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आधुनिक भारत का इतिहास (ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रारंभिक विद्रोह,1857 की क्रांति) MODERN HISTORY

ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रारंभिक विद्रोह,

1857 की क्रांति  

CH-1 MODERN HISTORY

(Early rebellion against British rule)

 

1757 के पश्चात् सौ वर्षों में विदेशी राज्य तथा उससे संलग्न कठिनाइयों के विरुद्ध अनेक आंदोलन, विद्रोह तथा सैनिक विप्लव हुए। 

अपनी स्वतंत्रता के खो जाने पर स्वशासन में विदेशी हस्तक्षेप ,प्रशासनिक परिवर्तनों का आना, अत्यधिक करों की मांग, अर्थव्यवस्था का भंग होना, इन सबसे भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न समय पर प्रतिक्रिया हुई उससे बहुत सी अव्यवस्था फैली।

 

प्रारंभिक विद्रोह के सामान्य कारण 

 

राजनीतिक कारण 

 

इस विद्रोह के लिए अनेक प्रकार के राजनीतिक कारक जिम्मेदार थे।

 

सहायक संधि प्रणाली 

 

वैल्जली ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी राजनैतिक परिधि में लाने के लिए सहायक संधि प्रणाली का प्रयोग किया। इस प्रणाली ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार में विशेष भूमिका निभाई और उन्हें भारत का एक विस्तृत क्षेत्र हाथ लगा इस कारण भारतीय राज्य अपनी स्वतंत्रता खो बैठे

 

गोद-प्रथा की समाप्तिः 

 

गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के शासन काल में भारत के कुछ प्रमुख देशी राज्यों, यथा--झांसी, उदयपुर, संभलपुर, नागपुर आदि के राजाओं के कोई पुत्र नहीं थे। प्राचीन भारतीय राजव्यवस्था के प्रावधानों के तहत योग्य उत्तराधिकारी के चयन के लिए ये राजा अपने मनोनुकूल किसी बच्चे को गोद ले सकते थे। परन्तु डलहौजी ने गोद लेने की इस प्रथा को अमान्य घोषित कर इन देशी राज्यों (रियासतों) को कम्पनी के शासनाधिकार में ले लिया। कम्पनी द्वारा शुरू की गई इस नयी नीति से सभी राजा असंतुष्ट थे और वे किसी ऐसे अवसर की तलाश में थे, जब पुनः अंग्रेजों को दबाकर अपनी रियासत पर अधिकार जमा सकें।

 

अवध के साथ विश्वासघात: 

 

1856 ई. में कम्पनी द्वारा अवध राज्य का अधिग्रहण कर लिया गया था। इसके पूर्व अवध के नवाबों के साथ झूठी मित्रता कर अंग्रेजों ने उनसे पूरी सहायता ली थी। इससे अवध की जनता  में अंग्रेजों के प्रति अत्यधिक असंतोष था और इस असंतोष के कारण वहां के सैनिक उत्तेजित हो गए।

 

बहादरशाह का अपमानः 

 

मुगल साम्राज्य के शासक बहादुरशाह का भी डलहौजी ने घोर अपमान किया। बहादरशाह को लाल किला खाली करने का आदेश मिला, सिक्कों से उसका नाम हटाया गया और उसके पुत्र को अंग्रेजों द्वारा राजकमार घोषित कर दिया गया, जबकि वहादुरशाह का ज्येष्ठ पत्र मिर्जा जवांबख्स वास्तविक उत्तराधिकारी था। अंग्रेजी शासन के इस कृत्य से राजपरिवार और जनसाधारण दोनों में रोष था। इसीलिए क्रांति की शुरूआत के समय बहादुरशाह ने यथाशीघ्र नेतृत्व प्रदान करना स्वीकार कर लिया।

 

दत्तक प्रथा की समाप्तिः 

 

लॉर्ड डलहौजी ने गोद प्रथा को समाप्त करने के साथ-साथ दत्तक पुत्रों से जागीर जब्त कर लेने का निश्चय किया और पेंशन भी रोकवा दीनाना साहब स्वर्गीय पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे और इनका पेंशन रोककर अंग्रेजों ने दुश्मनी मोल ले ली।

 

अफगानिस्तान में अंग्रेजों की पराजयः 

 

वर्ष 1841-42 में अफगानिस्तान में अंग्रेजों को पराजय का सामना करना पड़ा। इससे इस धारणा से उबड़ने का मौका मिला कि अंग्रेज अपराजेय हैं। भारत के क्रांतिकारियों को इस युद्ध से नयी आशा और प्रेरणा मिली कि हम भी अंग्रेजों को देश से निकाल सकते हैं और इसके लिए उन्होंने विद्रोह शरू कर दिया।

 

सामाजिक कारण 

 

कम्पनी के शासन-विस्तार के साथ-साथ अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ अमानुषिक व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया था। काले और गोरे का भेद स्पष्ट रूप से उभरने लगा था। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को गुलाम समझा जाता था। समाज में अंग्रेजों के प्रति उपेक्षा की भावना बहुत अधिक बढ़ गई थी, क्योंकि उनके रहन-सहन, अन्य व्यवहार एवं उद्योग-आविष्कार से भारतीय व्यक्तियों की सामाजिक मान्यताओं में अंतर पड़ता था। अपने सामाजिक जीवन में वे अंग्रेजों का प्रभाव स्वीकार नहीं करना चाहते थे। अँग्रेजों की खुद को श्रेष्ठ और भारतीयों को हीन समझने की भावना ने भारतीयों को क्रांति करने की प्रेरणा प्रदान की। 

 

धार्मिक कारण-

भारत में अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में भारतीयों पर धार्मिक दृष्टि से भी कुठाराघात किया था। इस काल में योग्यता की जगह धर्म को पद का आधार बनाया गया। जो कोई भी भारतीय ईसाई धर्म को अपना लेता था, उसकी पदोन्नति कर दी जाती थी, जबकि भारतीय धर्म का अनुपालन करने वाले को सभी पकार से अपमानित किया जाता था। इससे भारतीय जनसाधारण के बीच अग्रेजों के प्रति धार्मिक असहिष्णुता उत्पन्न हो गई थी। फिर, ईसाई धर्म का इतना अधिक प्रचार किया गया कि भारतीयों को यह संदेह होने लगा कि अंग्रेज उनके धर्म का सर्वनाश करना चाहते हैं। परिणामस्वरूप भारतवासी अंग्रेजों को धर्मद्रोही समझकर उन्हें देश से बाहर निकालने का मार्ग ढूंढने लगे और 1857 ई. में जब मौका मिला, तब हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध प्रहार किया। 

 

आर्थिक कारण 

 

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत के उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया तथा श्रमिकों से बलपूर्वक अधिक से अधिक श्रम कराकर उन्हें कम पारिश्रमिक देना प्रारम्भ किया। इसके अतिरिक्त अकाल सूखा और बाढ़ की स्थिति में भारतीयों की किसी भी प्रकार की सहायता नहीं की जाती थी और उन्हें अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता था।

निम्न वर्गीय कृषकों तथा मजदूरों की स्थिति तो दयनीय थी ही, राजाओं और नवाबों तक की आर्थिक स्थिति बदहाल थी। भारत से प्राप्त खनिज संसाधनों और सस्ते श्रम के बल पर अंग्रेजों ने अपने उद्योग धंधों को विकास के चरम पर पहुंचा दिया, जबकि दूसरी ओर भारत में किसी नए उद्योग की स्थापना की बात तो दूर छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों को भी समाप्त कर दिया गया। इससे भारत के प्रत्येक वर्ग में अंग्रजो के प्रति अविश्वास की भावना उत्पन्न हुई और वे व्यापक विद्रोह के सूत्रधार बन गए।

 

1857 से पूर्व के विद्रोह 1857 से पूर्व कई महत्वपूर्ण विद्रोह हुए जो निम्नलिखित प्रकार के थे-

 

 

1. चेरो-विद्रोहः 

 

बिहार के पलामू जिले में स्थानीय राजा एवं कंपनी के द्वारा जब जागीरदारों (चेरो) से जमीन छीनी जाने लगी, तब वहां के जागीरदारों ने राजा एवं कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। यह विद्रोह 1800 ई. में आरम्भ हुआ और 1802 ई. तक चला। इसका नेतृत्व भूषण सिंह नामक जमींदार ने किया था।

 

2. फकीर विद्रोह (बंगाल): 

 

यह आंदोलन यद्यपि अठारहवीं शताब्दी में पारम्भ हुआ किन्तु 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक चलता रहा। इस आन्दोलन का नेतृत्व एक फकीर नेता मजनूम शाह ने किया। फकीर, बंगाल के घुमन्तू धार्मिक मुसलमानों का एक समूह था। बंगाल के विलय के उपरांत 1776-77 में मजनूम शाह के नेतृत्व में फकीरों ने अंग्रेजी शासन की उपेक्षा करते हुये स्थानीय जमीदारों तथा किसानों से धन वसूलना प्रारम्भ कर दिया। मजनूम शाह की मृत्यु के पश्चात  आंदोलन की बागडोर चिरागअली शाह ने संभालीराजपूत, पठान एवं सेना के भतपर्व सैनिकों ने आन्दोलन का सहयोग प्रदान किया। चिराग अली शाह के नेतत्व में आन्दोलन और तीव्र हो गया तथा इसका प्रसार उत्तरी बंगाल के जिलों में भी हो गया। भवानी पाठक और एक महिला देवी चौधरानी, इस आन्दोलन के दो प्रमख हिन्दू नेता थे। कालान्तर में इस आन्दोलन के समर्थकों ने हिंसक गतिविधियां प्रारम्भ कर दी तथा अंग्रेजों के स्वामित्व वाले ठिकानों को अपनी गतिविधियों का मख्य केन्द्र बनाया। उन्होंने अंग्रेजी फैक्ट्रियों तथा सैनिक साजो-सामान के केन्द्रों पर अनेक डकैतियां डालीं। इसके कारण फकीरों और अंग्रेजों के मध्य अनेक झडप हयी। 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक अंग्रेजी सेनाओं ने आन्दोलन को कठोरतापूर्वक दबा दिया।

 

3. संन्यासी विद्रोह (बंगाल):

 

यह आन्दोलन 1770 में प्रारंभ हुआ किन्तु 19 वीं शताब्दी के दूसरे दशक 1820 तक चलता रहा। इस विद्रोह का प्रमुख कारण अंग्रेजों  द्वारा तीर्थ स्थानों पर यात्रा करने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना था। संन्यासी, मुख्यतया हिन्दू नागा और गिरी के सशस्त्र संन्यासी थे, जो कभी मराठों, राजपूतों तथा बंगाल और अवध के नवाबों की सेनाओं में सैनिक थे। 1770 में बंगाल के भयानक दुर्भिक्ष ने यहां के निवासियों को त्रस्त कर दिया था उसके पश्चात संन्यासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र विद्रोह प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने बलपूर्वक धन वसूला तथा अंग्रेजी फैक्ट्रियों पर लूटपाट की। अंग्रेजों ने आन्दोलनकारियों से निपटने के लिये दमन का सहारा लिया तथा 1820 तक आन्दोलन को कुचल दिया। इसी सन्यासी विद्रोह का उल्लेख 'वन्देमातरम' के रचयिता बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास 'आनंद मठ' में किया है।

 

4. कूका विद्रोह (पंजाब):

 

इस आन्दोलन की शुरुआत जवाहरमल भगत (सियान साहिब) एवं उनके शिष्य बालक सिंह ने पश्चिमी पंजाब में की। उन्होंने हाजरो नामक स्थान को अपना मुख्यालय बनाया। इस आन्दोलन का उद्देश्य सिख धर्म में प्रचलित बुराइयों एवं अंधविश्वासों को दूर करके धर्म को शुद्ध बनाना था। इसके अन्य सिद्धांतों में जातीय भेदभाव का उन्मूलन, सिखों को समानता का अधिकार, मांस, मदिरा एवं अन्य नशीली वस्तुओं के सेवन से परहेज, अन्तरजातीय विवाह का प्रोत्साहन तथा महिलाओं में पर्दा प्रथा को दूर करना इत्यादि प्रमुख थ। प्रारम्भ में कूका आन्दोलन एक धार्मिक सुधार आन्दोलन था, किन्तु अंग्रेजों द्वारा पंजाब को हस्तगत कर लेने के पश्चात यह राजनैतिक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया।

अंग्रेजों में टकराव हुआ। अंग्रेजों ने आन्दोलन को कुचलने के जोरदार उपाय किये। 1872 में आन्दोलन के एक प्रमुख नेता राम सिंह को रंगून निर्वासित कर दिया गया, जहां 1885 में उनकी मृत्यु हो गयी।

 

5. सावंतवादी विद्रोहः

 

यह विद्रोह 1844 में हुआ, जिसका नेतृत्व एक मराठा सरदार फोण्ड सावंत ने किया। सावंत ने कुछ सरदारों तथा देसाइयों की सहायता से कुछ किलों पर अधिकार कर लिया। बाद में अंग्रेज सेनाओं ने मुठभेड़ के पश्चात विद्रोहियों को परास्त कर दिया तथा किले से बाहर खदेड़ दिया। कई विद्रोही गोवा भाग गये तथा बचे हुए विद्रोहियों को पकड़कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें कड़ी सजा दी गयी।

 

6. पाइयगारों का विद्रोहः

 

दक्षिण भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध हुए विद्रोहों में यह विद्रोह सबसे बड़ा था, जिसमें दक्षिण के पाइयगारों (किलों के अधिपति) ने कम्पनी की अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया और मालगुजारी देना बन्द कर दिया। यह विद्रोह 1801 से 1805 ई. तक चला। इस विद्रोह का नेतृत्व कट्टबोम नायकन नामक पाइयगार ने किया था, जिसे अंगरेजों ने पकड़े जाने पर फांसी दे दी थी।

 

7. वेलोर का सिपाही विद्रोहः

 

1806 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारतीय सिपाहियों ने वेलोर में विद्रोह कर दिया, जिसमें अंग्रेज अधिकारी सिपाहियों की हिंसा के शिकार हुए। इस विद्रोह में टीपू सुल्तान के वंशजों ने सिपाहियों का साथ दिया था, जो कि वेलोर के दुर्ग में कम्पनी द्वारा नजरबन्द थे। विद्रोहियों ने दुर्ग पर मैसूर राज्य के राजचिह्नयुक्त झण्डे को भी फहरा दिया था। पर, 1806 ई. के अन्त तक इस विद्रोह पर पूरी तरह काबू पा लिया गया था।

 

 

8. नायक-विद्रोहः

 

बंगाल में मेदिनीपुर जिले में हुआ यह विद्रोह उन रैयतों (नायक) ने किया था, जिन पर कम्पनी बढ़ी हुई दर से लगान चुकाने के लिए दबाव डाल रही थी। 1806 ई. में कम्पनी ने इन नायकों की जमीन भी जब्त कर ली थी। नायकों ने इसके विरोध में कम्पनी के खिलाफ छापामार युद्ध शुरू कर दिया, जो 1816 ई. तक चला। इस विद्रोह का नेतृत्व अचल सिंह नामक व्यक्ति ने किया था, जिसने नायकों को सैनिक प्रशिक्षण देकर एक कुशल पलटन तैयार की थी।

 

9. त्रावणकोर का विद्रोह -

 

त्रावणकोर में वहां के दीवान वेलू थम्पी ने कम्पनी की बढ़ती ज्यादतियों के खिलाफ एक सशक्त विद्रोह का नेतृत्व किया, जिससे लगभग एक वर्ष तक त्रावणकोर पर कम्पनी का अधिकार समाप्तप्राय रहा। वेलू थम्पी ने 1808 ई. में फ्रांस एवं अमेरिका से भी अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता के लिए सम्पर्क स्थापित किया था। येलू थम्पी ने स्थानीय शासकों से भी सहयोग के लिए सम्पर्क किया. पर किसी ने सहयोग नहीं किया। अन्त में, 1809 ई. में कम्पनी की सेना के बहुत बढ़ आने पर वेलू थम्पी ने आत्महत्या कर ली, पर आत्मसमर्पण नहीं किया।

 

10. बरेली का विद्रोहः

 

1816 ई. में बरेली के लोगों ने स्थानीय अंग्रेज अधिकारियों की ज्यादतियों के खिलाफ हिंसक विद्रोह कर दिया, जिसमें दोनों पक्षों के सैकड़ों लोग हताहत हुए। इस विद्रोह का तात्कालिक कारण था कि अग्रेजों ने स्थानीय लोगों पर चौकीदार-टैक्स आरोपित कर उसकी सख्ती से वसूली शुरू कर दी थी। इस विद्रोह में लोगों का नेतृत्व मुफ्ती मुहम्मद एवाज नामक व्यक्ति ने किया था।

 

11. अलीगढ़ का विद्रोहः

 

आगरा प्रान्त के अन्तर्गत अलीगढ़ के किसान, जमींदार एवं सैनिक ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रशासनिक फेरबदल से असंतुष्ट थे।  यह विद्रोह 1817 ई. में हुआ था। इस विद्रोह के नेता हाथरस के तालुकेदार दयाराम और मुरसान के तालुकेदार भगवन्त सिंह थे। __

 

12. उड़ीसा के पायकों का विद्रोहः

 

अन्य रियासतों की तरह अंग्रेजों ने उड़ीसा में भी भूमि-कर में बेतहाशा वृद्धि कर दी थी और वे इसकी वसूली भी बड़ी सख्ती से कर रहे थे। इस अत्याचार से हजारों किसान खेतों को छोड़कर जगल भागने लगे। परन्तु, स्थानीय पायको' ने, जो कि मगलों एवं मराठों के विरुद्ध मोर्चा ले चुके थे, अंग्रेजों का प्रभावी प्रतिरोध किया और खर्दा -जैसे स्थानों पर उन्हें करारी मात दी। इस विद्रोह में पायकों का नेतृत्व जगबन्धु ने किया था। यह विद्रोह 1817 ई. में शुरू हुआ था, जो 1818 ई. में आकर शिथिल पड़ा गया, यद्यपि जगबन्धु 1821 ई. तक अग्रेजों का प्रतिकार करता रहा।

 

13. कित्तूर का विद्रोहः

 

तृतीय आंग्ल-मराठा-युद्ध के बाद अंग्रेजों ने कित्तूर को स्वतंत्र राज्य मान लिया था। 1824 ई. में उत्तराधिकार के प्रश्न पर अग्रेजों का कित्तूर राज्य से विरोध हो गया, जब उन्होंने अन्तिम शासक शिवलिंग रुद्र के उत्तराधिकारी को वास्तविक मानने से इन्कार कर दिया। ऐसे में महारानी चेनम्मा ने अंग्रेजों के विरुद्ध कर दिया, पर 1824 के अन्त तक अंग्रेजों ने इसे दबा दिया। परन्तु, 1829 ई. में रायप्पा के नेतृत्व में कित्तूर में एक बार फिर विद्रोह हुआ, पर यह भी उसी वर्ष दबा दिया गया।

 

14. रामोसिस-विद्रोह.

 

पूना के रामोसिस (मराठायुगीन पुलिस) अग्रेजों के शासनकाल में बेगार हो गए थे। ऊपर से उनके पास जो जमीन बची थी, उस पर अंग्रेजों ने लगान की दर बहुत बढ़ा दी। ऐसे में रामोसिसों ने 1822 ई. में चित्तूर सिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और अंग्रेजों पर हमले शुरू कर दिए। इस विद्रोह को दबा दिया गया। 1826 ई. में फिर से उमाजी के नेतृत्व में रामोसिसों ने विद्रोह आरम्भ कर दिया। इस बार 1829 ई. तक रामोसिसों ने अंग्नेजों से मोर्चा लिया।

 

15. अहोम-विद्रोहः

 

1824 ई. में बर्मा-युद्ध के बाद अंग्रेजों ने उत्तरी असम पर अधिकार कर लिया था। असम के अहोम-वंश के उत्तराधिकारियों ने इसे नापसन्द किया और ईस्ट इंडिया कम्पनी से असम छोड़कर चले जाने को कहा। कम्पनी द्वारा न मानने पर 1828 ई. से 1830 ई. तक गदाधर सिंह के नेतत्व में असमियों ने कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, पर विद्रोह सफल न हो सका। गदाधर सिंह को निर्वासित कर दिए जाने के बाद 1830 ई. में असमियों ने कुमार रूपचन्द के नेतृत्व में विद्रोह किया, पर यह दूसरा विद्रोह भी असफल रहा।

 

16. विशाखापत्तनम् के विद्रोहः

 

मद्रास प्रेसीडेंसी के अन्तर्गत विशाखापत्तनम् जिले में विद्रोहों की एक लम्बी श्रृंखला थी। पालकोण्डा के जमींदार विजयराम राजे ने 1793. से 1796 ई के बीच अंग्रेजों के साथ कई छिटपुट लड़ाइयां लड़ीं। 1821-31 के बीच फिर से पालकोण्डा के जमींदार ने राजस्व वसूली के प्रश्न पर विद्रोह किया। 1830 ई में विशाखापत्तनम् के जमींदार वीरभद्र राजे ने पेंशन के सवाल पर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। 1832-34 ई. में विशाखापत्तनम् के ही एक अन्य जमींदार जगन्नाथ राजे ने उत्तराधिकार-विवाद में अंग्रेजों के हस्तक्षेप की वजह से विद्रोह कर दिया।

 

17. कुर्ग का विद्रोहः

 

दक्षिण भारत में 1833-34 में कुर्गवासियों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई संगठित नागरिक विद्रोह की मिसाल है। यदि वहां के राजा वीर राजा ने जनता की तरह की बहादुरी दिखाई होती, तो अंग्रेजों को निर्णायक हार का सामना करना पड़ता। परन्तु, ऐसा नहीं हुआ और उसके आत्मसमर्पण के बाद कुर्ग मई, 1834 में ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया।

 

18. गुमसुर का विद्रोहः

 

1800.1805 ई. के बीच हुए गंजाम-विद्रोह का नेतृत्व जिस श्रीकर भंज ने किया था, उसी के पुत्र धनंजय ने 1835 ई. में गुमसुर की जमींदारी में लगान के बकाये के प्रश्न पर विद्रोह कर दिया। 1835 ई. के अन्त में धनंजय की मुत्यु के बाद आम जनता ने इस विद्रोह को जारी रखा। फरवरी, 1837 ई. में अंग्रेजों ने इसे बुरी तरह दबा दिया।

 

19. वहाबी आन्दोलनः

 

वहाबी-आन्दोलन भारत में शुरू किया बरेली के सैयद अहमद बरेलवी ने। वैसे तो इस आन्दोलन का लक्ष्य इस्लाम में सुधार लाना था, पर भारत में इसका लक्ष्य अंग्रेजों एवं शोषक वर्ग के अन्य लोगों का विरोध करना हो गया। पटना इस आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था, यद्यपि इसका प्रसार सम्पूर्ण भारत

में हो गया था। यह आन्दोलन 1830 ई. में शुरू हुआ और 1869 ई. तक इसने अंग्रेजी सत्ता को परेशान किया। 1831 ई. में बरेलवी की मृत्यु के बाद बिहार में एनायत अली और विलायत अली तथा बंगाल में तीतू मीर और दुदू मियां ने नेतृत्व किया। अन्तिम चरण में इस आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र पश्चिमोत्तर भारत हो गया था।

 

20. फराजी-आन्दोलनः

 

यह आन्दोलन बंगाल के फरीदपुर जिले में आरम्भ हुआ था। इन आन्दोलन का भी मुख्य उद्देश्य इस्लाम में सुधार करना ही था, पर यह वहाबियों का विरोधी था। बंगाल में कालान्तर में इस आन्दोलन ने अंग्रेजों के विरोध का रुख अपना लिया। शरीयतुल्ला एवं उसके पुत्र मुहम्मद मोहसिन (दुदू मियां) ने बंगाल के गरीब किसानों के बीच काफी लोकप्रियता अर्जित की और उनके बल पर एक सशक्त एवं प्रभावी आन्दोलन चलाया।

 

21. सम्भलपुर का विद्रोहः

 

सम्भलपुर में उत्तराधिकार के प्रश्न पर अंग्रेजों के हस्तक्षेप के विरोध में कई चरणों में गोंडों ने विद्रोह किए। पहला विद्रोह 1833 ई. में हुआ, पर इसे शीघ्र ही दबा दिया गया। 1839 ई. में सुरेन्द्र साईं के नेतृत्व में एक बार फिर विद्रोह हुआ, जिसका कारण नए भूमि-बन्दोबस्त के द्वारा राजस्व में अंग्रेजों द्वारा वृद्धि कर देना था। यह विद्रोह काफी लम्बे समय तक चलता रहा। 1857 ई की क्रान्ति के समय सम्भलपुर में सुरेन्द्र साईं ने मोर्चा सम्भाला, जिसमें अन्य जमींदारों ने भी उसका साथ दिया। 1862 ई. में सुरेन्द्र साई द्वारा आत्मसमर्पण कर देने के बाद यह विद्रोह कमजोर पड़ गया।

 

22. कोलिय-विद्रोहः

 

कोलिय मध्यकालीन भारत में दुर्गों के सैनिक के रूप में काम किया करते थे। अंग्रेजों का शासन स्थापित हो जाने के बाद दुर्गों का महत्त्व नहीं रहा, उन्हें तोड़ दिया गया। ऐसे में ये बेगार हो गए और ये यत्र-तन्त्र विद्रोह के झण्डे बुलन्द करते रहे। 1824 ई. के अन्त में पश्चिमी घाट एवं कच्छ के सीमावर्ती भाग के कोलियों ने विद्रोह किया, जिसे 1825 ई. में दबा दिया गया। 1839 ई. में पूना के आसपास के कोलियों ने विद्रोह आरम्भ कर दिया, जो 1850 ई. तक चला। विभिन्न चरणों में भाऊ सरे, चिमनाजी यादव, नाना दरबारे, रघु भगरिया, बापू भगरिया आदि ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह को रामोसिसों ने भी सहयोग दिया था।

 

23. गडकरी-विद्रोहः

 

गडकरी भी मराठा-क्षेत्र के दुगों में सैनिक के रूप में काम किया करते थे, जिसके बदले इन्हें करमुक्त जमीन मिला करती थी। अंग्रेजों का शासन हो जाने के बाद ये बेगार तो हो ही गए थे, इनकी जमीनों पर कर भी आरोपित कर दिया गया। इसके विरोध में गाडकरियों ने 1844 ई. में विद्रोह कर दिया। सामानगढ़, कोलहापुर आदि इस विद्रोह के प्रमुख केन्द्र थे। बाबाजी अहीरेकर इस विद्रोह के प्रमुख नेताओं में थे। _

 

24. बुन्देला-विद्रोहः

 

1835 ई. में अंग्रेजों ने उत्तर- पश्चिमी प्रांत नामक एक नया प्रान्त बनाया, जिसमें मराठों से छीने गए आधुनिक मध्यप्रदेश के दो जिले भी मिलाये गए-सागर एवं दमोह। इस प्रान्त में 'बर्ड कमीशन' के प्रतिवेदन पर महलवारी बन्दोबस्त किया गया, जिसमें बीस वर्षों के लिए लगान का निर्धारण बढ़ी हुई दर पर कर दिया गया। इससे यहां के जमींदार नाराज हुए और जब उनसे लगान जबरदस्ती वसूल किया जाने लगा, तो सागर के दो जमींदारों जवाहर सिंह एवं मधुकरशाह ने 1842 ई. में विद्रोह कर उत्पात मचाना शुरू कर दिया। 1843 ई. तक इस विद्रोह पर काबू पा लिया गया और लगान भी कम कर दिया गया था।

 

 

1857 का विद्रोह

 

 आधुनिक भारत के इतिहास में 1857 ई. अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है, क्योंकि इसी वर्ष से भारतीय स्वाधीनता संग्राम की शुरूआत मानी जाती है।

 

तात्कालिक कारण

 

1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारण सैनिक थे। कम्पनी ने भारतीयों के प्रति जो भेदभाव की नीति रखी थी, उसका सर्वाधिक स्पष्ट रूप सेना में था। कारण, उसी में भारतीयों के रोजगार मिलने की सर्वाधिक संभावना थी। परन्तु, भारतीय सैनिकों के साथ बड़ा ही बुरा बर्ताव होता था। इस कारण हम पहले भी देखते हैं कि 1765 में बंगाल में, 1806 में वेल्लूर में, 1824 में बैरकपुर में और अन्यत्र भी सेना में विद्रोह होते रहे। कितनी भी योग्यता या बहादुरी दिखाने पर भारतीयों को "जमादार' से ऊंची पदोन्नति नहीं मिलती थी। भारतीय सैनिकों के वेतन, भत्ते आदि भी अंग्रेजों की तुलना में बहुत कम थे। साथ ही, खान-पान, रहन-सहन एवं व्यवहार में भी भारतीयों के साथ भेदभाव बरता जाता था। सेना में भी पादरी ईसाई-धर्म के प्रचार के लिए आते रहते थे। फिर, कम्पनी की नीति से जिस प्रकार भारतीय कृषि-अर्थव्यवस्था कुप्रभावित हो रही थी, उससे सैनिकों पर भी असर पड़ता था, क्योंकि, उस समय सैनिकों की आय उतनी नहीं थी कि उसकी आय से ही सारे परिवार के लोगों का पेट भर सके अर्थात् कृषि ही उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती थी। वस्तुतः, सैनिक भी 'वर्दीधारी किसान' ही थे, जिस पर लगान का समान बोझ पड़ता था। इतना तक भारतीय सैनिकों ने बरदाश्त किया। पर, जब उनकी धार्मिक भावना पर चोट की गई, तब उन्होंने व्यापक विद्रोह कर दिया। लॉई केनिंग के समय 1856 में 'द जेनरल सर्विस इनलिस्टमेण्ट एक्ट' के अनसार पर घोषणा की गई कि भारतीय सैनिकों को युद्ध के लिए समुद्र पारकर विदेश भी जाना होगा। भारतीय समुद्र-यात्रा को पाप समझते थे। इसका विरोध कर ही रहे कि कम्पनी की सेना में एक नई 'इनफिल्ड' नामक राइफल आई, जिसमें गोली लगाने से पहले कारतूस को मुंह से खोलना पड़ता था और कारतूस में चर्बी चढी होती थी। कतिपय उदाहरणों में गायों व सूअरों की चर्बी का प्रयोग किया गया था। सैनिकों को जैसे ही इस बात का पता चला, उनका क्षोभ सीमा पार कर गया। सबसे पहले बैरकपुर छावनी में मंगल पांडेय ने 29 मार्च, 1857 को ऐसी कारतूस के प्रयोग का विरोध किया। उसने काफी उत्पात मचाया-8 अप्रैल, 1857 को उसे फांसी दे दी गई। 6 मई को सैनिकों ने फिर विरोध किया। अब कम्पनी ने भारतीय सैनिकों का रुख देखते हुए उनके शस्त्रास्त्र जब्त करना आरम्भ कर दिया, सैनिकों को सजा दी जाने लगी और उन्हें बड़ी संख्या में कैद किया जाने लगा। अंत में, 10 मई, 1857 को सैनिकों ने व्यापक स्तर पर विरोध कर विद्रोह की घोषणा कर दी और क्रांति की शुरुआत हो गई।

 

क्रांति का संगठन, उद्देश्य और समय

 

संगठनः

1857 की क्रांति के संबंध में यह कहा जाता है कि इसमें संगठन का अभाव था। इस क्रांति के लिए उद्देश्य, निश्चित समय, प्रचार, तैयारी, एकता, नेतृत्व आदि संगठन के सभी आवश्यक तत्त्वों का दर्शन होता है। क्रांति का संदेश नगरों से लेकर गांवों तक सम्प्रेषित किया गया था। संबाद प्रेषण के लिए कमल आदि प्रतीकों का प्रयोग किया गया था।

 

उद्देश्य'

1857 की क्रांति का उद्देश्य निश्चित और स्पष्ट था। अंग्रेजों को देश से निकालना और भारत को स्वाधीन कराना क्रांतिकारियों का अंतिम लक्ष्य था। बह कहना कि इस क्रांति में भाग लेने वाले सैनिकों, जमींदारों या छोटे-मोटे शासकों के निजी हित थे, क्रांति के महत्त्व को कम करने की कोशिश है। वस्तुतः यह विद्रोह एकता पर आधारित और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध था।

समयः

सम्पूर्ण देश में क्रांति की शुरूआत का एक ही समय निर्धारित किया गया था और वह था 31 मई 1857 का दिन। जे सी. विल्सन ने इस तथ्य को स्वीकार किया था और कहा था कि प्राप्य प्रमाणों से मझे पूर्ण विश्वास हो चुका है कि एक साथ विद्रोह करने के लिए 31 मई, 1857 का दिन चना गया था। यह संभव है कि कुछ क्षेत्रों में विद्रोह का सूत्रपात निश्चित समय के बाद हआ हो। किन्तु, इस आधार पर यह आक्षेप नहीं किया जा सकता कि 1857 की क्रांति के सूत्रपात के लिए कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं किया गया था। क्रांति की शुरूआत 1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया। 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी। ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था, उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया गया था। छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई। उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया।

हथियार छीन लिए गए। हथियार छीने जाने को मेरठ में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी अपमान का विषय समझा ऐसी स्थिति में सैनिकों के लिए अंग्रेजों से बदला लेना परम कर्त्तव्य हो गया। मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को ही जेलखानों को तोड़ना, भारतीय सैनिकों को मुक्त करना और अंग्रेजों को मारना शुरू कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सैनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी।

 

एकता का प्रदर्शन

 

1857 की क्रांति में हिन्दू और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर भाग लिया। क्रांति का मसविदा तैयार करने से लेकर क्रांति के क्रियान्वयन तक दोनों सम्प्रदाय के लोगों ने एक-दूसरे का पूरा साथ दिया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के विरोध में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच वैसी एकता फिर कभी दिखाई नहीं पड़ी। इसका कारण यह था कि अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति को हिन्दुओं और मुसलमानों को तोड़ने में लागू किया था। फिर, अंग्रेजी सरकार ने जिस नए कारतूस को भारतीय सैनिकों के प्रयोग के लिए दिया था, उसमें गाय और सूअर की चर्वी का उपयोग किया गया था। इससे दोनों धर्मों के सैनिकों ने अंग्रेजी सरकार का विरोध किया।

 

क्रांति का दमन

 

क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति वढ़ते आक्रोश को देखकर अंग्रेजी सरकार घबरा गयी। क्रांति की विभीषिका को देखते हुए अंग्रेजी सरकार ने निर्ममतापूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। क्रांतिकारियों को छोड़ जनसाधारण का कत्ल किया गया, गांवों को लूटा गया और निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई।

दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेन के वाद नरसंहार शुरू हो गया था। कमाण्डर इन चीफ जनरल एनसन ने रजिमेण्टों को आदेश देकर फिरोजपुर, जालंधर, फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अंनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया।

अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया, बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, उसके पुत्रों की हत्या करवा दी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती, तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था।

 

क्रांति की असफलता के कारण

 

क्रांतिकारियों ने जिस उद्देश्य से 1857 की क्रांति का सूत्रपात किया था, उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्होंने सोचा था कि अंग्रेजों को बाहर खदेड़ कर भारत को स्वाधीन कर देंगे। परन्तु, क्रांति के दमन के बाद अंग्रेजों ने ऐसी नीति अपनायी कि 90 और वर्षों तक भारतीयों को गुलाम बनाए रखने में सफल रहे। इस महान् क्रांति की असफलता के अनेक कारण थे, जिनमें कुछ प्रमुख हैं

 

(i) निश्चित समय की प्रतीक्षा न करनाः 

 

1857 की क्रांति की देशव्यापी शुरुआत के लिए 31 मई 1857 का दिन निर्धारित किया गया था एक ही दिन क्रांति शुरू होने पर उसका व्यापक प्रभाव होता । परन्तु, सैनिकों ने आक्रोश में आकर निश्चित समय के पूर्व 10 मई, 1857 को ही विद्रोह कर दिया। सैनिकों की इस कार्यवाही के कारण क्रांति की योजना अधूरी रह गयी। निश्चित समय का पालन नहीं होने के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति की शुरूआत अलग-अलग दिनों में हुई। इससे अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का दमन करने में काफी सहायता हुई। अनेक स्थानों पर तो 31 मई की प्रतीक्षा कर रहे सैनिकों के हथियार छीन लिए गए। यदि सभी क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात एक साथ हुआ होता, तो तस्वीर कुछ और ही होती।

 

(ii) देशी राजाओं का देशद्रोही रूखः 

 

1857 की क्रांति का दमन करने में अनेक देशी राजाओं ने अंग्रेजों की खुलकर सहायता की। पटियाला, नाभा, जींद, अफगानिस्तान और नेपाल के राजाओं ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता के साथ-साथ आर्थिक सहायता भी की। देशी राजाओं की इस देशद्रोहितापूर्ण भूमिका ने क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़ा और क्रांति के दमन के लिए अंग्रेजी सरकार को प्रोत्साहित किया।

 

(iii) साम्प्रदायिकता का खेल: 

 

1857 ई. की क्रांति के दौरान अंग्रेजी सरकार हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने में तो सफलता प्राप्त नहीं कर सकी, परन्तु आंशिक रूप से ही सही साम्प्रदायिकता का खेल खेलने में सफल रही। साम्प्रदायिक भावनाओं को उभार कर ही अंग्रेजी सरकार ने सिक्ख रेजिमेंट और मदास के सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। मराठों, सिक्खों और गोरखों को बहादुरशाह के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। उन्हें यह महसूस कराया गया कि बहादुरशाह के हाथों में फिर से सत्ता आ जाने पर हिन्दुओं और सिक्खों के अत्याचार होगा। इसका मूल कारण था कि सम्पूर्ण पंजाब में बादशाह के नाम झूठा फरमान अंग्रेजों की ओर से जारी किया गया, जिसमें कहा गया था कि लड़ाई में जीत मिलते ही प्रत्येक सिक्ख का वध कर दिया जाएगा। सैनिकों के साथ-साथ जनसाधारण को ही गुमराह किया गया। इस स्थिति में क्रांति का असफल हो जाना निश्चित हो गया जब देश के भीतर देशवासी ही पूर्ण सहयोग न दें, तो कोई भी क्रांति सफलता प्राप्त नहीं कर सकती।

 

(iv) सम्पूर्ण देश में प्रसारित न होनाः 

 

1857 ई. की क्रांति का प्रसार सम्पूर्ण भारत में नहीं हो सका था। सम्पूर्ण दक्षिण भारत और पंजाब का अधिकांश हिस्सा इस क्रांति से अछूता रहा। यदि इन क्षेत्रों में क्रांति का विस्तार हुआ होता, तो अंग्रेजों को अपनी शक्ति को इधर भी फैलाना पड़ता और वे पंजाब रेजिमेण्ट तथा मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में करने में असफल रहते।

 

(v) शस्त्रास्त्रों का अभावः 

 

क्रांति का सूत्रपात तो कर दिया गया, किन्तु आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण क्रांतिकारी आधुनिक शस्त्रास्त्रों का प्रबंध करने में असफल रहे। अंग्रेजी सेना ने तोपों और लम्बी दूरी तक मार करने वाली बन्दूकों का प्रयोग किया, जबकि क्रांतिकारियों को तलवारों और भालों का सहारा लेना पड़ा। इसलिए, क्रांति को कुचलने में अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई।

 

(vi) सहायक साधनों का अभावः 

 

सत्ताधारी होने के कारण रेल, डाक, तार एवं परिवहन तथा संचार के अन्य सभी साधन अंग्रेजों के अधीन थे इसलिए, इन साधनों का उन्होंने पूरा उपयोग किया। दूसरी ओर, भारतीय क्रांतिकारियों के पास इन साधनों का पूर्ण अभाव था। क्रांतिकारी अपना संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक शीघ्र भेजने में असफल रहे। सूचना के अभाव के कारण क्रांतिकारी संगठित होकर अभियान बनाने में असफल रहे। इसका पूरा-पूरा फायदा अंग्रेजों को मिला और अलग-अलग क्षेत्रों में क्रांति को क्रमशः कुचल दिया गया।

 

(vii) सैनिक संख्या में अंतरः 

 

एक तो विद्रोह करने वाले भारतीय सैनिकों की संख्या वैसे ही कम थी, दूसरे अंग्रेजी सरकार द्वारा बाहर से भी अतिरिक्त सैनिक मंगवा लिया गया था। उस समय कम्पनी के पास वैसे 96,000 सैनिक थे। इसके अतिरिक्त देशी रियासतों के सैनिकों से भी अंग्रेजों को सहयोग मिला। अंग्रेज सैनिकों को अच्छी सैनिक शिक्षा मिली थी और उनके पास अधुनातन शस्त्रास्त्र थे, परन्तु अपने परम्परागत हथियारों के साथ ही भारतीय क्रांतिकारियों ने जिस संघर्ष क्षमता का परिचय दिया, उससे कई स्थलों पर अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए। फिर भी, अंततः सफलता अंग्रेजों के हाथों ही लगी।

 

विद्रोह के प्रमुख केंद्र एवं नेतृत्वकर्ता

 

यद्यपि 1857 के विद्रोह का नेतृत्व दिल्ली के सम्राट बहादरशाह जफर कर रहे थे परंतु यह नेतृत्व औपचारिक एवं नाममात्र का था विद्रोह का वास्तविक नेतृत्व जनरल बख्त खां के हाथों में था, जो बरेली के सैन्य विद्रोह के अगुआ थे तथा बाद में अपने सैन्य साथियों के साथ दिल्ली पहुंचे थे। बख्त खां के नेतृत्व वाले दल में प्रमुख रूप से 10 सदस्य थे, जिनमें से सेना के 6 तथा 4 नागरिक विभाग से थे। यह दल या न्यायालय सम्राट के नाम से सार्वजनिक मुद्दों की सुनवायी करता था बहादुरशाह जफर का विद्रोहियों पर न तो नियंत्रण था न ही ज्यादा संपर्क । बहादुरशाह का दुर्बल व्यक्तित्व, वृद्धावस्था तथा नेतृत्व अक्षमता विद्रोहियों को योग्य नेतृत्व देने में सक्षम नहीं थी। कानपुर में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब सभी की पसंद थे। उन्हें कम्पनी ने उपाधि एवं महल दोनों से वंचित कर दिया था तथा पूना से निष्कासित कर कानपुर में रहने पर बाध्य कर दिया था। विद्रोह के पश्चात नाना साहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया तथा स्वयं को भारत के सम्राट बहादुरशाह के गवर्नर के रूप में मान्यता दी। 27 जून 1857 को सर ह्यू व्हीलर ने कानपुर में आत्मसमर्पण कर दिया।

 

लखनऊ में विद्रोह का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। यहां 4 जून 1857 को प्रारंभ हुये विद्रोह में सभी की सहानुभूति बेगम के साथ थी बेगम हजरत महल के पुत्र विरजिस कादिर को लखनऊ का नवाब घोषित कर दिया गया तथा समानांतर सरकार की स्थापना की गयी। इसमें हिन्दुओं एवं मुसलमानों की समान भागेदारी थी यहां के अंग्रेज रेजीडेंट हेनरी लारेंस ने अपने कुछ वफादार सैनिकों के साथ ब्रिटिश रेजीडेंसी में प्रश्रय लिया। लेकिन विद्रोहियों ने रेजीडेंसी पर आक्रमण किया तथा हेनरी लारेंस को मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात ब्रिगेडियर इंग्लिश ने विद्रोहियों का बहादुरीपूर्वक प्रतिरोध किया। बाद में सर जेम्स आउटम तथा सर हेनरी हैवलॉक ने लखनऊ को जीतने का यथासंभव प्रयास किया पर वे भी सफल नहीं हो सके। अंततः नये ब्रिटिश कमांडर इन-चीफ सर कोलिन कैम्पबेल ने गोरखा रेजीमेंट की सहायता से मार्च 1858 में नगर पर अधिकार प्राप्त करने में सफलता पायी। मार्च 1858 तक लखनऊ पूरी तरह अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया फिर भी कुछ स्थानों पर छिटपुट विद्रोह की घटनायें होती रहीं । 

 

रोहिलखण्ड के पूर्व शासक के उत्तराधिकारी खान बहादुर ने स्वयं को बरेली का सम्राट घोषित कर दिया। कम्पनी द्वारा निर्धारित की गई पेंशन से असंतुष्ट होकर अपने 40 हजार सैनिकों की सहायता से खान बहादुर ने लम्बे समय तक विद्रोह का झंडा बुलंद रखा।

 

बिहार में एक छोटी रियासत जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह ने यहां विद्रोह का नेतृत्व किया। इस 70 वर्षीय बहादुर जमींदार ने दानापुर से आरा पहुंचने पर सैनिकों को सुदृढ़ नेतृत्व प्रदान किया तथा ब्रिटिश शासन को कड़ी चुनौती दी।

 

फैजाबाद के मौलवी अहमदउल्ला 1857 के विद्रोह के एक अन्य प्रमुख नेतृत्वकर्ता थे। वे मूलतः मद्रास के निवासी थे। बाद में वे फैजाबाद आ गये थे तथा 1857 विद्रोह के अन्तर्गत जब अवध में विद्रोह हुआ तब मौलवी अहमदउल्ला ने विद्रोहियों को एक सक्षम नेतृत्व प्रदान किया।

 

1857 के विद्रोह में इन सभी नेतृत्वकर्ताओं में सबसे प्रमुख नाम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का था, जिसने झांसी में सैनिकों को ऐतिहासिक नेतृत्व प्रदान किया। झांसी के शासक राजा गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात लार्ड डलहौजी ने राजा ने दत्तक पुत्र को झांसी का राजा मानने से इंकार कर दिया तथा 'व्यपगत के सिद्धांत' के आधार पर झांसी को कम्पनी के साम्राज्य में मिला लिया। तदुपरांत गंगाधर राव की विधवा महारानी लक्ष्मीबाई ने 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी' का नारा बुलंद करते हुए विद्रोह का मोर्चा संभाल लिया। कानपुर के पतनोपरांत नाना साहब के दक्ष सहायक तात्या टोपे के झांसी पहुंचने पर लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह प्रारंभ कर दिया। तात्या टोपे एवं लक्ष्मीवाई की सम्मिलित सेनाओं ने ग्वालियर की ओर प्रस्थान किया जहां कुछ अन्य भारतीय सैनिक उनकी सेना से आकर मिल गये। 

 

ग्वालियर के शासक सिंधिया ने अंग्रेजों का समर्थन करने का निश्चय किया तथा आगरा में शरण ली। कानपुर में नाना साहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया तथा दक्षिण में अभियान करने की योजना बनायी। जून 1858 तक ग्वालियर पुनः अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।

1857 का विद्रोह लगभग 1 वर्ष से अधिक समय तक विभिन्न स्थानों पर चला तथा जुलाई 1858 तक पूर्णतया शांत हो गया।

 

क्रांति के परिणाम

 

1857 ई. की क्रांति अपने तत्कालीन लक्ष्य की दृष्टि से असफल रही, परन्तु इस क्रांति ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इस क्रांति के परिणाम अच्छे और बुरे दोनों हुए। क्रांति का परिणाम अंग्रेजों और भारतीयों के लिए अलग-अलग हुआ।

 

1857 ई. की क्रांति के जो परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गए, उनमें प्रमुख हैं- 

 

सत्ता का हस्तांतरणः

 

क्रांति के बाद भारत में सत्ता ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकलकर ब्रिटिश सरकार के हाथों में चली गयी। इसके लिए भारत शासन अधिनियम, 1858 पारित हुआ। अब भारत का शासन प्रत्यक्षतः ब्रिटिश नीति से होने लगा। ऐसा करने से कम्पनी द्वारा शासन-व्यवस्था के लिए संगठित बोर्ड ऑफ कंट्रोल, द कोर्ट ऑफ प्रोपराइट्स तथा द कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का विघटन हो गया। इनके स्थान पर द सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया ( भारत सचिव) के रूप में नए पद का सृजन किया गया। इस सचिव की सहायता लिए इंग्लैंड में एक परिषद का भी गठन किया गया। अब भारत का गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधि बन गया और इसे वायसराय कहा जाने लगा। ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने भारत में अच्छे शासन-प्रबंध की स्थापना के लिए कदम उठाए जाने की घोषणा की। महारानी की इस घोषणा से भारतीयों का रोष एवं असंतोष कुछ समयों के लिए ठंढा पड़ गया।

 

सतर्कता में वृद्धिः 

 

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने सेना और सैन्य सामग्रियों पर एकाधिकार कर लिया, जिससे भविष्य में भारतीय सैनिकों की ओर से उनके लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो। इस समय से यह भी निश्चय किया गया कि किसी भी भारतीय को उच्च सैनिक पद प्रदान नहीं किया जाएगा। अंग्रेजों को इस नीति को क्रियान्वित करने से काफी समय तक सुरक्षित रहने का अवसर प्राप्त हुआ। अस्त्र-शस्त्र रखने की मनाही कर दी। इससे भारतीयों की आक्रामक शक्ति को पूर्ण रूप से पंगु बना दिया गया।

 

शस्त्रास्त्र पर प्रतिबंधः 

 

अंग्रेजी सरकार ने भारत की साधारण जनता के बीच दुर्भाग्यवश भारत के धन से अंग्रेजी सरकार की सेना अधुनातन शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित हो गई और भारत का जनसाधारण

अपनी आत्मसुरक्षा के लिए पारम्परिक शस्त्रास्त्रों को रखने से भी वंचित हो गया

 

देशी राजाओं से मित्रताः 

 

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने देशी राजाओं के साथ फिर से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए। देशी राजाओं के साथ विरोध की नीति अपनाने की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। आगे फिर कोई दुष्परिणाम सामने न आए, इसलिए अंग्रेजी सरकार ने देशी राजाओं के साथ मित्रता करने और इसका लाभ उठाने का मार्ग अपनाया। इसी नीति को ध्यान में रखकर ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने 1 नवम्बर, 1858 को देशी राजाओं का पूर्ण सम्मान किए जाने की घोषणा की।

 

पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में वृद्धिः 

 

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने ऐसी शिक्षा-पद्धति को लागू किए जाने को प्रोत्साहित किया, जिससे भारतीय अपने धर्म और संस्कृति को भूल जाएं तथा पाश्चात्य संस्कृति की ओर आकृष्ट हों। पाश्चात्य देशों के वैचारिक आंदोलन से भारत के लोगों को नयी प्रेरणा मिली तथा वे लाभान्वित भी हुए, पर उन देशों की आडम्बरपूर्ण जीवन-पद्धति से भारतीयों का चरित्र-बल भी समाप्त होने लगा। भारत के लोगों के साथ ऐसा होना अंग्रेजों के लिए सुखदायक था।

 

भारतीयों से दूरी में वृद्धिः 

 

अंग्रेजों ने आरम्भ से गोरे और काले के आधार पर श्रेष्ठता और हीनता की भावना फैला रखी थी। 1857 की क्रांति के बाद तो प्रत्येक अंग्रेज भारतीयों से सावधान और अलग-थलग रहने लगा। अंग्रेजों को ऐसा महसूस होने लगा कि भारतीयों से दूरी बनाए रखना ही उनके हित में है, क्योंकि नजदीक आने से भारतीय अंग्रेजों के भेदों को जान लेंगे और उन्हें परेशान करने लगेंगे। क्रांति के दौरान अंग्रेज सतर्क हो गए और उस सतर्कता को उन्होंने लगभग हमेशा बनाए रखा।

 

सरकार की नीति में परिवर्तनः 

 

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के अंतिम दौर में भारत में कठोर एवं दमनात्मक नीति को अपनाया गया था। 1857 की क्रांति को जन्म देने का श्रेय यदि लॉर्ड डलहौजी की दोषपूर्ण नीतियों को दिया जाए, तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्रांति के दौरान भारतीयों के असंतोष और रोष को देखकर अंग्रेजी सरकार भारतीयों के विचार पर भी ध्यान देने लगी। सरकार ने ऐसा अनुभव किया कि भारतीयों की पूर्णरूपेण उपेक्षा से परेशानियां बढ़ेंगी। भारतीयों के हित में तो सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया गया, पर अनेक प्रकार के आश्वासन अवश्य दिए जाने लगे।

1857 की क्रांति के परिणाम भारतीयों के पक्ष में भी रहे। भारतीयों के पक्ष में जो सकारात्मक परिणाम सामने आए, वे हैं

 

आत्मबल में वृद्धिः 

 

1857 की क्रांति अपने लक्ष्य को तत्काल प्राप्त करने में असमर्थ रही। परन्तु, इस क्रांति ने भारतीयों के आत्मवल में वृद्धि की और उनकी सुसुप्त चेतना को स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए जागृत किया। अब भारतीयों में स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना बलवती हो गयी और उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया। इस समय से एक जागृत भारत का अभ्युदय हुआ।

 

राजनीतिक जागृतिः 

 

लंबी पराधीनता और शासकों को अपराजेय मानने की धारणा ने भारतीयों में आलस्य भर दिया था। पराधीनता को भारतीयों ने अपनी नियति मान ली थी। परन्तु, 1857 की क्रांति ने भारतीयों के शीतित रक्त को फिर से खौला दिया। क्रांति के बाद भारतीयों को ऐसा महसूस हुआ कि जोर लगाने पर स्वशासन की प्राप्ति आसानी से हो सकती है।

 

संगठन की प्रेरणाः 

 

यद्यपि 1857 की क्रांति को संगठित स्वरूप प्रदान की पूर्ण कोशिश की गई थी, तथापि संचार-व्यवस्था एवं सूचना प्रौद्योगिकी के अभाव के कारण मनोवांछित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी थी। व्यापक संगठन के अभाव के कारण ही क्रांति को कुचल दिया गया था। इसलिए, इस क्रांति से आगे के क्रांतिकारियों को व्यापक संगठन की प्रेरणा प्राप्त हुई। 1857 ई. की क्रांति से प्रेरणा पाकर ही आगे के वर्षों में अनेक क्रांतिकारी आंदोलनों का संचालन संभव हो सका ।

 

एकता की प्रेरणाः 

 

1857 की असफलता का कारण सम्पूर्ण भारतवासियों में एकता का अभाव भी था। सिक्ख और दक्षिण भारतीय क्रांति के विरुद्ध थे तथा अनेक देशी रियासतों के शासकों ने अंग्रेजों की सहायता की थी। जिन क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात हुआ, वहां भी सभी वर्गों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध नहीं किया। एकता ही राष्ट्रीयता का मूल मंत्र है-इस तथ्य की ओर भारतीयों का ध्यान क्रांति के असफल हो जाने के बाद गया। अब उन्होंने ऐसा महसूस किया कि एक साथ चलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है और लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त की जा सकती है।

 

स्वतंत्रता आंदोलन को नयी दृष्टिः 

 

1857 की क्रांति का जिस निर्ममता के साथ अंग्रेजी सरकार ने दमन किया था, उससे उसका असली चेहरा भारतीयों के सामने उजागर हुआ। अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण व्यवहार को देखने के बाद भारतवासियों ने अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का संकल्प लिया। इस क्रांति से स्वतंत्रता आंदोलन को भविष्य में एक नयी दृष्टि मिली। विद्रोह के बदले असहयोग का मार्ग अपनाया गया, क्योंकि इससे अंग्रेजों को दमनात्मक अत्याचार का अवसर प्राप्त नहीं होता। शासन और शस्त्रास्त्र का नियंत्रण अंग्रेजी सरकार के हाथों में था और किसी भी प्रकार के विद्रोह का गला घोंट देने की क्षमता उसमें थी, इसलिए क्रांति के बाद विद्रोह का रास्ता छोड़ने की प्रेरणा मिली।

 

1857 का विद्रोहः स्वतंत्रता संघर्ष अथवा सैनिक विद्रोह

 

वर्ष 1857 का विद्रोह शताब्दियों से शोषित, प्रताड़ित एवं उपेक्षित भारतीय जन-समूह की स्वतंत्रता प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा का प्रतीक है। 1857 ई. में विद्रोह के सम्पूर्ण घटनाक्रम पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि यह एक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत स्वतंत्रता संघर्ष था, परन्तु कुछ अंग्रेज हुए इस इतिहासकारों और उनके समर्थक भारतीय इतिहासकारों द्वारा इसे 'सैनिक विद्रोह' अथवा 'गदर' की संज्ञा प्रदान कर इसके महत्त्व को कम करने की कोशिश की जाती है।

फ्रेड राबर्ट्स, एडवर्ड टॉम्पसन, जी.टी. गैरेट, सर जॉन सिले, जेम्स आउट्रम, विलियम हॉवर्ड रसेल, जी.बी. मैल्लेसन आदि पाश्चात्य इतिहासकारों के साथ-साथ रमेशचन्द्र मजुमदार, सुरेन्द्रनाथ सेन, हरिप्रसाद चट्टोपाध्याय, पूरनचंद जोशी आदि भारतीय इतिहासकार 1857 के विद्रोह को सैनिकों द्वारा छोटे स्तर पर किए गए विद्रोह के रूप में व्याख्यायित करते हैं। इनका मानना है कि 1857 के विद्रोह में राष्ट्रीयता की भावना का सर्वथा अभाव था।

 

दूसरी ओर, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, विनायक दामोदर सावरकर, एस.ए.ए. रिजवी, बेंजामिन डिजरैली, जस्टिस मेकार्थी, जान ब्रूस नार्टन, बिपिन चन्द्र आदि-जैसे इतिहासकार 1857 के विद्रोह को भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रथम संघर्ष की संज्ञा दी है। इनका मानना है कि वर्ष 1857 का आन्दोलन जन-जीवन से सम्पृक्त, भारत से विदेशी आततायियों को निकालने के उद्देश्य से संबद्ध तथा एक संगठित और सुनियोजित कार्यक्रम था।

 

1857 का संग्राम यदि सैनिक विद्रोह मात्र था, तो उसमें सिर्फ सैनिकों ने ही भाग क्यों नहीं लिया?

 

मेरठ से उठी क्रांति की लहर ने दो दिनों के भीतर ही दिल्ली को भी अपनी चपेट में ले लिया। वस्तुतः, विद्रोह में ग्रामीण और शहरी जनता सम्मिलित थी। हां, क्रांति की शुरूआत सैनिकों ने की थी।

वर्ष 1857 के विप्लव में क्रुद्ध सिपाहियों के साथ-साथ अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध जनसाधारण ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। इसलिए, इसे मात्र 'सैनिक विद्रोह' की संज्ञा देना युक्तिसंगत नहीं है। 

डॉ. आर.सी. मजूमदार का यह कहना कि 'तथाकथित 1857 का प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था' सर्वथा अतिशयोक्तिपूर्ण और सत्यता से परे है। स्वतंत्रता की भावना से उद्वेलित हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों का सम्मिलित होकर विदेशियों को अपने देश से निकालने का पहला प्रयास 1857 ई. में ही हुआ। इसलिए, 1857 की क्रांति को भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम का प्रथम उद्घोष' कहना सर्वथा युक्तिसंगत है।

 

1857 की क्रांति के संबंध में प्रमुख उक्तियां

1. 'वर्ष सत्तावन का विद्रोह सिपाही विद्रोह मात्र था।

झेड रॉबर्ट 

2. 1857 की घटना सिर्फ गाय की चर्बी से उत्पन्न सैनिक उत्पात थी।

सर जॉन लॉरेंस का

3. 1857 के विद्रोह को या तो सिपाही विद्रोह या अनधिकृत राजाओं तथा जमींदारों अनियोजित प्रयत्न अथवा सीमित किसान-युद्ध कहा जा सकता है।

एडवर्ड टॉम्पसन और जी.टी. गैरेट

4.1857 का विद्रोह स्वतंत्रता संघर्ष नहीं धार्मिक युद्ध था।'

विलियम हॉवर्ड रसेल

5. 1857 के विद्रोह में राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था और यह सैनिक विद्रोह से बढ़कर और कुछ भी नहीं था।

आर.सी. मजुमदार

6.'सन् सत्तावन का विद्रोह सिपाही विद्रोह नहीं, अपितु स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त भारतीय जनता का संगठित संग्राम था।'

जवाहरलाल नेहरू

7.1857 का विद्रोह केवल सैनिक विद्रोह नहीं था, अपितु यह भारतवासियों का अंग्रेजों के विरुद्ध धार्मिक, सैनिक शक्तियों के साथ राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए लड़ा गया युद्ध था।

जस्टिस मेकार्की

8.1857 का विद्रोह स्वधर्म और राजस्व के लिए लड़ा गया राष्ट्रीय संघर्ष था।

विनायक दामोदर सावरकर

9.'1857 का विद्रोह मुसलमानों के षड्यंत्र का परिणाम था ।

सर जेम्स आउट्रम

10.'1857 ई. की क्रांति भारत की पवित्र भूमि से विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने का प्रयास थी। 

डॉ. सैय्यद अतहर अब्बास रिजवी

 

11.1857 का विद्रोह विदेशी शासन से राष्ट्र को मुक्त कराने का देशभक्तिपूर्ण प्रयास था।

बिपिन चन्द्र

 

12.'1857 का विद्रोह सचेत संयोग से उपजा राष्ट्रीय विद्रोह था।'

बेंजामिन डिजरैली

13.1857 का विद्रोह सैनिक विद्रोह न होकर नागरिक विद्रोह था।'

जान ब्रूस नार्टन

 

14.1857 के विद्रोह का आरंभिक स्वरूप सैनिक विद्रोह का ही था, किन्तु वाद में इसने राजनीतिक स्वरुप ग्रहण कर लिया।

एस.एस. सेन

 

विद्रोह के केंद्र एवं नेता

 

दिल्ली

जनरल बख्त खां

कानपुर

नाना साहब

लखनऊ

बेगम हजरत महल

बरेली

खान बहादुर

बिहार

कुंवर सिंह

फैजाबाद

मौलवी अहमदउल्ला

झांसी

रानी तक्ष्मीबाई

इलाहाबाद

लियाकत अली

ग्वालियर

तात्या टोपे

गोरखपुर

गजाधर सिंह

फर्रुखाबाद

नवाब तफजल हुसैन

सुल्तानपुर

शहीद हसन

सम्भलपुर

सुरेंद्र साई

हरियाणा

राव तुलाराम

मथुरा

देवी सिंह

मेरठ

कदम सिंह

सागर

शेख रमाजान

गढ़मंडला

शंकरशाह एवं राजा ठाकुर प्रसाद

रायपुर

नारायण सिंह

मंदसौर

शाहजादा हुमायूं (फिरोजशाह)


अंग्रेज जनरल 

 

दिल्ली

लेफ्टिनेंट विलोबी, जॉन निकोलसन, लेफि. हडसन।

कानपुर

सर ह्यू व्हीलर, कोलिन कैम्पबेल ।

लखनऊ

हेनरी लारेंस, ब्रेगेडियर इंग्लिश, हेनरी

झांसी

सर ह्यू रोज।

बनारस

कर्नल जेम्स नील।

 

 





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