कनाडा ऐसे स्वारों का बचाव भी करता है, लेकिन भारतीय सुरक्षा एजसियों के सदस्यों को वीजा देने से इन्कार करने से उसकी मंशा पर सवाल जरूर उठते हैं। यही कारण रहा कि वर्ष 2015 तक 42 वर्षों के दौरान किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने कनाडा का दौरा नहीं किया। वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने द्विपक्षीय रिश्तों की इस बेरुखी को दूर करने का बीड़ा उठाया। वर्ष 2015 में वह कनाडा गए। यह चार दशकों बाद भारतीय प्रधानमंत्री पहला दौरा था। तत्कालीन कनाडाई प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने बहुत आत्मीयता के साथ मोदी की मेहमाननवाजी की। टोरंटो के रिको कोलिसियम स्टेडियम में पीएम मोदी ने भारतवंशियों को संबोधित भी किया। उस दौर में कई अहम साझेदारियों पर सहमति बनी। जिससे 2018 में द्विपक्षीय व्यापार 6.3 अरब डॉलर तक पहुंचा, जो 2019 में 10 अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर गया। हालांकि दोनों देशों में सहयोग की भारी संभावनाओं को देखते हुए यह काफी कम है, पर टूडो के रवैये से यह बढ़ने के बजाय और घट सकता है।
हालांकि टूडो की बदजुबानी का यह पहला वाकया नहीं है। इससे पहले भी अपने बयानों से वह भारत को कुपित कर चुके हैं। इसका असर यह हुआ कि वर्ष 2018 में जब वह सपरिवार भारत के अनौपचारिक दौरे पर आए तो भारत सरकार ने भी उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी। फ्रांस में हुए हालिया आतंकी हमले के बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के सख्त रुख के विपरीत टडो ने अपने नरम तेवरों का बैसरा राग छेड़ा, जिसके कारण वह निशाने पर भी रहे। उनके रवैये से यही लगता है कि बह वास्तविकता को दरकिनार करते हुए तथाकथित उदारवाद के पोस्टर बॉय या ब्रांड अंबेसडर बनना चाहते हैं। हालांकि इसमें भी उनका दोहरा रवैया ही दिखता है कि वह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को तो उपदेश देते हैं, लेकिन उइगर मुसलमानों का दमन करने वाले तानाशाह चीन के मामले में चुप्पी साधे रहते हैं।
जो भी हो, इस पूरे प्रकरण से भारतीय विदेश नीति के नए तेवर भी दिखते हैं। भारत ने अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप पर मौन रहने की परंपरागत चुप्पी तोड़ी है। अब वह मुखरता से और त्वरित गति से जवाब देने लगा है। फिर चाहे ट्रंप द्वारा कश्मीर में मध्यस्थ बनने की पेशकश के दावे को तुरंत खारिज करना हो या कश्मीर से लेकर सीएए पर तुकों और मलेशिया को जवाब देना हो। भारत की कार्रवाई केवल जुबानी नहीं है, बल्कि उसके मामले में टांग अड़ाने वाले देशों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है। तुर्की के अनर्गल प्रलाप के बाद पीएम मोदी ने अपना तुर्की दौरा ही रद कर दिया था, जिसमें कई समझौतों पर बात आगे बढ़नी थी। वहीं मलेशिया को खाद्य तेल निर्यात के मोर्चे पर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। यहां तक कि चीन ने भी इसकी तपिश झेली। कुल मिलाकर यह नए भारत की नई विदेश नीति है, जिसमें कोई देश अपने जोखिम पर ही भारत के अंदरूनी मामलों में दखल देने का दस्साहस करे। शायद देर-सबेर टूडो को भी यह बात समझ आ जाए कि नजदीकी फायदे के लिए वह दूरगामी नुकसान कर बैठे।
However, this whole episode also shows the new tone of Indian foreign policy. India has broken the traditional silence to remain silent on interference in its internal affairs. Now he is starting to respond with a loud and quick pace. Whether it is to immediately reject Trump's offer to become a mediator in Kashmir or to reply to the Turks and Malaysia on Kashmir to CAA. India's action is not just a matter of fact, but in its case, the countries that have been wearing legs are also paying its price. After the unrestrained turkey of Turkey, PM Modi canceled his Turkish tour, in which many agreements were to be taken forward. At the same time, Malaysia had to pay its price on the edible oil export front. Even China suffered its heat. Overall, this is the new foreign policy of the new India, in which a country should decide to interfere in the internal affairs of India at its own risk. Maybe soon, Tudo will also understand that he can do far-reaching losses for the sake of near profit.
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