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INTERNATIONAL CURRENT TOPICS 2020

 INTERNATIONAL CURRENT TOPICS 2020


1-उइगर मानवाधिकार नीति अधिनियम, 2020 

 

चर्चा में क्यों?


 

जून 2020 में अमेरिका के राष्ट्रपति ने 'उइगर मानवाधिकार विधेयक' को मंजूरी दी। यह अधिनियम ट्रंप प्रशासन से चीन के उन शीर्ष अधिकारियों को दंडित करने की मांग करता है जिनके द्वारा चीन में अल्पसंख्यक उइगर मुसलमानों को हिरासत में रखा गया है

 

प्रमुख बिंदु 

 

यह अधिनियम वरिष्ठ चीनी अधिकारियों के खिलाफ प्रतिबंधों का आह्वान करता है जिनमें शिनजियांग कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव आदि शामिल हैं। 

इस अधिनियम में पहली बार चीन के पोलितब्यूरो के सदस्यों पर भी प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव रखा गया है। 

यह अधिनियम ऐसे समय में लाया गया है जब हाल ही में चीन की संसद के समक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा पर मसौदा प्रस्तुत किया गया था जो पहली बार चीन की सरकार को हॉन्गकॉन्ग के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों का मसौदा तैयार करने तथा इस 'विशेष प्रशासनिक क्षेत्र' में अपने राष्ट्रीय सुरक्षा अंगों को संचालित करने की अनुमति

देता है। 

चीन के इस मसौदे को प्रस्तुत करने के बाद अमेरिकी संसद द्वारा हॉन्गकॉन्ग में सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन को समर्थन देने वाले कानून को पेश किया गया।

 

उइगर मुस्लिम 

 

उइगर मुस्लिम चीन के शिनजियांग प्रांत में निवास करने वाले अल्पसंख्यक हैं। चीन के शिनजियांग प्रांत में इनकी जनसंख्या तकरीबन 40 प्रतिशत है। उइगर नृजातीय रूप से तुर्की के मुस्लिम समुदाय से संबंधित हैं। दरअसल, शिनजियांग चीन के भीतर क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा और एक स्वायत्त क्षेत्र है जिसमें खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। यह क्षेत्र भारत, पाकिस्तान, रूस और अफगानिस्तान सहित आठ देशों के साथ सीमा साझा करता है।

 

 संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के विशेषज्ञों के अनुसार,

 

कम-से-कम 1 मिलियन उइगर मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समूहों को शिनजियांग प्रांत के शिविरों में नज़रबंद रखा गया है। 

. इस तरह के शिविरों में उइगर समुदाय से संबंधित कलाकारों, लेखकों, पत्रकारों तथा विद्यार्थियों को भारी संख्या में नज़रबंद किया। गया है।

 • एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने आतंकवाद, उग्रवाद और अलगाववाद के संदेह के आधार पर तानाशाही का उपयोग करते हुए उइगर एवं अन्य अल्पसंख्यक समूहों को प्रताड़ित करने के लिये एक 'ऑल आउट' संघर्ष प्रारंभ किया है।

 

2- G-7 समूह और भारत 

 

चर्चा में क्यों?

 

हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने G-7 को एक पुराना समू' बताते हुए इसमें भारत, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और रूस को भी शामिल करने की बात कही।

 

प्रमुख बिंदु

 

अमेरिकी राष्ट्रपति ने G-7 के 46वें शिखर सम्मेलन को स्थगित करते हुए कहा कि यह अपने वर्तमान प्रारूप में विश्व की विभिन्न घटनाओं का सही ढंग से प्रतिनिधित्व नहीं करता है।  46वें शिखर सम्मेलन का आयोजन अमेरिका के कैंप डेविड (Camp David) में 10-12 जून, 2020 के मध्य किया जाना था। 

 

45वाँ G-7 शिखर सम्मेलन 24-26 अगस्त, 2019 को फ्रांस के बिआरित्ज़ (Biarritz) में आयोजित किया गया था, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के विशेष अतिथि

के रूप में भाग लेने के लिये आमंत्रित किया गया था।

 • डोनाल्ड ट्रंप के अनुसार, इस समूह को G-10 अथवा G-11 कहा जाना चाहिये

 

G-7 समूह

 •G-7 अर्थात् 'ग्रुप ऑफ सेवन' (Group of Seven) फ्रांस, जर्मनी,इटली, यूनाइटेड किंगडम, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा जैसे देशों का एक समूह है।

यह एक अंतर-सरकारी संगठन है जिसे वर्ष 1975 में उस समय की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं द्वारा विश्व के विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करने के लिये एक अनौपचारिक मंच के रूप में गठित किया गया था।

 कनाडा वर्ष 1976 में और यूरोपीय संघ (European Union) वर्ष 1977 में इस समूह में शामिल हुआ था। हालाँकि, यूरोपीय संघ G-7 समूह का आधिकारिक सदस्य नहीं है।

 आर्थिक मुद्दों पर चर्चा करने के लिये अमेरिका तथा उसके सहयोगियों

द्वारा एक प्रयास के रूप में गठित G-7 समूह दशकों से वैश्विक समाज के समक्ष मौजूदा विभिन्न चुनौतियों जैसे- वित्तीय संकट, आतंकवाद, हथियारों पर नियंत्रण और मादक पदार्थों की तस्करी आदि पर विमर्श कर रहा है।

 वर्ष 1997 में रूस के इस समूह में शामिल होने के बाद कई वर्षों तक G-7 को 'G-8' के रूप में जाना जाता था। हालाँकि, वर्ष 2014 में रूस को क्रीमिया विवाद के बाद समूह से निष्कासित कर दिये जाने के पश्चात् समूह को एक बार पुनः G-7 कहा जाने लगा।

.G-7 देशों के राष्ट्राध्यक्ष वार्षिक शिखर सम्मेलन में मिलते हैं जिसकी अध्यक्षता सदस्य देशों के नेताओं द्वारा एक 'रोटेशनल बेसिस' (Rotational Basis) पर की जाती है। उल्लेखनीय है कि G-7 का कोई भी औपचारिक संविधान या एक निर्धारित मुख्यालय नहीं है। इसलिये वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान समूह द्वारा लिये गए निर्णय गैर-बाध्यकारी होते हैं।

 

G-7 और G-20 में अंतर-

 .G-20 समूह देशों का एक बड़ा समूह है, जिसमें G-7 समूह के

सदस्य भी शामिल हैं। G-20 समूह का गठन वर्ष 1999 में वैश्विक आर्थिक चिंताओं से निपटने हेतु और अधिक देशों को एक साथ एक मंच पर लाने के उद्देश्य से किया गया था। समग्र रूप से G-20 समूह वैश्विक अर्थव्यवस्था के तकरीबन 80 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधि करता है। G-7 के विपरीत, जो वैश्विक समुदाय से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करता है, G-20 में केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था और वित्तीय बाज़ारों से संबंधित मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जाता है।

भारत वर्ष 2022 में G-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा।

 

 G-7 के विस्तार के निहितार्थ

 

 • G-7, जिसमें विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ पहले से ही शामिल हैं, में चार अन्य देशों को शामिल करने के कदम को चीन के विरुद्ध रणनीति के लिये एक संकेत के रूप में देखा जा सकता है। विभिन्न विशेषज्ञ अमेरिका के इस निर्णय को भविष्य में चीन की नीतियों से निपटने के लिये सभी पारंपरिक सहयोगियों को एक साथ लाने की योजना के रूप में देख रहे हैं। आलोचकों का सदैव यह मत रहा है कि G-7 समूह की सदस्यता से भारत और ब्राज़ील जैसी महत्त्वपूर्ण उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को वंचित रखना इसकी एक बड़ी कमी है।

 

 

 

3-भारत-ऑस्ट्रेलिया आभासी शिखर सम्मेलन

 

चर्चा में क्यों?

 

4 जून, 2020 को भारत और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों के बीच पहले आभासी द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में दोनों देशों के बीच 'व्यापक रणनीतिक साझेदारी' के साथ कई अन्य महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए।

 • इस अवसर पर दोनों देशों की तरफ से 'हिंद-प्रशांत समुद्री सहयोग के लिये साझा दृष्टिकोण' (Shared Vision for Maritime Cooperation in the Indo-Pacific) नामक एक संयुक्त दस्तावेज़ जारी किया गया। इस सम्मेलन में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच 9 समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए। साथ ही दोनों देशों के बीच प्रधानमंत्री स्तर की बैठकों को बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की गई।

 

म्यूचुअल लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट

 

 

 • इस शिखर सम्मेलन में दोनों देशों ने साझा सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिये सैन्य अभ्यास और साझा गतिविधियों में वृद्धि के माध्यम से रक्षा क्षेत्र में सहयोग को व्यापक तथा मज़बूत बनाने पर सहमति व्यक्त की। इस समझौते के माध्यम से दोनों देशों की सेनाएँ एक-दूसरे के सैन्य अड्डों का परस्पर प्रयोग कर सकेंगी।

 

 इससे पहले भारत संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ वर्ष 2016 में ऐसे ही एक समझौत 'लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट' (Logistics Exchange Memorandum of Agreement-LEMOA) पर हस्ताक्षर कर चुका है। । साथ ही भारत द्वारा कुछ अन्य देशों फ्राँस, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया के बीच ऐसे ही समझौते पर हस्ताक्षर किये जा चुके हैं।

 

 व्यापक रणनीतिक साझेदारी

 

 • इस सम्मेलन में दोनों देशों के बीच वर्ष 2009 की द्विपक्षीय रणनीतिक

साझेदारी को आगे बढ़ाते हुए व्यापक रणनीतिक साझेदारी के रूप में स्थापित किया गया है। इसके तहत दोनों देशों द्वारा '2+2 वार्ताओं' को सचिव स्तर से आगे

ले जाते हुए मंत्री स्तर तक बढ़ाया गया है। इसके बाद अब दोनों देशों के विदेश एवं रक्षा मंत्री कम-से-कम हर दूसरे वर्ष मिलकर रणनीतिक मुद्दों पर चर्चा करेंगे। वर्तमान में भारत और क्वाड के अन्य दो सदस्यों (USA और जापान) के साथ पहले से ही मंत्रिस्तरीय 2+2 वार्ता की व्यवस्था लागू है।

 

ऑस्ट्रेलिया-भारत रणनीतिक अनुसंधान कोष

 • दोनों पक्षों ने COVID-19 महामारी से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने

और अन्य साझा प्राथमिकताओं पर भी कार्य करने के लिये 'ऑस्ट्रेलिया-भारत रणनीतिक अनुसंधान कोष' (Australia-India Strategic Research Fund-AISRF) के तहत सहयोग बढ़ाने पर बल दिया।

• AISRF की स्थापना वर्ष 2006 में की गई थी, यह कोष भारत और ऑस्ट्रेलिया में वैज्ञानिकों को महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुसंधान कार्यों पर सहयोग हेतु सहायता प्रदान करता है।

महत्त्वपूर्ण और सामरिक खनिजों का खनन और प्रसंस्करण

दोनों पक्षों के बीच महत्त्वपूर्ण और सामरिक खनिजों के खनन और प्रसंस्करण के क्षेत्र में सहयोग पर एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए।

 इस समझौते के तहत दोनों देशों ने खनिजों के अन्वेषण और निष्कर्षण के लिये आवश्यक नवीन तकनीकों के क्षेत्र में सहयोग करने की सहमति व्यक्त की है। कृषि क्षेत्र में सहयोग

 इस सम्मेलन में दोनों पक्षों ने भारत और ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्व को स्वीकार किया। दोनों पक्षों ने फसलों की कटाई के बाद होने वाले नुकसान और कृषि लागत को कम करने के लिये अनाज के प्रबंधन जैसे मुद्दों पर संयुक्त कार्रवाई करने की बात कही। साथ ही इस सम्मेलन के दौरान दोनों पक्षों के बीच 'जल संसाधन

प्रबंधन पर एक समझौता ज्ञापन' को लेकर हस्ताक्षर किये गए। ब्यापक आर्थिक सहयोग समझौता

इस सम्मेलन के दौरान दोनों देशों ने वर्ष 2015 से स्थगित भारत-ऑस्ट्रेलिया व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते (Comprehensive Economic Cooperation Agreement-CECA) पर वार्ता को पुनः शुरू किये जाने पर सहमति व्यक्त की। ध्यातव्य है कि यह निर्णय तब लिया गया जब हाल ही में भारत ने आसियान (ASEAN) के नेतृत्व में बने Regional Comprehensive Economic Partnership-RCEP मुक्त व्यापार समझौते से अलग होने का निर्णय लिया है।

 

4-चीन द्वारा बांग्लादेश को टैरिफ छूट

जून 2020 में चीन ने आर्थिक कूटनीति का प्रदर्शन करते हुए बांग्लादेश से चीन को निर्यात किये जाने वाले 97% सामानों पर टैरिफ छूट देने की घोषणा की

मुख्य बिंदु

बांग्लादेश के विदेश मंत्रालय द्वारा इस बात की जानकारी दी गई कि मत्स्य और चमड़े के उत्पादों को शामिल करने वाली 97%   वस्तुओं को चीनी टैरिफ से छूट दी जाएगी। चीन का यह कदम 'ढाका-बीजिंग संबंधों' के लिये महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है।

बांग्लादेश पहले हीएशिया प्रशांत व्यापार समझौते' (APTA) के तहत 3095 वस्तुओं के लिये टैरिफ-छूट प्राप्त करता है

चीन द्वारा की गई नवीनतम घोषणा के परिणामस्वरूप बांग्लादेश के अब कुल 8256 सामानों को चीनी टैरिफ से छूट दी जाएगी।

इस छूट के माध्यम से बांग्लादेश के चीन के साथ व्यापार घाटे में कुछ कमी होने की आशा है, साथ ही इससे बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था को मज़बूती भी मिलेगी।

चीन की रणनीति

भारत-चीन के मध्यलाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल' पर जारी तनाव के बीच चीन अपनी आर्थिक कूटनीति के तहत भारत के पड़ोसी देशों को अपने पक्ष में करने का कार्य कर रहा है।

 इससे पहले चीन द्वारा श्रीलंका, नेपाल तथा पाकिस्तान के साथ भी यही रणनीति अपनाई जा चुकी है

अब चीन का रुख बांग्लादेश की तरफ है। इसी कड़ी में चीन ने बांग्लादेश से निर्यात की जाने वाली 97 फीसदी वस्तुओं को टैक्स से छूट देने की घोषणा की है।

5-भारत-लाओस संबंध चर्चा मैं क्यों?

राजधानी-  विनतिएन

राजभाषा  --लाओ

सरकार -एकात्मक मार्क्सवादी-लेनिनवादी एकल दलीय समाजवादी गणतंत्र

राष्ट्रपति    -बोन्हंग वोराचित

प्रधानमंत्री    -थोंगलून सीसोलिथ

लाओस दक्षिण पूर्वी एशिया में हिंदचीन प्रायद्वीप पर स्थित देश है। इसका क्षेत्रफल ८८,७८० वर्ग मील है। इसके उत्तर में चीन एवं उत्तरी वियतनाम, दक्षिण में कंबोडिया, दक्षिण पश्चिम में थाईलैंड की सीमा पर मेकांग नदी बहती है। जलवायु उष्णकटिबंधीय है। लाओस का लगभग २/३ भाग जंगलों से ढँका है। यहाँ की भाषा थाई प्रकार की है, जिसमें संस्कृत, पाली तथा फ्रांसीसी शब्दों की भरमार है। फ्रांसीसी राजकाज की द्वितीय भाषा है बौद्ध धर्म प्रमुख है। धान सर्वप्रमुख कृषि उपज है। पहाड़ी भागों में अफीम के पौधे भी उगाए जाते हैं। टिन तथा सेंधा नमक प्रमुख खनिज हैं। यातायात एवं शक्ति के साधनों की कमी के कारण उद्योग कम उन्नति कर पाए हैं। इसे हजार हाथियो की भूमि भी कहा जाता है।

चर्चा में क्यों

 जून 2020 में भारतीय प्रधानमंत्री तथा लाओस के प्रधानमंत्री ने टेलीफोन पर COVID-19 महामारी के कारण उत्पन्न स्वास्थ्य तथा आर्थिक चुनौतियों पर विचारों का आदान-प्रदान किया।

प्रमुख बिंदु

दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता तथा COVID-19 महामारी के प्रबंधन की दिशा में सर्वोत्तम प्रथाओं तथा अनुभवों को साझा करने पर सहमति व्यक्त की।

 वार्ता के दौरान दोनों देशों के शीर्ष नेताओं द्वारा ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक संबंधों पर भी चर्चा की गई।

भारत-लाओस संबंध

 फरवरी 1956 में दोनों देशों के मध्य राजनीतिक संबंधों की स्थापना के बाद दोनों देशों के बीच शीर्ष नेताओं द्वारा कई बार उच्च स्तरीय यात्राएँ की गई हैं।

 • 19-20 जुलाई, 2018 के मध्य आयोजित 'दिल्ली संवाद' के 10वें संस्करण में लाओस के उप-विदेश मंत्री ने हिस्सा लिया था। लाओ पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (Lao PDR) के प्रतिनिधिमंडल ने 'ब्लू इकॉनमी' पर भारत द्वारा आयोजित कार्यशाला में भाग लिया।

लाओस लाओस, दक्षिण पूर्व एशिया में एकमात्र स्थलबद्ध (Landlocked) देश है जो कंबोडिया, चीन, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम से घिरा हुआ है। मेकांग नदी यहाँ के कार्गो तथा यात्रियों के परिवहन का प्रमुख मार्ग है

लाओस फ्रांसीसी शासन की समाप्ति के पश्चात् वर्ष 1953 में स्वतंत्र हुआ और वर्ष 1997 में 'दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन' (ASEAN) का तथा वर्ष 2013 में 'विश्व व्यापार संगठन' (WTO) का सदस्य बना। लाओस एक गरीब देश है जिसकी 80% जनसंख्या कृषि संबंधित कार्यों में संलग्न है। हालाँकि यहाँ जलविद्युत की अपार संभावना होने के कारण लाओस स्वयं को 'दक्षिण-पूर्व एशिया की बैटरी' (Battery of Southeast Asia) के रूप में देखता है। 'भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग' (Indian Technical and Economic Cooperation-ITEC) समझौते के तहत दो सदस्यीय भारतीय सेना प्रशिक्षण दल वर्ष 1994 से लाओस के रक्षाकर्मियों के लिये प्रशिक्षण आयोजित कर रहा है। वर्तमान में भारत ऋण प्रदान कर लाओस की अनेक परियोजनाओं को समर्थन दे रहा है। मानव संसाधन विकास को महत्त्व देते हुए भारत विभिन्न योजनाओं के तहत लाओस के नागरिकों को प्रतिवर्ष लगभग 120 प्रकार की छात्रवृत्तियाँ प्रदान कर रहा हैदोनों देश प्राचीन बौद्ध सभ्यता साझा करते हैं।

6-भारत-तंज़ानिया संबंध

 अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी भाग में स्थित एक देश है, जिसकी सीमायें, उत्तर में कीनिया और युगांडा, पश्चिम में रवांडा, बुरुंडी और कांगो, दक्षिण में ज़ाम्बिया, मलावी और मोजाम्बिक से मिलती हैं, तथा देश की पूर्वी सीमा हिंद महासागर द्वारा निर्धारित होती है।

 

तंजानिया का संयुक्त गणराज्य, 26 प्रदेशों जिन्हें मिकाओ कहते हैं से मिलकर बना है, जिनमें ज़ांज़ीबार का स्वायत्त क्षेत्र भी शामिल है। 2005 में निर्वाचित राष्ट्रपति जकाया किकवेते म्रिशो देश के वर्तमान राष्ट्रप्रमुख हैं। 1996 से, तंजानिया की सरकारी राजधानी दोदोमा है, जहां संसद और कुछ सरकारी कार्यालय स्थित हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर 1996 के बीच, तटीय शहर दार अस सलाम ने देश की राजनीतिक राजधानी बना रहा। आज, दार-एस-सलाम तंजानिया का सबसे प्रमुख वाणिज्यिक शहर है और ज्यादातर सरकारी कार्यालय यहीं पर स्थित हैं। यह देश का और उसके स्थलरुद्ध पड़ोसी देशों के लिए सबसे प्रमुख बंदरगाह है।

 

तंजानिया नाम दो राष्ट्रों तंगानयिका और ज़ांज़ीबार से मिलकर से मिलकर बना है, जिनके विलय स्वरूप 1964 में तंगानयिका और ज़ांज़ीबार का संयुक्त गणराज्य अस्तित्व में आया था जिसका नाम उसी वर्ष बाद में बदल कर तंजानिया का संयुक्त गणराज्य कर दिया गया।

चर्चा में क्यों? __

12 जून, 2020 को भारत के प्रधानमंत्री ने तंजानिया के राष्ट्रपति जोसेफ मगुफूली (Joseph Magufuli) से टेलीफोन पर बातचीत करते हुए समग्र द्विपक्षीय संबंधों की समीक्षा की।

 भारत ने तंजानिया के प्राकृतिक गैस क्षेत्र के विकास में सहयोग करने की पेशकश की है। तंज़ानिया में प्राकृतिक गैस की खोज सबसे पहले वर्ष 1974 में सोंगो सोंगो ऑफशोर ब्लॉक (Songo Songo offshore Block) में की गई थी, जबकि वर्ष 2010 में पता लगाया गया कि तंज़ानिया के हिंद महासागरीय क्षेत्र में प्राकृतिक गैस के भंडार हैं।

तंज़ानया

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 https://lh3.googleusercontent.com/hKe3gVzKaEeJso-PHQMByCpRequuUNh8B_jNXbHtkcyccAMdwCeRQug1wdgEXZmODVYB5ynWldUWJQCEGIztvXkemQ6oq5sS64GrgQb2Ho1hKK-gGzvkvSnxLaukL6eOSjy_yLM1

 तंज़ानिया अफ्रीकी ग्रेट लेक्स क्षेत्र (African Great Lakes Region) के भीतर पूर्वी अफ्रीका का एक देश है। 

अफ्रीकी महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट किलिमंजारो तंजानिया के उत्तर-पूर्व में अवस्थित है। अफ्रीकी महाद्वीप की तीन महान झीलें उत्तरी एवं पश्चिम में विक्टोरिया झील (अफ्रीका महाद्वीप की सबसे बड़ी झील) और तंगानयिका झील (अफ्रीका महाद्वीप की सबसे गहरी झील) मछली की अनोखी प्रजातियों के लिये जानी जाती है और दक्षिण-पश्चिम में न्यासा झील आंशिक रूप से तंजानिया में अवस्थित हैं।

 

7-भारत और हिंद महासागर आयोग

चर्चा में क्यों?

•6 मार्च, 2020 को आयोजित IOC की 34वीं मंत्रिपरिषद बैठक में भारत को पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया। 'पश्चिमी हिंद महासागर' एक रणनीतिक क्षेत्र है जो अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट को न केवल हिंद महासागर से अपितु अन्य महत्त्वपूर्ण महासागरों से भी जोड़ता है।

हिंद महासागर आयोग

 • 'हिंद महासागर आयोग' एक अंतर-सरकारी संगठन है जो 'दक्षिण पश्चिमी हिंद महासागर क्षेत्र में बेहतर सागरीय-अभिशासन की दिशा में कार्य करता है तथा यह आयोग पश्चिमी हिंद महासागर के.   द्वपीय राष्ट्रों को सामूहिक रूप से कार्य करने हेतु मंच प्रदान करता है

वर्ष 1982 में स्थापित IOC का मुख्यालय एबेने (Ebene), मॉरीशस में अवस्थित है। 

वर्तमान में हिंद महासागर आयोग में पाँच देश- कोमोरोस, मेडागास्कर,मॉरीशस, ला रियूनियन (फ्राँस के नियंत्रण में) और सेशल्स शामिल हैं।

 IOC देश मुख्यतः 'पश्चिमी हिंद महासागर' क्षेत्र में स्थित हैं। 

वर्तमान में भारत के अलावा इस आयोग के चार पर्यवेक्षक- चीन,यूरोपीय यूनियन, माल्टा तथा इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ ला फ्रांसोफोनी (International Organisation of La Francophonie) हैं।

हाल ही में IOC ने समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व प्रदर्शित किया है। चूँकि समुद्री सुरक्षा भारत तथा हिंद महासागर के तटीय देशों के मध्य संबंधों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। अत: भारत के लिये IOC के महत्त्व को समुद्री सुरक्षा के आधार पर समझा जाना चाहिये। 

Ioc की प्रमुख पहल यूरोपीय संघ का मेस (MASE) कार्यक्रमः यूरोपीय संघ द्वारा कि वित्तपोषित MASE कार्यक्रम की शुरुआत वर्ष 2012 में की गई थी जिसका उद्देश्य दक्षिणी-पूर्वी अफ्रीका और हिंद महासागर में समुद्री सुरक्षा क को बढ़ावा देना था।

 MASE कार्यक्रम के तहत IOC ने दो क्षेत्रीय केंद्रों के साथ पश्चिमी हिंद महासागर की निगरानी और उस पर नियंत्रण के लिये एक तंत्र स्थापित किया है। 

मेडागास्कर स्थित 'क्षेत्रीय समुद्री सूचना संलयन केंद्र' (RMIFC) के गठन का उद्देश्य समुद्री गतिविधियों की निगरानी और सूचना साझाकरण एवं विनिमय को बढ़ावा देकर समुद्री क्षेत्र के प्रति जागरूकता में वृद्धि करना था। 

सेशेल्स स्थित क्षेत्रीय समन्वय संचालन केंद्र (RCOC) RMIFC के माध्यम से एकत्रित जानकारी के आधार पर समुद्र में संयुक्त रूप से समन्वित हस्तक्षेप की सुविधा प्रदान करेगा।

8-भारत-नेपाल सीमा विवाद

चर्चा में क्यों?

मई 2020 में नेपाल ने एक नया राजनीतिक मानचित्र जारी करते हुए उत्तराखंड के कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख क्षेत्र को नेपाल के हिस्से के रूप में दर्शाया है। इसके अलावा सुस्ता (पश्चिमी चंपारण जिला, बिहार) क्षेत्र को भी नेपाल के नए नक्शे में शामिल किया गया है।

प्रमुख बिंदु

भारत ने नेपाल के नवीन राजनीतिक मानचित्र को पूरी तरह से 'कृत्रिम' तथा भारत के लिये अस्वीकार्य बताया है। भारत के अनुसार, नेपाल का यह कृत्य एकपक्षीय है और कूटनीतिक.संवाद के माध्यम से सीमा विवाद संबंधी मुद्दों को हल करने के समझौते के विपरीत है। उल्लेखनीय है कि कैलाश मानसरोवर यात्रा के समय को कम करने हेतु भारत और चीन को जोड़ने वाली एक मोटरेबल लिंक सड़क का भारत के रक्षा मंत्री द्वारा हाल ही में उद्घाटन किये जाने के बाद नेपाल ने यह कदम उठाया है। यह सड़क लिपुलेख दर्रे में उस क्षेत्र से होकर गुज़रती है जिसे नेपाल  अपना क्षेत्र बताता है। भारत ने 2 नवंबर, 2019 को एक नवीन मानचित्र प्रकाशित किया था जो जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश के रूप में दर्शाता है। इसी मानचित्र में कालापानी को भी भारतीय क्षेत्र के रूप में दर्शाया गया है। नेपाल ने परामर्श के बिना लिपुलेख दर्रे का उपयोग व्यापार के लिये करने हेतु भारत और चीन के बीच 2015 के समझौते पर भी नाराजगी व्यक्त की थी। सीमा विवाद

वर्तमान में भारत और नेपाल के मध्य विवाद का मुख्य कारण कालापानी, लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और सुस्ता क्षेत्र (पश्चिमी चंपारण जिला, बिहार) सीमा विवाद हैं।

कालापानी, लिम्पियाधुरा, लिपुलेख विवाद

 भारत और नेपाल दोनों ही इस क्षेत्र को अपने-अपने देश का अभिन्न हिस्सा मानते हैं। भारत के अनुसार, यह क्षेत्र उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का हिस्सा है, जबकि नेपाल इस क्षेत्र को धारचूला जिले का हिस्सा मानता है। नेपाल द्वारा इस संबंध में वर्ष 1816 में हुई सुगौली संधि (Sugauli Treaty) का जिक्र किया जाता है। नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार, सुगौली संधि के तहत काली (महाकाली) नदी के पूर्व के सभी क्षेत्र, जिनमें लिम्पियाधुरा (Limpiyadhura), कालापानी (Kalapani) और लिपुलेख (Lipulekh) शामिल हैं, नेपाल के अभिन्न अंग हैं। एंग्लो-नेपाली युद्ध (Anglo-Nepalese War) के पश्चात् वर्ष 1816 में नेपाल और ब्रिटिश भारत द्वारा सुगौली की संधि हस्ताक्षरित की गई थी। उल्लेखनीय है कि सुगौली संधि में महाकाली नदी को नेपाल की पश्चिमी सीमा के रूप में परिभाषित किया गया है। नेपाल सरकार के अनुसार, बीते वर्ष जम्मू-कश्मीर के विभाजन के पश्चात् भारत सरकार द्वारा प्रकाशित नए मानचित्रों में भिन्नता से स्पष्ट था कि भारत द्वारा इन मानचित्रों में छेड़खानी की गई है।

 सुस्ता क्षेत्र विवाद

 उत्तर प्रदेश तथा बिहार राज्यों की सीमा पर पश्चिमी चंपारण जिले के पास अवस्थित 'सुस्ता क्षेत्र' को भी नेपाल द्वारा अपने नवीन मानचित्र में शामिल किया गया है। विवाद का मूल कारण गंडक नदी के बदलते मार्ग को माना जाता है। गंडक नदी नेपाल और बिहार (भारत) के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा बनाती है। गंडक नदी को नेपाल में नारायणी नदी के रूप में जाना जाता है।

नेपाल का मानना है कि पूर्व में सुस्ता क्षेत्र गंडक नदी के दाएँ किनारे अवस्थित था, जो नेपाल का हिस्सा था। लेकिन समय के साथ नदी के मार्ग में परिवर्तन के कारण यह क्षेत्र वर्तमान में गंडक के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। वर्तमान में इस क्षेत्र को भारत द्वारा नियंत्रित किया जाता है।

अमेरिका की 'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट'

चर्चा में क्यों?

अमेरिका ने बौद्धिक संपदा अधिकारों के संरक्षण एवं प्रवर्तन में कमी के कारण वर्ष 2020 में भी भारत को संयुक्त राज्य व्यापार प्रतिनिधि (USTR) की 'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' (Priority Watch List) में बरकरार रखा है।

प्रमुख बिंदु

अमेरिका ने इस सूची में भारत तथा चीन समेत अपने 10 प्रमुख व्यापार साझेदारों को यह कहते हुए शामिल किया है कि इन देशों में बौद्धिक संपदा अधिकारों की स्थिति या तो अच्छी नहीं है या फिर इनमें पर्याप्त मात्रा में सुधार नहीं हुआ है, जिसके कारण अमेरिकी हितधारकों को निष्पक्ष और न्यायसंगत बाज़ार तक पहुँच में कठिनाई हो रही है।

अमेरिकी प्रशासन ने भारत के अतिरिक्त जिन देशों को 'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' में स्थान दिया है, उनमें अल्जीरिया, अर्जेंटीना, चिली,चीन, इंडोनेशिया, रूस, सऊदी अरब, यूक्रेन और वेनेजुएला शामिल हैं।

ध्यातव्य है कि कुवैत को इस वर्ष इस सूची में शामिल नहीं किया गया है, जबकि वर्ष 2019 में इस सूची में कुवैत समेत कुल 11देश थे। वहीं वर्ष 2019 में अमेरिका ने कनाडा और थाईलैंड को इस सूची से हटा दिया था।

.'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' के अलावा USTR की 'वॉच लिस्ट' में ब्राजील, कनाडा, कोलंबिया, पाकिस्तान और थाईलैंड समेत कुल 23 देशों को शामिल किया गया है।

ध्यातव्य है कि 'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' में चीन की निरंतरता ने बीजिंग की जबरन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (Forced TechnologyTransfer-FTT) नीति को लेकर अमेरिका की चिंताओं को स्पष्ट किया है।

ध्यातव्य है कि जबरन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (FTT) की नीति के तहत सरकार द्वारा विदेशी व्यवसायों को बाज़ार में पहुँच प्रदान करने के एवज़ में अपनी तकनीक साझा करने के लिये मजबूर किया जाता है।

इस प्रकार की नीति चीन में काफी सामान्य है। जब कोई कंपनी चीन के बाजार में प्रवेश करना चाहती है, तो चीन की सरकार उस कंपनी को अपनी तकनीक चीनी कंपनियों के साथ साझा करने के लिये मजबूर करती है।

इस रिपोर्ट में भारत को बौद्धिक संपदा अधिकार के संरक्षण एवं प्रवर्तन के संबंध में दुनिया की सबसे चुनौतीपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में से एक कहा गया है

भारत में अमेरिकी व्यवसायों को लंबे समय से चली आ रही बौद्धिक संपदा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जो नवप्रवर्तन के लिये भारत में पेटेंट प्राप्त करना, पेटेंट बनाए रखना और उन्हें लागू करना अपेक्षाकृत कठिन बनाती हैं, ऐसा विशेष रूप से फार्मास्युटिकल उद्योग में देखा जाता है।

 

इसके अलावा कंटेंट के निर्माण, व्यवसायीकरण को प्रोत्साहित करने में विफल रही कॉपीराइट नीतियाँ और पुराने तथा अपर्याप्त व्यापार के रहस्य (Trade Secrets) संबंधी कानूनी ढाँचे भी चिंता के विषय हैं।

 

प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' और 'मैच लिस्ट'

 

संयुक्त राज्य व्यापार प्रतिनिधि (USTR) द्वारा प्रत्येक वर्ष 'स्पेशल 301 रिपोर्ट' (Special 301 Report) जारी की जाती है, जिसमें विभिन्न देशों में बौद्धिक संपदा कानूनों जैसे कॉपीराइट, पेटेंट और ट्रेडमार्क आदि के कारण अमेरिकी कंपनियों और उत्पादों के समक्ष उत्पन्न होने वाले व्यापार अवरोधों की पहचान की जाती है। इस रिपोर्ट में 'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' और 'वॉच लिस्ट' शामिल होती हैं। इन सूचियों में ऐसे देश शामिल होते हैं जिनके बौद्धिक संपदा नियमों को अमेरिकी कंपनियों के लिये चिंता का विषय माना जाता

'प्रायोरिटी वॉच लिस्ट' में USTR द्वारा उन देशों को शामिल किया जाता है, जिनके बौद्धिक संपदा अधिकार संबंधी नियमों में गंभीर कमियाँ होती हैं और जिन पर USTR द्वारा ध्यान दिया जाना अनिवार्य होता है।

 

फिलिस्तीनी शरणार्थी संकट

चर्चा में क्यों?

फिलिस्तीनी शरणार्थियों के कल्याण हेतु कार्य करने वाली 'संयुक्त राष्ट्र राहत एवं कार्य एजेंसी (UNRWA) ने COVID-19 वैश्विक महामारी से उत्पन्न परिस्थितियों में अपनी बुनियादी सेवाओं को संचालित करने के लिये भारत द्वारा दी जा रही वित्तीय सहायता की सराहना की है।

मुख बिंदु

ध्यातव्य है कि हाल ही में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र राहत एवं कार्य एजेंसी (UNRWA) को शिक्षा एवं स्वास्थ्य समेत उसके विभिन्न कार्यक्रमों और सेवाओं में सहायता देने हेतु 2 मिलियन डॉलर प्रदान किये थे।

 

भारत के इस योगदान से UNRWA को अपनी नकदी प्रवाह संबंधी चुनौतियों का समाधान करने में मदद मिलेगी।

 

उल्लेखनीय है कि भारत ने UNRWA को दिये जाने वाले अपने वार्षिक योगदान को वर्ष 2016 में 1.25 मिलियन डॉलर से बढ़ाकर वर्ष 2019 में 5 मिलियन डॉलर तक कर दिया है

इसके अतिरिक्त भारत ने UNRWA को वर्ष 2020 के दौरान 5 मिलियन डॉलर देने का वचन दिया है। इस पूरे योगदान से भारत का UNRWA के सलाहकार आयोग का सदस्य बनने का मार्ग काफी आसान हो गया है।

 

भारत का यह योगदान संयुक्त राष्ट्र राहत एवं कार्य एजेंसी (UNRWA) को फंडिंग की कमी के कारण उत्पन्न हुए वित्तीय संकट से निपटने में मदद करेगा, जिसके कारण एजेंसी फिलिस्तीनी शरणार्थियों को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने में भी असमर्थ है।

कौन है फिलिस्तीनी शरणार्थी?

 

संयुक्त राष्ट्र राहत एवं कार्य एजेंसी (UNRWA) द्वारा फिलिस्तीनी शरणार्थियों को उन व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिनका निवास स्थान 1 जून, 1946 से 15 मई, 1948 की अवधि के दौरान फिलिस्तीन था और जिन्होंने वर्ष 1948 के संघर्ष के परिणामस्वरूप अपने घर और आजीविका दोनों को खो दिया था।

• UNRWA अपनी सेवाएँ मुख्यतः उन्हीं लोगों को प्रदान करता है, जो फिलिस्तीनी शरणार्थी की इस परिभाषा के अंतर्गत आते हैं और जो संस्था के साथ पंजीकृत हैं तथा जिन्हें सहायता की आवश्यकता है। इस परिभाषा के तहत पंजीकरण के लिये फिलिस्तीनी शरणार्थियों के वंशज भी पात्र हैं, जिसमें गोद लिये गए बच्चे भी शामिल हैं

• UNRWA के आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, पंजीकृत फिलिस्तीनी शरणार्थियों में से लगभग एक-तिहाई से अधिक लोग पूर्वी येरूशलम सहित जॉर्डन, लेबनान, सीरिया, गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक में लगभग 58 मान्यता प्राप्त फिलिस्तीनी शरणार्थी शिविरों में रहते हैं।

 

फिलिस्तीनी शरणार्थी संकट

 

फिलिस्तीनी शरणार्थी संकट को समझने के लिये हमें सर्वप्रथम इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष को समझना होगा।

अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष को समाप्त करने में असफल रहे ब्रिटेन ने वर्ष 1948 में फिलिस्तीन से अपने सुरक्षा बलों को हटा लिया और अरब तथा यहूदियों के दावों का समाधान करने के लिये इस मुद्दे को नवनिर्मित संगठन संयुक्त राष्ट्र (UN) के विचारार्थ प्रस्तुत किया। संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन में स्वतंत्र यहूदी और अरब राज्यों की स्थापना करने के लिये एक विभाजन योजना (Partition Plan) प्रस्तुत किया जिसे फिलिस्तीन में रह रहे अधिकांश यहूदियों ने स्वीकार कर लिया किंतु अरबों ने इस पर अपनी सहमति प्रकट नहीं की। वर्ष 1948 में यहूदियों ने स्वतंत्र इजरायल की घोषणा कर दी और इजराइल एक देश बन गया, जिसके परिणामस्वरूप आस-पास के अरब राज्यों (इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया) ने इजरायल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के अंत में इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना के आदेशानुसार प्राप्त भूमि से भी अधिक भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।

युद्ध के परिणामस्वरूप फिलिस्तीनियों की एक बड़ी संख्या या तो पलायन कर गई या उन्हें इजरायल से बाहर जाने और इजरायल की सीमा के पास शरणार्थी शिविरों में बसने के लिये विवश किया गया और अंततः फिलिस्तीनी शरणार्थी संकट का उदय हुआ।

अलगाववादियों द्वारा दक्षिण यमन में स्व-शासन

चर्चा में क्यों ?

यमन के 'सदर्न ट्रांजिशनल काउंसिल' (STC) अलगाववादी समय ने हाल ही में घोषणा की कि वह अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में स्व-शासन स्थापित करेगा।

यमन संकट

यमन संकट की जड़ें वर्ष 2011 के अरब स्प्रिंग से जुड़ी हैं, जब एक विद्रोह ने देश में लंबे समय तक सत्ता में रहे राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह को उप-राष्ट्रपति अब्दराबुह मंसूर हादी को सत्ता सौंपने के लिये मजबूर कर दिया।

मध्य-पूर्व एशिया के सबसे गरीब देशों में से एक यमन में राजनीतिक परिवर्तन शांति और स्थिरता लाने के लिये किया गया था, किंतु राष्ट्रपति हादी को आतंकवादी हमलों, भ्रष्टाचार, खाद्य सुरक्षा सहित विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ा।

नए राष्ट्रपति की कमजोरी का फायदा उठाते हुए हूती शिया मुस्लिम विद्रोहियों ने वर्ष 2014 में संघर्ष शुरू कर दिया और राजधानी सना (Sana'a) तथा आस-पास के क्षेत्रों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। आखिरकार राष्ट्रपति हादी की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सरकार को दक्षिणी हिस्से में सिमटना पड़ा। तब सऊदी अरब ने यमन में हस्तक्षेप करना शुरू किया।

सऊदी अरब ने ईरान पर अरब प्रायद्वीप में अस्थिरता लाने और शिया हूती विद्रोहियों को आर्थिक सहायता देने का आरोप लगाया था।  सऊदी अरब की योजना इस प्रायद्वीप में स्थिरता स्थापित करनी थी।

वर्ष 2014 के अंत से ही सना में हादी की सरकार को सत्ता से बेदखल करने के बाद से यमन हिंसा में घिरा हुआ है। इस विद्रोह और संघर्ष को सऊदी अरब एवं ईरान के बीच छद्म युद्ध के रूप में देखा जाता है।

मार्च 2015 के दौरान यह संघर्ष तब और तेज़ हो गया, जब अमेरिका, ब्रिटेन तथा फ्रांस द्वारा समर्थित सऊदी अरब और आठ अन्य अरब (ज्यादातर सुन्नी अरब) देशों ने राष्ट्रपति हादी की सरकार को बहाल करने के घोषित उद्देश्य के साथ हूती विद्रोहियों के खिलाफ हवाई हमले शुरू कर दिये।

 

NAM संपर्क समूह शिखर सम्मेलन

चर्चा में क्यों?

मई 2020 में COVID-19 वैश्विक महामारी के प्रबंधन में सहयोग की दिशा में 'गुट निरपेक्ष आंदोलन' (NAM) समूह द्वारा 'NAM संपर्क समूह शिखर सम्मेलन' (NAM CGS) का आयोजन किया गया।

प्रमुख बिंदु

इस 'आभासी सम्मेलन' की मेजबानी 'यूनाइटेड अगेंस्ट COVID-19' शीर्षक के तहत अजरबैजान द्वारा की गई तथा सम्मेलन में 30 से अधिक राष्ट्राध्यक्षों और अन्य नेताओं ने भाग लिया। भारतीय प्रधानमंत्री के अनुसार, COVID-19 महामारी ने वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था/तंत्र में व्याप्त कमियों और इसकी सीमाओं को उजागर किया है। हमें ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की आवश्यकता है जो वर्तमान/आज के दौर के विश्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारतीय प्रधानमंत्री ने कहा कि इस महामारी के बाद 'उत्तर COVID-19 विश्व' (Post-cOVID World) में हमें समानता, निष्पक्षता और मानवता के मूल्यों पर आधारित वैश्वीकरण के नए मानक स्थापित करने होंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वर्ष 2014 में सत्ता संभालने के बाद पहली बार 'गुटनिरपेक्ष आंदोलन' को संबोधित किया गया।

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2016 और वर्ष 2019 में आयोजित NAM के शिखर सम्मेलन में भाग नहीं लिया था।

 

सम्मेलन में लिये गए महत्वपूर्ण निर्णय

 

शिखर सम्मेलन में COVID-19 महामारी के खिलाफ लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए एक घोषणा को अपनाया गया। सदस्य देशों की आवश्यकताओं की पहचान करने के लिये एक 'टास्क फोर्स' बनाने की घोषणा की गई।

यह टास्क फोर्स COVID-19 महामारी के प्रबंधन की दिशा में एक 'कॉमन डेटाबेस' स्थापित करेगी ताकि सदस्य देशों द्वारा महामारी से निपटने में महसूस की जाने वाली आवश्यकताओं की पहचान की जा सके।

 पहला गुटनिरपेक्ष सम्मेलन वर्ष 1961 में बेलग्रेड में आयोजित किया गया था, जिसमें 25 सदस्य देश शामिल हुए थे। समय गुजरने के साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन की सदस्य संख्या बढ़ती गई। जिसमें वर्तमान में इसमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन 120 सदस्य देश, 17 पर्यवेक्षक देश तथा 10 अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक संगठन शामिल हैं।

भारत का स्थाई मिशन

चर्चा में क्यों?

अप्रैल 2020 में भारत सरकार द्वारा राजनयिक टीएस तिरुमूर्ति (T S Tirumurti) को संयुक्त राष्ट्र में अपने स्थायी प्रतिनिधि के रूप में संयुक्त राष्ट्र का स्थायी मिशन नियुक्त किया गया।

स्थायी मिशन वह राजनयिक मिशन है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के प्रत्येक सदस्य देश द्वारा अपना एक स्थायी प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र मेंनियुक्त किया जाता है। इस स्थायी प्रतिनिधि को 'संयुक्त राष्ट्र का राजदूत (UN Ambassador) भी कहा जाता है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा के अनुसार स्थायी मिशन संयुक्त राष्ट्र महासभा के संकल्प 257 (II) के अनुसार, 3 दिसंबर, 1948 को 'स्थायी मिशन' पद को इस प्रकार संबोधित किया गया-

ऐसे स्थायी मिशनों की उपस्थिति संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धांतों की प्राप्ति में सहायक है।

इस प्रकार के मिशन विशेष रूप से सदस्य राज्यों और संयुक्त राष्ट्र सचिवालय के विभिन्न अंगों के सत्रों के बीच की अवधि में आवश्यक संपर्क बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। 

संयुक्त राष्ट्र में भारतीय स्थायी मिशन वर्तमान समय में संयुक्त राष्ट्र में अवर सचिव जनरल और सहायक महासचिव के वरिष्ठ पदों पर आठ भारतीय नियुक्त हैं।

संयुक्त राष्ट्र में प्रथम भारतीय प्रतिनिधियों के तौर पर राजनेता अर्कोट रामास्वामी मुदलियार तथा स्वतंत्रता सेनानी हंसा मेहता, विजयलक्ष्मी पंडित और लक्ष्मी मेनन कार्य कर चुके हैं। हंसा मेहता और विजयलक्ष्मी पंडित भारतीय संविधान सभा की 15 महिला सदस्यों में शामिल थीं।

 

संयुक्त राष्ट्र

 

संयुक्त राष्ट्र एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है, जिसका उद्देश्य विश्व में मानवाधिकारों को सुरक्षित रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक विकास तथा विश्व शांति को बढ़ावा देना है। इसकी स्थापना 1945 में 51 राष्ट्रों द्वारा की गई थी।

 • भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापक सदस्यों में शामिल है तथा पारंपरिक रूप से वसुधैव कुटुंबकम और विश्व शांति जैसे विचारों का समर्थक है।

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और जनसंख्या तथा भूगोल की दृष्टि से विश्व में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। 

 

73वीं विश्व स्वास्थ्य सभा

चर्चा में क्यों?

18-19 मई, 2020 को 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' (WHO) की 73वीं वार्षिक 'विश्व स्वास्थ्य सभा' (World Health Assembly) का जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में आयोजन किया गया।

प्रमुख बिंदु

इस सत्र में WHO के सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधिमंडलों ने भाग लिया। इसमें कार्यकारी बोर्ड द्वारा तैयार किये गए कोविड-19 महामारी से संबंधित एक विशिष्ट स्वास्थ्य एजेंडे पर ध्यान केंद्रित किया गया। उल्लेखनीय है कि 'विश्व स्वास्थ्य सभा' में COVID-19 महामारी से संबंधित मुद्दों पर निष्पक्ष जाँच हेतु एक मसौदा प्रस्ताव पेश किया गया है।

भारत ने 'विश्व स्वास्थ्य सभा' में COVID-19 से संबंधित जाँच हेतु यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया के नेतृत्व में 62 देशों के गठबंधन का समर्थन किया। इन 62 देशों में बांग्लादेश, कनाडा, रूस, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका,तुर्की, ब्रिटेन और जापान आदि शामिल हैं। मसौदा प्रस्ताव में सभी देशों को COVID-19 से संबंधित सटीक और पर्याप्त रूप से विस्तृत सार्वजनिक स्वास्थ्य जानकारी विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ साझा करने का उल्लेख ध्यातव्य है कि भारत ने मार्च 2020 में ही जी-20 शिखर सम्मेलन (G-20 Summit) के दौरान 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' में सुधार, पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकताओं का उल्लेख किया था।

 

विश्व स्वास्थ्य सभा

 

विश्व स्वास्थ्य सभा WHO की निर्णय लेने वाली संस्था है। इसके मुख्य कार्य संगठन की नीतियों को निर्धारित करना, महानिदेशक की नियुक्ति करना, वित्तीय नीतियों की निगरानी करना और प्रस्तावित बजट कार्यक्रम की समीक्षा तथा उनका अनुमोदन करना है। 

 विश्व स्वास्थ्य सभा की बैठक नियमित वार्षिक सत्र और कभी-कभी विशेष सत्रों में भी आयोजित की जाती है। 

विश्व स्वास्थ्य सभा सदस्य राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधियों से बनी है। प्रत्येक सदस्य का प्रतिनिधित्व अधिकतम तीन प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है जिनमें से किसी एक को मुख्य प्रतिनिधि के रूप में नामित किया जाता है।

 

० इन प्रतिनिधियों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनकी तकनीकी क्षमता के आधार पर सबसे योग्य व्यक्तियों में से चुना जाता है क्योंकि ये सदस्य राष्ट्र के राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रशासन का अधिमान्य प्रतिनिधित्व करते हैं।

यह WHO तथा संयुक्त राष्ट्र के मध्य होने वाले किसी भी समझौते के संदर्भ में आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (Economic and Social Council) को रिपोर्ट करती है।

 

भारत-बेल्जियम प्रत्यर्पण संधि

चर्चा में क्यों?

21 मार्च, 2020 को प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भारत और बेल्जियम के मध्य प्रत्यर्पण संधि (Extradition Treaty) पर हस्ताक्षर और अभिपुष्टि को मंजूरी प्रदान की।

 

पृष्ठभूमि

भारत और बेल्जियम के मध्य होने वाली यह नई संधि स्वतंत्रता-पूर्व वर्ष 1901 में ब्रिटेन और बेल्जियम के मध्य हुई संधि का स्थान लेगी जो स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत पर भी लागू हो गई थी। वर्तमान में उक्त संधि ही भारत और बेल्जियम के मध्य लागू है। स्वतंत्रता-पूर्व की गई संधि में अपराधों की संख्या काफी सीमित है

जिसके कारण यह संधि वर्तमान में प्रासंगिक नहीं है।

संधि की प्रमुख विशेषताएँ 

प्रत्यर्पण हेतु दायित्व संधि के अनुसार, प्रत्येक पक्ष दूसरे पक्ष के ऐसे व्यक्ति के प्रत्यर्पण की सहमति प्रदान करता है, जो उसके देश के सीमा क्षेत्र में प्रत्यर्पण अपराध का आरोपी है या उसे सजा दी जा चुकी है।

प्रत्यर्पण अपराध

प्रत्यर्पण अपराध का अर्थ ऐसे अपराध से है जो दोनों देशों के कानूनों के अंतर्गत दंडनीय है और जिसमें एक वर्ष के कारावास अथवा अधिक कड़े दंड का प्रावधान है।

जब किसी सजा प्राप्त व्यक्ति के प्रत्यर्पण की मांग की जाती है तो शेष सज़ा की अवधि कम-से-कम 6 महीने होनी अनिवार्य है। उल्लेखनीय है कि बेल्जियम के साथ की जा रही इस संधि में टैक्स, राजस्व और वित्त से संबंधित अपराध भी शामिल किये गए हैं।

 

अस्वीकार्यता के लिये अनिवार्य आधार

यदि अपराध की प्रकृति राजनीतिक है, तो प्रत्यर्पण के प्रस्ताव को अस्वीकार किया जा सकता है। हालाँकि, संधि में कुछ ऐसे अपराधों को भी शामिल किया गया है जिन्हें राजनीतिक अपराध नहीं माना जाएगा, जैसे यदि प्रत्यर्पण अपराध एक सैन्य अपराध है।

यदि किसी व्यक्ति को उसके रंग, लिंग धर्म, राष्ट्रीयता या राजनीतिक विचार के कारण दंडित किया जा रहा है। 

यदि दंड को लागू करने की समय-सीमा बीत चुकी है।

 

दोषी की राष्ट्रीयता 

राष्ट्रीयता का निर्धारण उस समय के अनुसार किया जाएगा जब अपराध किया गया है।

लाभ

संधि के माध्यम से भारत को और भारत से प्रत्यर्पित होने वाले आतंकियों, आर्थिक अपराधियों तथा अन्य अपराधियों के प्रत्यर्पण के लिये कानूनी आधार प्राप्त होगा।

 

बेल्जियम

 

तकरीबन 40 मील लंबे समुद्री तट वाला बेल्जियम पश्चिमी यूरोप में स्थित एक देश है। यह नीदरलैंड्स, जर्मनी, लक्ज़मबर्ग, फ्रांस और उत्तरी सागर से घिरा हुआ है। यह सबसे छोटे और सबसे घनी आबादी वाले यूरोपीय देशों में से एक है। ब्रुसेल्स (Brussels) बेल्जियम की राजधानी और उसका सबसे बड़ा शहर है।

 

बेल्जियम वर्ष 1830 में अपनी आजादी के बाद से वंशानुगत संवैधानिक मोनार्क की अध्यक्षता में एक प्रतिनिधि लोकतंत्र है

भारत बेल्जियम संबंध

बेल्जियम स्वतंत्र भारत के साथ सितंबर 1947 में राजनयिक संबंध स्थापित करने वाले यूरोपीय देशों में से एक था। उल्लेखनीय है कि दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध काफी सौहार्दपूर्ण और मैत्रीपूर्ण रहे हैं तथा बीते कुछ वर्षों में बेल्जियम ने वैश्विक परिदृश्य में भारत की बढ़ती भूमिका को मान्यता प्रदान की है। बेल्जियम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिये भारत की आकांक्षा का समर्थन करता है। वर्ष 1997 में स्थापित संयुक्त आर्थिक आयोग (JEC) भारत और बेल्जियम-लक्ज़मबर्ग इकॉनमिक यूनियन (India-BLEU) के बीच द्विपक्षीय आर्थिक तथा वाणिज्यिक मुद्दों पर चर्चा करने हेतु मुख्य माध्यम है।

 

भारत बेल्जियम से अधिकांशत: जवाहरात और आभूषण (अपरिष्कृत हीरा), रसायन, रासायनिक उत्पाद, मशीन तथा मशीनी उत्पादों का आयात करता है।

 

WHO की फंडिंग पर रोक

चर्चा में क्यों?

COVID-19 वैश्विक महामारी से निपटने में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाने के पश्चात् अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में WHO को दी जाने वाली फंडिंग पर रोक लगाने की घोषणा की। ज्ञात हो कि लगभग 500 मिलियन डॉलर के साथ अमेरिका WHO का सबसे बड़ा योगदानकर्ता है और मौजूदा समय में अमेरिका ही COVID-19 वैश्विक महामारी से सर्वाधिक प्रभावित देशों में से एक है।

अमेरिका के अनुसार, WHO अपने दायित्वों का निर्वाह करने में विफल रहा है और संगठन ने वायरस के बारे में चीन के 'दुष्प्रचार'" को बढ़ावा दिया है, जिसके कारण संभवतया वायरस ने और अधिक गंभीर रूप धारण कर लिया है।

 

'अमेरिका प्रथम' नीति

 

कई विश्लेषक अमेरिका के इस निर्णय को अमेरिका की 'अमेरिका प्रथम' (America First) नीति का हिस्सा मान रहे हैं। ध्यातव्य है कि जब से राष्ट्रपति ट्रंप ने पदभार संभाला है, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक संस्था यूनेस्को (UNESCO), जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वैश्विक समझौते और ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया है।

इसके अतिरिक्त ट्रंप प्रशासन ने वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (United Nations Population Fund) के वित्तपोषण और वर्ष 2018 में फिलिस्तीनी शरणार्थियों की मदद करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था के वित्तपोषण में कटौती की घोषणा की थी।

WHO की फंडिंग

 

WHO का वित्तपोषण मुख्य रूप से सदस्य देशों, लोकोपकारी संगठनों और संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न संगठनों द्वारा किया जाता है। WHO द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, संगठन को 35.41% फंड सदस्य-देशों (जैसे अमेरिका) के स्वैच्छिक योगदान से, 9.33% फंड लोकोपकारी संगठनों के योगदान से और लगभग 8.1% फंड संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न संगठनों के योगदान से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त शेष फंडिंग कई अन्य योगदानकर्ताओं द्वारा की जाती है। सदस्य देशों द्वारा दिये जाने वाले स्वैच्छिक योगदान में भारत की तकरीबन 1% हिस्सेदारी है।

 

WHO द्वारा फंड का प्रयोग

 

WHO प्राप्त धनराशि का प्रयोग स्वास्थ्य से संबंधित विभिन्न कार्यक्रमों के लिये करता है।

WHO ने अपने वित्तीय वर्ष 2018-19 के कुल बजट का 19.36% (लगभग 1 बिलियन डॉलर) पोलियो उन्मूलन से संबंधित कार्यक्रमों पर खर्च किया था। इसके अतिरिक्त WHO ने आवश्यक स्वास्थ्य और पोषण सेवाओं तक लोगों की पहुँच सुनिश्चित करने हेतु 8.77%, टीके से बचाव योग्य बीमारियों पर 7% तथा प्रकोपों की रोकथाम एवं नियंत्रण पर लगभग 4.36% खर्च किया था।

 

इंडोनेशिया के समुद्री क्षेत्र में चीन का हस्तक्षेप

चर्चा में क्यों?

फरवरी 2020 में चीनी तटरक्षकों के सहयोग से चीन के मछुआरों ने इंडोनेशिया के नातुना सागर क्षेत्र में प्रवेश किया जिसके कारण स्थानीय मछुआरों को पीछे हटना पड़ा। इंडोनेशिया की समुद्री सीमा में प्रवेश कर चीन के मछुआरे अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन तो करते ही हैं, साथ ही चीनी मछुआरों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले स्टील से निर्मित उपकरण समुद्री जैव प्रणाली को नष्ट कर देते हैं।

 

दक्षिण चीन सागर और नाइन-डैश लाइन विवाद

एक अनुमान के अनुसार, विश्व के कुल समुद्री व्यापार का 30% दक्षिण चीन सागर के माध्यम से होता है।

इस समुद्री मार्ग से प्रतिवर्ष 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का व्यापार होता है।

मलक्का जलसंधि (Malacca Strait) से होते हुए यह क्षेत्र हिंद महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ने वाला सबसे संक्षिप्त मार्ग प्रदान करता है।

दक्षिण चीन सागर को समुद्री जैव विविधता के साथ ही खनिज तेल और प्राकृतिक गैस के बड़े भंडार के रूप में देखा जाता है।

वर्ष 1953 से ही चीन 'नाइन-डैश लाइन' (क्षेत्र के मानचित्र पर चीन द्वारा खींची गई 9 आभासी रेखाएँ) के माध्यम दक्षिण चीन सागर के अधिकांश भाग (लगभग 80%) पर अपने अधिकार का दावा करता रहा है। इंडोनेशिया के अलावा इस क्षेत्र के अन्य देश जैसे- वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई और फिलीपींस आदि भी दक्षिण चीन सागर में चीन के आक्रामक हस्तक्षेप का विरोध करते हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 में फिलीपींस ने अपने समुद्री क्षेत्र में चीन के हस्तक्षेप को 'संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि' (UN Convention on the Law of the Sea-UNCLOS), 1982 के तहत स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (Permanent Court of Arbitration PCA) में चुनौती दी थी। PCA ने जुलाई 2016 के अपने फैसले में दक्षिण चीन सागर में चीन के हस्तक्षेप को गलत बताया। न्यायालय के अनुसार, फिलीपींस के समुद्री क्षेत्र में चीन का हस्तक्षेप फिलीपींस के संप्रभु अधिकारों का उल्लंघन है, साथ ही ऐसी गतिविधियाँ 'संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि' (UNCLOS) के भी खिलाफ हैं।

 

चीन PCA के इस निर्णय का विरोध करता है और उसे इस निर्णय के आधार पर कोई भी दावा या कार्रवाई स्वीकार्य नहीं है।

 

स्थायी मध्यस्थता न्यायालय

स्थायी मध्यस्थता न्यायालय एक अंतर-सरकारी संगठन है।

- इसकी स्थापना प्रथम 'हेग शांति सम्मेलन के दौरान वर्ष 1899 में की गई थी। 

- इसका उद्देश्य राष्ट्रों के बीच विवादों के निपटारे के लिये मध्यस्थता व अन्य सेवाएं प्रदान करना था। वर्तमान में विश्व के 122 देश इस संस्था से जुड़े हुए हैं।

 वर्ष 1950 में भारत इस संस्था में शामिल हुआ था।

 इसका मुख्यालय हेग, नीदरलैंड में है।

 

EU डेटा रणनीति

चर्चा में क्यों?

19 फरवरी, 2020 को यूरोपीय आयोग ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के मानव-केंद्रित विकास को सुनिश्चित करने के लिये यूरोपीय संघ (EU) की डेटा नीति और कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर एक श्वेत-पत्र जारी किया गया।

प्रमुख बिंदु

नया दस्तावेज़ यूरोपीय संघ की विभिन्न परियोजनाओं, विधायी रूपरेखा और पहलों के लिये एक समय सीमा प्रस्तुत करता है। यह रणनीति सिलिकॉन वैली (Silicon Valley) के अधिकारियों और ब्रसेल्स के नियामकों के बीच बैठकों की श्रृंखला का अनुसरण करती है। EU डेटा रणनीति के माध्यम से यूरोपीय संघ के सभी देशों में डेटा के मुक्त प्रवाह को सुनिश्चित करना चाहता है साथ ही यह वर्ष 2030 तक डेटा एकल बाज़ार (Data Single Market) निर्मित कर यूरोप के स्थानीय प्रौद्योगिकी बाजार को मजबूत करना चाहता है। डेटा आधारित तीव्र अर्थव्यवस्था के विकास के लिये आयोग वर्ष के उत्तरार्द्ध तक 'सामान्य यूरोपीय डेटा स्पेस के शासन के लिये सक्षम विधायी फ्रेमवर्क' को लागू करना चाहता है।

 

वर्ष 2021 की शुरुआत तक यूरोपीय आयोग एप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (Application Programming Interfaces-APIS) माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के उच्च मूल्य वाले डेटा को मुफ्त में उपलब्ध कराएगा। ध्यातव्य है कि API दो अलग-अलग एप्लीकेशन के बीच आपसी संपर्क स्थापित करने का एक विकल्प है। वर्ष 2021 से 2027 के बीच डेटा इंफ्रास्ट्रक्चर को सुदृढ़ करने के लिये एक उच्च प्रभाव वाली परियोजना में निवेश किया जाएगा। इसके अतिरिक्त क्लाउड सेवा बाज़ार सहित कई अन्य पहले भी इस रणनीति के तहत प्रस्तावित हैं।

 

EU के इस कदम का महत्त्व

 

प्रौद्योगिकी विनियमन में यूरोप सबसे आगे रहा है। वर्ष 2018 में जारी इसका जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR) एक गेम चेंजर साबित हुआ। हालिया रणनीति में भी GDPR को डिजिटल ट्रस्ट के लिये ठोस रूपरेखा प्रदाता के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार यह वैश्विक स्तर पर डेटा रणनीति के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है।

 

भारत के वर्तमान व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक पर संयुक्त प्रवर समिति द्वारा चर्चा की जा रही है। इस विधेयक में विभिन्न संस्थाओं के लिये यह अनिवार्य किया गया है कि वे सरकार को आवश्यकतानुसार गैर-व्यक्तिगत डेटा प्रदान करें। ध्यातव्य है कि यह अक्तूबर 2018 में न्यायमूर्ति बी. एन. श्रीकृष्ण समिति द्वारा प्रस्ताव मसौदे में शामिल नहीं था। इसके अतिरिक्त इस विधेयक के अनेक उपबंध भारत की डेटा इकोनॉमी को सुदृढ़ करने से संबंधित हैं। ध्यातव्य है कि यू की यह डेटा रणनीति, भारत को अपनी डेटा रणनीति बनाने तथा डेटा संरक्षण एवं डेटा के मुक्त प्रवाह को सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है।

 

 श्रीलंका गृहयुद्ध और मानवाधिकार संरक्षण

 

चर्चा में क्यों?

 श्रीलंका ने युद्धोत्तर जवाबदेही एवं सुलह पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से स्वयं को अलग करने की आधिकारिक घोषणा की है। श्रीलंका के विदेश मंत्री के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद को इस संदर्भ में आधिकारिक सूचना दे दी गई है।

 

संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव श्रीलंका के गृहयुद्ध (वर्ष 2009) के अंतिम दौर में श्रीलंकाई सेना पर लगभग 45,000 से अधिक निर्दोष लोगों की हत्या और मानवाधिकारों का उल्लंघन करने का आरोप लगा था। श्रीलंका के मौजूदा राष्ट्रपति, गोतबाया राजपक्षे गृह युद्ध के दौरान श्रीलंका के रक्षा सचिव थे और उनके भाई महिंदा राजपक्षे उस समय श्रीलंका के राष्ट्रपति थे।

 

इसी विषय को लेकर वर्ष 2015 में गृहयुद्ध के 6 वर्षों बाद तत्कालीन श्रीलंकाई सरकार ने 11 अन्य देशों के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में एक प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया था, जिसमें श्रीलंका के गृहयुद्ध के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की जाँच की बात कही गई। इस प्रस्ताव में व्यापक सुधारों और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से श्रीलंका में घरेलू जवाबदेही तंत्र विकसित करने का प्रावधान है।

 

प्रस्ताव के अनुसार, श्रीलंका राष्ट्रमंडल और अन्य विदेशी न्यायाधीशों,बचाव पक्ष के वकीलों और जाँचकर्ताओं की भागीदारी के साथ एक विश्वसनीय न्यायिक प्रक्रिया स्थापित करेगा।

श्रीलंका का गृहयुद्ध

वर्ष 1948 में ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र होने के बाद से ही श्रीलंका या तत्कालीन 'सीलोन' जातीय संघर्ष का सामना कर रहा था। वर्ष 1972 में सिंहलियों ने देश का नाम 'सीलोन' से बदलकर श्रीलंका कर दिया और बौद्ध धर्म को राष्ट्र का प्राथमिक धर्म घोषित कर दिया गया।

 

सिंहलियों ने औपनिवेशिक काल के दौरान तमिलों के प्रति ब्रिटिश पक्षपात का विरोध किया और आजादी के बाद के वर्षों में उन्होंने तमिल प्रवासी बागान श्रमिकों को देश से विस्थापित कर दिया तथा सिंहली को देश की आधिकारिक भाषा बना दिया। तमिलों और सिंहलियों के बीच जातीय तनाव और संघर्ष बढ़ने के बाद वर्ष 1976 में वेलुपिल्लई प्रभाकरन के नेतृत्व में 'लिट्टे' (LTTE) का गठन किया गया और इसने उत्तरी एवं पूर्वी श्रीलंका, जहाँ अधिकांश तमिल निवास करते थे, में 'एक तमिल मातृभूमि' के लिये प्रचार करना प्रारंभ कर दिया।

वर्ष 1983 में लिट्टे ने श्रीलंकाई सेना की एक टुकड़ी पर हमला कर दिया, इसमें 13 सैनिकों की मौत हो गई। विदित है कि इस घटनाक्रम से श्रीलंका में दंगे भड़क गए जिसमें लगभग 2,500 तमिल लोग मारे गए।

 

इसके पश्चात् श्रीलंकाई तमिलों और बहुसंख्यक सिंहलियों के मध्य प्रत्यक्ष युद्ध शुरू हो गया। ध्यातव्य है कि भारत ने श्रीलंका के इस गृहयुद्ध में सक्रिय भूमिका निभाई और श्रीलंका के संघर्ष को एक राजनीतिक समाधान प्रदान करने के लिये वर्ष 1987 में भारत-श्रीलंका समझौते पर हस्ताक्षर किये।

 

भारत ने ऑपरेशन पवन के तहत लिट्टे को समाप्त करने के लिये श्रीलंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (IPKF) तैनात कर दी। हालाँकि हिंसा बढ़ने के 3 वर्षों बाद ही IPKF को वहाँ से हटा दिया गया।

वर्ष 2001 की सरकारी जनगणना के अनुसार, श्रीलंका की मुख्य जातीय आबादी में सिंहली (82%), तमिल (9.4%) और श्रीलंकाई मूर (7.9%) शामिल हैं।

एकीकृत स्थानीय ऊर्जा प्रणाली

चर्चा में क्यों?

मार्च 2020 में भारत स्मार्ट यूटिलिटी सप्ताह 2020 के दौरान भारत-यूरोपीय संघ के मध्य एकीकृत स्थानीय ऊर्जा प्रणाली से संबंधित समझौते की महत्त्वपूर्ण घोषणा की गई।

प्रमुख बिंदु

स्वीडन और भारत ने भारत स्मार्ट यूटिलिटी सप्ताह में भारत-स्वीडन सहयोगात्मक औद्योगिक अनुसंधान और विकास कार्यक्रम की भी घोषणा की। स्वीडन और भारत अपने पहले से ही मज़बूत साझेदारी पोर्टफोलियो में एक और सहयोगी कार्यक्रम जोड़ रहे हैं।

भारत-यूरोपीय संघ का यह महत्त्वपूर्ण समझौता मिशन इनोवेशन के तहत किया गया है।

 मिशन इनोवेशन यूरोपीय संघ की तरफ से 24 देशों की एक वैश्विक पहल है, जो व्यापक स्तर पर मज़बूती और तेजी के साथ स्वच्छ ऊर्जा को वहनीय बनाने के लिये प्रतिबद्ध है।

संभावित लाभ

यह महत्त्वपूर्ण समझौता भारत-यूरोप के मध्य विभिन्न ऊर्जा क्षेत्रों में स्थानीय भागीदारी को शामिल करते हुए एक नवीन समाधान प्रस्तुत करेगा और उच्च ऊर्जा दक्षता क्षेत्र में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी में वृद्धि करेगा।

 

भारत और यूरोपीय संघ के बीच यह साझेदारी स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने में सहायता करेगी और ऊर्जा अनुसंधान एवं नवाचार के क्षेत्र में मजबूती प्रदान करेगी। यह सहयोग ऊर्जा आपूर्ति को पारदर्शी तथा अधिक कुशल और सभी के लिये वहनीय बनाएगा।

 

. विशेष रूप से उच्च अनुसंधान विकास और नवाचार के क्षेत्र में निवेश साझेदारी और सहयोग निकट भविष्य में स्मार्ट ग्रिड प्रौद्योगिकियों के विकास में तेजी ला सकते हैं।

 

स्मार्ट ग्रिड क्षेत्र में पिछले पाँच वर्षों के दौरान तीन प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय स्मार्ट ग्रिड नेटवर्क वर्चुअल सेंटर स्थापित किये गए हैं तथा अनुसंधान,विकास और नवाचार के लिये 24 देशों के साथ भागीदारी की गई है।

 भारत-स्वीडन ने औद्योगिक अनुसंधान और विकास सहयोग कार्यक्रम का नेतृत्व करते हुए संयुक्त रूप से पाँच मिलियन डॉलर का निवेश किया है जो स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र को एक सुरक्षित, अनुकूल, सतत और डिजिटल रूप से सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र में बदलने और सभी के लिये विश्वसनीय एवं गुणवत्तापूर्ण ऊर्जा प्रदान करने में मदद करेगा।

 

सार्क COVID-19 इमरजेंसी फण्ड

चर्चा में क्यों?

15 मार्च, 2020 को भारतीय प्रधानमंत्री ने SAARC देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंस के दौरान क्षेत्र में COVID-19 की चुनौती से निपटने के लिये एक सार्क covID-19 इमरजेंसी फंड बनाने का प्रस्ताव रखा।

प्रमुख बिंदु

सार्क देशों की ज्यादातर आबादी के लोग निम्न आय वर्ग के ऐसे समूहों से आते हैं जिन तक पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच नहीं है, ऐसे में संगठन के सामूहिक प्रयासों से एक बड़ी आबादी को COVID-19 से निपटने में सहायता प्रदान की जा सकेगी।

WHO के अनुसार, COVID-19 में CO का तात्पर्य कोरोना से है. जबकि VI विषाणु को, D बीमारी को तथा संख्या-19 वर्ष 2019 (बीमारी के पता चलने का वर्ष) को चिह्नित करती है। कोरोना वायरस (COVID-19) के शुरुआती मामले दिसंबर 2019 में चीन के हुबेई प्रांत के वुहान शहर में अज्ञात कारण से होने वाले निमोनिया के रूप में सामने आए थे। 31 दिसंबर, 2019 को चीन ने WHO को इस अज्ञात बीमारी के बारे में सूचित किया और इसके कारण 30 जनवरी, 2020 को वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित किया गया।

 

सार्क (SAARC)

 

दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) की स्थापना 8 दिसंबर, 1985 को ढाका (बांग्लादेश) में हुई थी। 17 जनवरी, 1987 को सार्क मुख्यालय की स्थापना नेपाल की राजधानी काठमांडू में की गई।

 इस संगठन की स्थापना क्षेत्र के सात देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव और श्रीलंका) के सहयोग से की गई थी। अप्रैल 2007 में अफगानिस्तान 8वें सदस्य के रूप में इस संगठन में शामिल हुआ।

यह संगठन सदस्य देशों में कृषि, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, पर्यावरण, शिक्षा, सुरक्षा, ऊर्जा, जैव-प्रौद्योगिकी जैसे अनेक क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा देता है। 

 ध्यातव्य है कि वर्ष 2014 में नेपाल में आयोजित 18वें सार्क सम्मेलन के बाद यह पहली बैठक थी जिसमें सभी सार्क देशों ने सामूहिक रूप से एक साथ हिस्सा लिया।

भारत-नॉर्वे

चर्चा में क्यों?

15-16 जनवरी, 2020 को व्यापार एवं निवेश पर भारत-नॉर्वे डायलॉग के पहले सत्र का आयोजन नई दिल्ली में किया गया।

प्रमुख बिंदु

यह सत्र नॉर्वे के प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के दौरान नई दिल्ली में 8 जनवरी, 2019 को भारत और नॉर्वे के बीच हस्ताक्षरित संदर्भ की  शर्तों (Terms of Reference-TOR) पर आधारित था। पहला सत्र 15 जनवरी, 2020 को भारतीय उद्योग के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत से शुरू हुआ जिसमें आपसी हित जैसे- नीली अर्थव्यवस्था, शिपिंग एवं समुद्री सुरक्षा, आईसीटी नवीकरणीय ऊर्जा, मत्स्य और MSME के विभिन्न क्षेत्रों पर चर्चा हुई।

इस अवसर पर दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरिडोर डेवलपमेंट कॉर्परेशन (DMICDC) और इन्वेस्ट इंडिया द्वारा भी अपनी प्रस्तुतियाँ दी गई।

 

गौरतलब है कि अप्रैल 2000 से सितंबर 2019 के दौरान नॉर्वे सें भारत में आने वाला प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) 257 मिलियन अमेरिकी डॉलर के आसपास था।

भारत ने समुद्री प्लास्टिक के कूड़े की समस्या से निपटने के लिये नॉर्वे के साथ महासागर वार्ता शुरू की है। वर्ष 2008 में भारत ने नॉर्वे में अपना पहला आर्कटिक अनुसंधान स्टेशन 'हिमाद्रि' (ध्रुवीय अनुसंधान स्टेशन) स्थापित किया। इस स्टेशन के मुख्य अनुसंधान फूड-वेब डायनेमिक्स, स्पेस वेदर, एरोसोल विकिरण, ग्लेशियर, सूक्ष्म जीव समुदाय, कार्बन पुनर्चक्रण और सेडिमेंटोलॉजी पर आधारित है।

 

नॉर्वे : एक नज़र में

 

उत्तरी यूरोपीय देश नॉर्वे स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित है। इसकी राजधानी ओस्लो है। यह यूरोप का दूसरा न्यूनतम जनसंख्या घनत्व वाला देश है।

नॉर्वे की तटीय भूमि फियोर्ड तटों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

विश्व में फियोर्ड तटों का संकेंद्रण सबसे अधिक नॉर्वे में है। यहाँ औरोरा बोरिआलिस नामक एक प्राकृतिक घटना आमतौर पर शरद और वसंत ऋतु के बीच आर्कटिक वृत्त के ऊपर देखी जाती है।

 

गर्मियों में सूर्य आर्कटिक वृत्त के उत्तर में अस्त नहीं होता है, जिसके कारण नार्वे को 'मध्यरात्रि के सूर्य का देश' कहा जाता है।

 

बिम्सटेक सम्मेलन

चर्चा में क्यों?

फरवरी 2020 में मादक द्रव्यों की तस्करी रोकने के उद्देश्य से नई दिल्ली में दो दिवसीय बिम्सटेक (बहु क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल) सम्मेलन का आयोजन किया गया।

 

प्रमुख बिंदु

यह सम्मेलन सभी सदस्य देशों को मादक पदार्थों की तस्करी के बढ़ते खतरों और विभिन्न देशों द्वारा अपनाई गई सर्वोत्तम प्रथाओं से सीख लेकर इन खतरों को समाप्त करने के लिये आवश्यक सामूहिक कदमों के बारे में बातचीत करने का अवसर प्रदान करेगा। सम्मेलन में भारत के गृह मंत्री ने बताया कि सरकार ने मादक पदार्थों की तस्करी एवं व्यापार को नियंत्रित करने के लिये जो नीति बनाई है उससे भारत में न तो मादक पदार्थों का प्रवेश होगा और न ही भारत की ज़मीन का प्रयोग मादक पदार्थों की तस्करी में होने दिया जाएगा।

बिम्सटेक

 

एक उप-क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग समूह के रूप में बिम्सटेक का गठन जून 1997 में बैंकॉक में किया गया था। 

 प्रारंभ में इस संगठन में बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाईलैंड शामिल थे और इसका नाम BIST-EC यानी बांग्लादेश, भारत,श्रीलंका और थाईलैंड इकॉनमिक को-ऑपरेशन था। 

 दिसंबर 1997 में म्यांमार भी इस समूह से जुड़ गया और इसका नाम BIMSTEC हो गया।

इसके बाद फरवरी 2004 में भूटान और नेपाल भी इस समूह में शामिल हो गए। 9 जुलाई 2004 में बैंकॉक में आयोजित इसके प्रथम सम्मेलन में BIMSTEC (बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड तकनीकी और आर्थिक सहयोग) का नाम बदलकर बिम्सटेक (बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल) रखा गया।

 सरकार की मादक पदार्थों संबंधी एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की कुल आबादी का लगभग 5% मादक पदार्थों के प्रभाव से ग्रसित है अर्थात् विश्व के 27 करोड़ से अधिक लोग ऐसे पदार्थों का सेवन कर रहे हैं, जो कि गंभीर चिंता का विषय है।

ब्लू डॉट नेटवर्क

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व वाले ब्लू डॉट नेटवर्क (Blue Dot Network-BDN) में भारत के शामिल होने की संभावना व्यक्त की गई है।

मुख्य बिंदु

BDN की औपचारिक घोषणा 4 नवंबर, 2019 को थाईलैंड के बैंकॉक में इंडो-पैसिफिक बिज़नेस फोरम (Indo-Pacific Business Forum) में की गई थी।

इसका नेतृत्व जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका भी करेगा।

क्या है ब्लू डॉट नेटवर्क?

यह वैश्विक अवसंरचना विकास हेतु उच्च-गुणवत्ता एवं विश्वसनीय मानकों को बढ़ावा देने के लिये सरकारों, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज को एक साथ लाने की एक बहु-हितधारक पहल है। यह इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर ध्यान देने के साथ-साथ विश्व स्तर पर सड़क, बंदरगाह एवं पुलों के लिये मान्यता प्राप्त मूल्यांकन और प्रमाणन प्रणाली के रूप में काम करेगा।

इसके तहत अवसंरचनात्मक परियोजनाओं को ऋण, पर्यावरण मानकों, श्रम मानकों आदि के आधार पर वर्गीकृत किया जाएगा। 

यह प्रणाली किसी भी लोकतांत्रिक देश की उन परियोजनाओं पर लागू होगी जहाँ नागरिक ऐसी परियोजनाओं का मूल्यांकन करना चाहते हैं। विश्व स्तर पर BDN प्रमुख बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिये मान्यता प्राप्त स्वीकृति के तौर पर काम करेगा जिसका उद्देश्य लोगों को यह बताना है कि परियोजनाएँ टिकाऊ हैं, न कि शोषणकारी। इसे चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (Belt and Road Initiative BRI) के जवाब के रूप में देखा जा रहा है। हालाँकि, BRI के विपरीत BDN किसी परियोजना के लिये सार्वजनिक ऋण की पेशकश नहीं करेगा।

 

गौरतलब है कि BRI एशिया तथा अफ्रीका के बीच भूमि और समुद्र क्षेत्र में कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिये चीन द्वारा संचालित परियोजनाओं का एक सेट है। भारत, चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में शामिल नहीं है।

 

यूएसटीआर और भारत 

चर्चा में क्यों?

अमेरिकी वाणिज्य मामलों की एजेंसी यूनाइटेड स्टेट्स ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव (United States Trade Representative-USTR) ने विकासशील एवं अल्प विकसित देशों की नई सूची जारी की है। USTR द्वारा जारी की गई इस सूची के तहत शामिल देशों को 'काउंटर वेलिंग ड्यूटी' इन्वेस्टीगेशन के संदर्भ में रियायत दी जाती है।

 

काउंटर वेलिंग ड्यूटी (CVD) यह आयातित वस्तुओं पर लगाया जाने वाला एक कर है जिसका प्रयोग आयातित वस्तुओं पर दी जाने वाली सब्सिडी के प्रभाव को न्यून करने के लिये किया जाता है।

 

इस कर का उद्देश्य आयातित वस्तु के संदर्भ में किसी समान प्रकृति के घरेलू उत्पाद को मूल्य प्रतिस्पर्धा में पड़ने से बचाना है। यह एक प्रकार का एंटी-डंपिंग टैक्स होता है।

 डंपिंग का अर्थ है किसी वस्तु/उत्पाद का निर्यात किसी देश द्वारा दूसरे देश को उसके सामान्य मूल्य से कम कीमत पर करना। यह एक अनुचित व्यापार अभ्यास है, जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर एक विकृत प्रभाव डाल सकता है।

 

पृष्ठभूमि

 

ध्यातव्य है कि अमेरिकी एजेंसी USTR ने वर्ष 1998 में विश्व व्यापार संगठन के सब्सिडी व काउंटर वेलिंग ड्यूटी से संबंधित अनुबंधों के आलोक में विभिन्न देशों को उनके विकास स्तर के अनुसार सूचीबद्ध किया था। इस सूची के प्रयोग से USTR यह तय करता है कि किन देशों को रियायत दी जाएगी और कौन से देश काउंटर वेलिंग ड्यूटी के अंतर्गत शामिल होंगे। आमतौर पर जिन देशों को इन विशिष्ट श्रेणियों में नहीं रखा जाता है वे काउंटर वेलिंग ड्यूटी से अपेक्षाकृत कम सुरक्षित रहते हैं।

 

10 फरवरी, 2020 तक भारत USTR के विकासशील देशों को सूची में शामिल था जिसकी वजह से उसे आयात पर नियत सीमा से अधिक छूट प्राप्त थी का अर्थ सूची से बाहर होने के कारण भारतीय उत्पादों को आयात और सब्सिडी से बंधी रियायत नहीं दी जाएगी।

 

नई सूची में 36 विकासशील और 44 अल्पविकसित देश शामिल किये गए है।

 

यदि कोई देश किसी वस्तु का 3% से कम (अमेरिका में उस वस्तु के कुल आयात का) आयात करता है, तो इसे उस वस्तु का नगण्य आयात माना जाएगा। विशेष परिस्थितियों में यह सीमा 4% है।

 कोई देश कम आय वाले देशों की श्रेणी में रखा जाएगा या नहीं इसका निर्धारण USTR निम्नलिखित बिंदुओं के निर्धारण  में करता है

 • प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय या GNI

विश्व व्यापार मे हिस्सेदारी

अन्य कारक जैसे ऑर्गनाइजेशन फॉर इकॉनमिक को-ऑपरेशन एड डेवलपमेंट (OECD) की सदस्यता या सदस्यता के लिये आवेदन, यूरोपियन यूनियन की सदस्यता या G20 को सदस्यता

 • भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड और वियतनाम को इस सूची से बाहर कर दिया गया है। जहाँ इन सभी देशों की विशव व्यापार में हिस्सेदारी कम से कम 0.5% है. वहीं सकल राष्ट्रीय आय 12,375 डॉलर (विश्व बैंक द्वारा उच्च आय वाले देशों की सीमा) से कम है।

 

USTR के अनुसार, G20 का सदस्य होने के कारण भारत को विकासशील देशों की सूची में स्थान नहीं दिया गया है। USTR के अनुसार, G20 का अधिक प्रभाव और विश्व व्यापार में हिस्सेदारी सदस्य देशों को विकसित देश की स्थिति सुनिश्चित करती हैं।

 

USTR

 

यह संयुक्त राज्य अमेरिका की एक एजेंसी है, जिसकी स्थापना वर्ष 1962 में स्पेशल ट्रेड रिप्रेटेटिव के रूप में हुई थी। यह एजेंसी संयुक्त राज्य अमेरिका के लिये व्यापार नीति विकसित करने और इस संबंध में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति से सिफारिश करने के लिये उत्तरदायी है तथा इसके द्वारा ही द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्तरों पर व्यापार वार्ता आयोजित की जाती हैं।

 

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता गठबंधन

5 फरवरी 2020 को संयुक्त राज्य अमेरिका ने 27 राष्ट्रों के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता गठबंधन के शुभारंभ की घोषणा की यह गठबंधन दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा और संरक्षण में एक सामूहिक दृष्टिकोण को अपनाने का प्रयास करेगा

 

प्रमूख बिंदु

 

यह समान विचारधारा वाले साझेदारों का एक गठन है जो प्रत्येक व्यक्ति के लिये अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता को सहेजते हैं और उसके लिये संघर्ष करते हैं।

 

इस गठबंधन में शामिल होने वाले प्रमुख देशों में आस्ट्रेलिया, ब्राजील यूनाइटेड किंगडम, इजरायल, यूक्रेन, नीदरलैंड और ग्रीस प्रमुख है।

सभी लोगों अपने विवेकानुसार जीवन जीने का अधिकार देना इसकी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में से एक है।

 

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह सभी व्यक्तियों के विश्वास संबंधित अधिकारों की रक्षा करेगा, जिसमें उन्हें विश्वास करने या नहीं करने की स्वतंत्रता दी जाएगी।

 

इस गठबंधन की लॉन्चिंग के दौरान भागीदार देशों को प्रौद्योगिको और धार्मिक उत्पीड़न, निंदा और धर्म त्याग कानून आदि जैसे मुद्दों पर व्यापक विचार-विमर्श करना चाहिये। हालांकि बाहरी तौर पर यह एक रूढ़िवादी निकाय (Consensus Body ) प्रतीत हो रहा है।

 

अफ्रीकी संघ की बैठक

चर्चा में क्यों?

10 फरवरी, 2020 को इथियोपिया के अदीस अबाबा (Aadis Ahaha) में अफ्रीकी संघ की 33वीं बैठक का आयोजन किया गया।

 

प्रमुख बिंदु

 

 इसकी अध्यक्षता दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सीरिल रामफोसा (Cyril Ramaphosa) ने की

 

अपने उद्घाटन भाषण में अफ्रीकी संघ के नवनिर्वाचित अध्यक्ष सिरिल रामफोसा ने एजेंडा 2063 (Agenda 2063) की रूपरेखा सहित उन प्राथमिकताओं को चिहित किया जिसके अंतर्गत अफ्रीका के विकास पथ में हो रही प्रगति को बढ़ावा देने के लिये यूनियन का ध्यान केंद्रित करना होगा।

 

इस वर्ष प्रारंभ होने वाला अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र (African Continental Free Trade Area-AFCFTA) औद्योगिकरण का एक प्रमुख चालक होगा जो वैश्विक अर्थव्यवस्था में अफ्रीका के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त करेगा।

 

एजेंडा 2063

यह सकल्प मई 2013 में अफ्रीकी  संघ की महासभा द्वारा पारित किया गया।

यह अफ्रीका महाद्वीप का एक राजनीतिक ढाँचा है जिसका उद्देश्य समावेशी और संवहनीय विकास लक्ष्य को प्राप्त करना है। एकता, आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता, उन्नति तथा सामूहिक समृद्धि के लिये पैन-अफ्रीकन अभियान की यह एक ठोस अभिव्यक्ति है। इसका उद्देश्य अगले 50 वर्षों (वर्ष 2013-2063) में अफ्रीका महाद्वीप को पॉवर हाउस के रूप में स्थापित करना है।

 

अफ्रीकी संघ 

अफ्रीकी संघ एक महाद्वीपीय निकाय है जिसमें अफ्रीका महाद्वीप के 55 सदस्य देश शामिल हैं। इसका सचिवालय अदीस अबाबा में स्थित है।

 अफ्रीकी संघ की स्थापना वर्ष 2002 में अफ्रीकी एकता संगठन (Organisation of African Unity) के स्थान पर आधिकारिक रूप से दक्षिण अफ्रीका के डरबन में की गई थी।

 

एजेंडा 2063 भविष्य के लिये न केवल अफ्रीका की आकांक्षाओं को कूटबद्ध करता है, बल्कि प्रमुख फ्लैगशिप कार्यक्रमों की भी पहचान करता है जो अफ्रीका के आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकते हैं और परिवर्तित हो रही वैश्विक व्यवस्था में महाद्वीप की उचित भूमिका का नेतृत्व कर सकती हैं।

उद्देश्य

अफ्रीकी देशों और उनके लोगों के बीच एकता और एकजुटता की भावना जागृत करना।

अपने सदस्य देशों की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और स्वतंत्रता की रक्षा करना।

 

महाद्वीप के राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक एकीकरण का प्रयास करना।

महाद्वीप और उसके लोगों के हित के मुद्दों को बढ़ावा देना तथा उनका बचाव करना।

 

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना । महाद्वीप में शांति, सुरक्षा और स्थिरता को बढ़ावा देना।

 

लोकतांत्रिक सिद्धांतों, संस्थानों, लोकप्रिय भागीदारी और सुशासन को बढ़ावा देना।

संघ के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु क्षेत्रीय आर्थिक समुदायों के बीच नीतियों का समन्वय करना।

व्यापार, रक्षा और विदेशी संबंधों को लेकर सामान्य नीतियों को विकसित करना और बढ़ावा देना, ताकि महाद्वीप की रक्षा और इसकी वार्ता की स्थिति को मजबूत किया जा सके। अफ्रीका के युवाओं को विकास की मुख्य धारा में शामिल करने के लिये कौशल विकास संस्थानों के निर्माण पर बल दिया जा रहा है।

 

इस बैठक में एजेंडा 2063 के कार्यान्वयन पर पहली महाद्वीपीय रिपोर्ट (First Continental Report) जारी की गई है।

 

ईरान एवं परमाणु अप्रसार संधि

 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ईरान ने यह वक्तव्य दिया है कि यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष उसके परमाणु कार्यक्रमों को लेकर विवाद उत्पन्न होता है, तो वह परमाणु अप्रसार संधि (Nuclear Non-Proliferation Treaty-NPT) से पीछे हटने पर विचार करेगा।

प्रमुख बिंदु ब्रिटेन, फ्राँस और जर्मनी ने ईरान पर वर्ष 2015 में हुए परमाणु समझौते के नियमों का पालन करने में विफल रहने के कारण एक संकल्प प्रस्तावित किया है जिसे ईरान, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के आरोपी की आशंका के रूप में देख रहा है।

यूके, फ्राँस एवं जर्मनी के अनुसार, वे इस समझौते के लिये विवाद समाधान तंत्र का सहारा लेंगे जिसका अर्थ होगा इस मामले को यूएन सुरक्षा परिषद को सौंपना। वर्ष 2018 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा इस समझौते से अपना नाम वापस लेने के बाद इस समझौते के प्रावधानों को लेकर ईरान ने यूरोपीय संघ के तीन सदस्य देशों पर निष्क्रियता का आरोप लगाया है।

विदित है कि वर्ष 2015 में ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा जर्मनी (P5+1) ने ईरान के साथ परमाणु समझौता किया था, जिसे Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA) के नाम से जाना जाता है।

 • इस समझौते में ईरान द्वारा अपने परमाणु कार्यक्रमों पर नियंत्रण तथा उन्हें अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (International Atomic Energy Agency-IAEA) के नियमों के आधार पर संचालित करने की सहमति देने की बात की गई। इसके बदले में P5+1 देशों द्वारा ईरान पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के लिये समझौता किया गया था।

अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी

अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण एक स्वायत्त संस्था है, जिसका गठन 29 जुलाई, 1957 को हुआ था। इसका मुख्यालय वियना (ऑस्ट्रिया) में है।

यह संयुक्त राष्ट्र का अंग नहीं है परंतु यह संयुक्त राष्ट्र महासभा तथा सुरक्षा परिषद को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। इसका उद्देश्य विश्व में परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग सुनिश्चित करना है।

वर्ष 2018 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा इस समझौते से हटने के बाद ईरान भी समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं से क्रमशः पीछे हट रहा है। ईरान द्वारा अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हटने के कारण तीनों यूरोपीय देशों ने भी इस समझौते के प्रति निष्क्रियता दिखाई है। हालाँकि ईरान के विदेश मंत्री ने कहा है कि यदि यूरोपीय देश अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करते हैं, तो ईरान भी अपनी प्रतिबद्धता पूर्ण करेगा।

परमाणु अप्रसार संधि

 परमाणु अप्रसार संधि एक ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय संधि है. जिसके तीन प्रमुख लक्ष्य हैं: परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकना, निरस्त्रीकरण को प्रोत्साहित करना तथा परमाणु तकनीक के शांतिपूर्ण उपयोग के अधिकार को सुनिश्चित करना।

इस संधि पर वर्ष 1968 में हस्ताक्षर किये गए. जो वर्ष 1970 से प्रभावी है। वर्तमान में इस संधि में 191 देश शामिल हैं। 

ईरान सबसे खतरनाक हथियारों से संबंधित इस वैश्विक संधि अर्थात् परमाणु अप्रसार संधि के 62 मूल हस्ताक्षरकर्ता देशों में से एक था।

भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। भारत का कहना है कि NPT संधि भेदभावपूर्ण है, अतः इसमें शामिल होना उचित नहीं है। भारत का तर्क है कि यह संधि सिर्फ पाँच शक्तियों (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस) को परमाणु क्षमता का एकाधिकार प्रदान करती है। यह सिर्फ उन अन्य देशों, जो कि परमाणु शक्ति संपन्न नहीं हैं, पर लागू होती है।

 

स्टेप विद रिफ्यूजी' अभियान

 

चर्चा में क्यों?

 

जनवरी 2020 में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (United Nations High Commissioner for Refugees-UNHCR) द्वारा शुरू किए गए 'स्टेप विद रिफ्यूजी' (Step with Refugee) अभियान में कई भारतीय व्यक्तियों द्वारा भाग लिया जा रहा है अन्य देशों के व्यक्ति भी शरणार्थी समस्या को समझने के लिये इस अभियान में भाग ले रहे हैं।

 

अभियान प्रारंभ करने की वजह

 

पूरे विश्व में कई परिवार पलायन के लिये मजबूर होते हैं तथा वे जीवित रहने के लिये असाधारण प्रयास करते हैं ।

ऐसे समय में जब अधिक-से-अधिक परिवार विभिन्न वैश्विक संकटों के कारण अपने घरों से पलायन के लिये मजबूर हो रहे हैं, UNHCR द्वारा उनके परिवारों को सुरक्षित रखने के लिये तथा उनके जुझारूपन और दृढ़ संकल्प के सम्मान में इस अभियान की शुरुआत की गई। इस सामूहिक प्रयास के माध्यम से वैश्विक एकजुटता स्थापित करने, शरणार्थियों के संबंध में बेहतर समझ बनाने और शरणार्थियों की रक्षा के लिये धन जुटाने के साथ-साथ उनके जीवन के पुनरुत्थान में सहायता प्रदान की जाएगी।

 

स्टेप विद रिफ्यूजी' अभियान

 

इस अभियान में भाग लेने वाले व्यक्तियों के समक्ष 12 महीनों में दो बिलियन किलोमीटर की दूरी तय करने की चुनौती होगी क्योंकि विश्व में शरणार्थियों द्वारा अपनी सुरक्षा के लिये हर वर्ष लगभग इतने किमी. की यात्रा तय की जाती है।

 

इस अभियान में शामिल होने वाले प्रतिभागी पैदल चलकर, साइकिल चलाकर या दौड़ द्वारा हिसा ले सकते हैं तथा फिटनेस ऐप फिटबिर स्ट्रवा या गूगलफिट के माध्यम से भी इस आंदोलन में शामिल हा सकते हैं और वे जितने किलोमीटर तक यात्रा करेंगे वह अभियान में स्वयं जुड़ जाएगा। इस अभियान के तहत UNHCR कई शरणार्थियों की दुखद और साहसिक यात्राओं को भी विश्व के सामने प्रस्तुत कर रहा है।

 

भारत-टोगो संबंध

चर्चा में क्यों?

28 जनवरी, 2020 को टोगो या टोगो लीज गणतंत्र (Togolese Republic) और भारत 'दापोंग' (दलवाक क्षेत्र) एवं 'मैंगो' (सर्विस क्षेत्र) में लगभग 300 मेगावॉट की सौर ऊर्जा परियोजनाओं के विकास हेतु सहयोग करने पर सहमत हुए हैं।

मुख्य बिंदु

राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (National Thermal Power Corporation NTPC) लिमिटेड इन परियोजनाओं के लिये परियोजना प्रबंधन सलाहकार (Project Management Consultant-PMC) के रूप में कार्य करेगा।

 

अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance: ISA) में टोगो पहला देश होगा जो NTPC की सेवाओं का लाभ उठाएगा।

 • टोगो ने अपनी सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही वर्ष 2030 तक विद्युत की सार्वभौमिक पहुँच प्राप्त करने के लिये एक महत्त्वाकांक्षी योजना बनाई है।

 

NTPC ने सौर परियोजनाओं के कार्यान्वयन हेतु सदस्य देशों को परियोजना प्रबंधन परामर्श देने के लिये ISA के समक्ष एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। इस प्रस्ताव को ISA की वेबसाइट पर स्विस चुनौती (Swiss Challenge) के लिये रखा गया था, जिसे अक्तूबर 2019 में आयोजित ISA के द्वितीय सम्मेलन में मंजूरी दी गई।

स्विस चैलेंज (Swiss Challenge)

 

स्विस चैलेंज बोली लगाने की एक विधि है. जिसका उपयोग अक्सर सार्वजनिक परियोजनाओं की बोली लगाने में किया जाता है। इसमें एक इच्छुक पार्टी किसी परियोजना के लिये अनुबंध या बोली के लिये प्रस्ताव प्रस्तुत करती है। इसके बाद सरकार परियोजना का विवरण जनता के समक्ष रखी है और इसे क्रियान्वित करने के इच्छुक अन्य लोगों से प्रस्तावों को आमंत्रित करती है।

 प्राप्त बोलियों के आधार पर मूल प्रस्तावक को सर्वश्रेष्ठ बोली के साथ मिलान करने का मौका दिया जाता है। यदि मूल प्रस्तावक बोली का मिलान करने में विफल रहता है, तो परियोजना सर्वश्रेष्ठ बोली लगाने वाले को दे दी जाती है।

 

शंघाई सहयोग संगठन के आठ आश्चर्य

चर्चा में क्यों?

जनवरी 2020 में अंतर्राष्ट्रीय संगठन 'शंघाई सहयोग संगठन' (Shanghai Cooperation Organisation-SCO) ने 'स्टैच्यू ऑफ यूनिटी' (Statue of Unity) को SCO के आठवें आश्चर्य के रूप में शामिल किया।

मुख्य बिंदु

नवंबर 2019 में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी ने अमेरिका की 133 साल पुरानी स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी (Statue of Liberty) को पर्यटकों की आवाजाही के मामले में पीछे छोड़ दिया क्योंकि गुजरात में आने वाले पर्यटकों की संख्या इस दौरान 15000 से अधिक हो गई।

SCO द्वारा उठाए गए इस कदम से इसके सदस्य राष्ट्रों के बीच पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा जिससे भारत का विकास होगा क्योंकि पर्यटन राष्ट्रीय विकास का मुख्य वाहक होता है।

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी

'स्टैच्यू ऑफ यूनिटी' 182 मीटर ऊँची सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा है जो गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार सरोवर बांध के पास राजपीपला में साधु बेट नामक नदी द्वीप पर स्थित है । 'स्टैच्यू ऑफ यूनिटी' चीन के स्प्रिंग टेंपल में स्थित 153 मीटर ऊँची प्रतिमा (अब तक विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा का दर्जा प्राप्त था) भी ऊँची है और न्यूयॉर्क की स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी (93 मी.) की से ऊँचाई से करीब दोगुनी है।

sco के आठ आश्चर्य

भारत: स्टैच्यू ऑफ यूनिटी

कज़ाखस्तान तमगली के पुरातात्त्विक परिदृश्य (The Archaeological Landscape of Tamgaly)

किर्गिज़स्तान: इसिक-कुल झील (Lake Issyk-Kul)

चीन: डेमिंग पैलेस (Daming Palace)

पाकिस्तान: मुगल विरासत, लाहौर (Mughals Heritage)

रूस: द गोल्डन रिंग ऑफ सिटीज़ (The Golden Ring of Cities) ताजिकिस्तान द प्लेस ऑफ नौरोज़ (The Palace of Nowruz)

उज्बेकिस्तान: द पोई कालोन कॉम्प्लेक्स (The Poi Kalon complex)

 

रायसीना डायलॉग

चर्चा में क्यों?

14-16 जनवरी, 2020 के मध्य रायसीना डायलॉग के पाँचवें संस्करण का आयोजन नई दिल्ली में किया गया। विदेश मंत्रालय और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की ओर से आयोजित इस तीन दिवसीय सम्मेलन में 100 देशों के 700 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ शामिल हुए।

प्रमुख बिंदु

रायसीना डायलॉग 2020 की थीम- 'नेविगेटिंग द अल्फा सेंचुरी' (Navigating the Alpha Century) थी।

 

वैश्विक रूप से प्रतिष्ठित कूटनीतिक संवाद कार्यक्रम रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित अफगानिस्तान, न्यूजीलैंड, कनाडा, स्वीडन, डेनमार्क, भूटान और दक्षिण कोरिया के पूर्व राष्ट्र प्रमुख ने विश्व की मौजूदा चुनौतियों पर विचार साझा किये।

 

इस वर्ष रूस, ईरान, डेनमार्क, हंगरी, मालदीव, दक्षिण अफ्रीका और एस्टोनिया सहित 12 देशों के विदेश मंत्रियों ने इसमें हिस्सा लिया जो वैश्विक कूटनीति पटल पर भारत की बढ़ती साख को प्रदर्शित करता है। इसके अतिरिक्त शंघाई सहयोग संगठन और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव भी इस सम्मेलन में शामिल हुए। इस सम्मेलन में वैश्वीकरण से जुड़ी चुनौतियों, एजेंडा 2030, आधुनिक विश्व में प्रौद्योगिकी की भूमिका, जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद का मुकाबला जैसे मुद्दे प्रमुख रहे।

 

रायसीना डायलॉग

रायसीना डायलॉग की शुरुआत वर्ष 2016 में की गई थी जिसका मुख्य उद्देश्य एशियाई एकीकरण के साथ-साथ शेष विश्व के साथ एशिया के बेहतर समन्वय संभावनाओं एवं अवसरों की तलाश करना है।

यह भू-राजनीतिक एवं भू-आर्थिक मुद्दों पर चर्चा करने हेतु एक वार्षिक सम्मेलन है जिसका आयोजन भारत के विदेश मंत्रालय

और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (Observer Research Foundation- ORF) द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। 

रायसीना डायलॉग एक बहुपक्षीय सम्मेलन है जो वैश्विक समुदाय के सामने आने वाले चुनौतीपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने के लिये प्रतिबद्ध है। 

भारत के विदेश मंत्रालय का मुख्यालय रायसीना पहाड़ी (साउथ ब्लॉक),नई दिल्ली में स्थित है, इसलिये इसे रायसीना डायलॉग के नाम से जाना जाता है।

इस सम्मेलन के दौरान इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर एक विशेष सत्र आयोजित किया गया जिसमें 'क्वाड समूह (Quad Group)' ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन्य या नौसैन्य प्रमुखों के अतिरिक्त फ्रांस के रक्षा अधिकारी भी शामिल हुए।

 

यातना के विरुद्ध यू.एन. कन्वेंशन

चर्चा में क्यों?

दिसंबर 2019 में मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह ने यातना एवं अन्य क्रूर अमानवीय एवं अपमानजनक व्यवहार या सज़ा के विरुद्ध यू.एन. कन्वेंशन' (Convention against Torture and Other Cruel, Inhuman or Degrading Treatment or Punishment) के अनुच्छेद-22 से संबंधित घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये।

प्रमुख बिंदु

इस 'यात्रा के विरुद्ध कन्वेंशन' (Convention Against Torture CAT) के नाम से भी जाना जाता है।

 

इस घोषणा-पत्र के अनुसार, मालदीव सरकार अत्याचार से प्रभावित व्यक्तियों की शिकायतें प्राप्त करने हेतु गठित समिति की दक्षता संबंधी पहचान करेगी परंतु यह केवल उन्हीं मामलों में संभव हो सकेगा जब यात्रा से पीड़ित का मामला मालदीव के अधिकार क्षेत्र में आता हो। मालदीव के राष्ट्रपति ने नवंबर 2018 में यात्रा के विरुद्ध बनी समिति की प्रारंभिक रिपोर्ट की सिफारिशों के आधार पर इस पर हस्ताक्षर किये। यह कन्वेंशन 9 दिसंबर, 1975 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 'यातना  के विरुद्ध यू.एन. कन्वेंशन (CAT) एवं अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सज़ा से सभी व्यक्तियों के संरक्षण' विषय पर विचार-विमर्श का परिणाम था। इसे 10 दिसंबर, 1984 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव द्वारा स्वीकार किया गया।

 

यह कन्वेंशन 26 जून, 1987 को प्रभाव में आया था एवं 169 देश इसके पक्षकार (Parties) हैं। यह कन्वेंशन राज्यों को अपने क्षेत्राधिकार के अंदर किसी भी क्षेत्र

 

में यातना को रोकने के लिये प्रभावी उपाय सुनिश्चित करने पर बल देता है। साथ ही ऐसे लोगों का किसी भी देश में आवागमन प्रतिबंधित करता है जिनसे समस्या उत्पन्न होने की आशंका हो।

 

कन्वेंशन यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि विभिन्न देश ऐसी संस्थागत प्रक्रियाओं को स्थापित करें जिससे यातना संबंधी कार्यवाहियों पर रोक लगाई जा सके। इस कन्वेंशन के प्रत्येक साझीदार देश से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निम्नलिखित कदम उठाए-

यातना को रोकने के लिये कानूनी, प्रशासनिक, न्यायिक या अन्य उपाय करना।

यातना को एक दंडनीय अपराध के रूप में सुनिश्चित करना। विशेषतः इस कन्वेंशन के अनुच्छेद-55 में मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रता के प्रति सार्वभौमिक सम्मान बढ़ाने की बात की गई है।

 

अनुच्छेद-22

 

इस अनुच्छेद के अनुसार, कन्वेंशन के पक्षकार देश यातना से प्रभावित व्यक्तियों की शिकायतें प्राप्त करने के लिये गठित समिति की दक्षता की पहचान हेतु घोषणा कर सकते हैं परंतु यह केवल तभी संभव हो सकेगा जब यातना पीड़ित का मामला उस पक्षकार देश के अधिकार क्षेत्र में आता हो। यदि किसी पक्षकार राज्य द्वारा इस संदर्भ में ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई है, तो समिति द्वारा इस संबंध में कोई मामला स्वीकार नहीं किया जाएगा।

भारत की स्थिति भारत ने 14 अक्तूबर, 1997 को यू.एन. कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किये थे। भारत द्वारा अभी तक यातना विरोधी कानून नहीं बनाए जाने के कारण इस कन्वेंशन की पुष्टि (Ratification) नहीं की जा सकी है। गौरतलब है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 330 एवं धारा 331 में संशोधन द्वारा 'यातना' को 'अपराध' के रूप में शामिल करने संबंधी प्रस्ताव की समीक्षा हेतु बी.एस. चौहान की अध्यक्षता में विधि आयोग का गठन किया गया था।

विधि आयोग द्वारा यात्रा के विरुद्ध यू.एन. कन्वेंशन के क्रियान्वयन संबंधी रिपोर्ट विधि मंत्रालय को सौंपी गई एवं 'यातना निवारण बिल, 2017' का मसौदा (Draft) भी तैयार किया गया।

 

यू.एन. कन्वेंशन की विभिन्न शर्तों को पूरा करने हेतु विधि आयोग द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में संशोधन का सुझाव दिया गया ताकि मुआवज़े और साक्ष्य संबंधी प्रावधानों को इसके अनुरूप बनाया जा सके। इसके द्वारा भारतीय दंड संहिता में दिये गए जुर्माने के भुगतान के अलावा मुआवजे के भुगतान को शामिल करने के लिये आईपीसी की धारा 357B में संशोधन की सिफारिश की गई। साथ ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम में एक नई धारा 114B जोड़े जाने की बात भी कही गई।

भारत को विदेशों से अपराधियों के प्रत्यर्पण में समस्याओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि यू.एन. कन्वेंशन किसी ऐसे देश में प्रत्यर्पण पर प्रतिबंध लगाता है जहाँ यातना दिये जाने का खतरा है। इस संबंध में विधि आयोग द्वारा सुझाव दिया गया था कि भारत द्वारा इस कन्वेंशन की पुष्टि कर मसले को हल किया जाना चाहिये।

 

यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन

 

चर्चा में क्यों?

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 'यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन' (Universal Postal Union-UPU) के संविधान में 10वें अतिरिक्त प्रोटोकॉल को शामिल किये जाने की पुष्टि की गई।

प्रमुख बिंदु

इस प्रोटोकॉल को 3-7 सितंबर, 2018 तक अदीस अबाबा (इथियोपिया की राजधानी) में आयोजित UPU कांग्रेस की विशेष बैठक में अंगीकार किया गया था।

 

केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा UPU के संविधान में दसवें अतिरिक्त प्रोटोकॉल को शामिल किये जाने की पुष्टि से भारत भी सदस्य देश के रूप में UPU के संविधान के 25वें अनुच्छेद की बाध्यताओं को पूरा कर सकेगा। इसके साथ ही डाक विभाग UPU की संधियों के प्रावधानों को भारत में सकेगा। लोगो करने के लिये कोई भी प्रशासनिक आदेश जारी कर सकेगा

 

यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन

 

इसका गठन वर्ष 1874 में किया गया था और इसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के बर्न में स्थित है। वर्तमान में इसके सदस्य देशों की संख्या 192 है।

 

D UPU दुनिया का दूसरा सबसे पुराना अंतर्राष्ट्रीय संगठन है। ध्यातव्य है कि पहला और सबसे पुराना अंतर्राष्ट्रीय संगठन अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (International Telecommunication Union-ITU) है जिसकी स्थापना वर्ष 1865 में की गई थी।  

UPU अंतर्राष्ट्रीय डाकों के आदान-प्रदान को विनियमित करता है और अंतर्राष्ट्रीय डाक सेवाओं के लिये दरों को तय करता है।

 

 UPU की चार इकाइयाँ हैं- कांग्रेस, प्रशासन परिषद, अंतर्राष्ट्रीय ब्यूरो, डाक संचालन परिषद।

अंतर्राष्ट्रीय ब्यूरो के नियमों के तहत जब कोई देश किसी देश के साथ विनिमय को निलंबित करने का फैसला करता तो उसे दूसरे देश (जैसे भारत) को इस बारे में सूचित करना चाहिये, साथ ही यदि संभव हो तो जिस अवधि के लिये सेवाएँ रोकी जा रही हैं उसका भी विवरण दिया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त सभी सूचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय ब्यूरो के साथ भी साझा की जानी चाहिये।

उल्लेखनीय है कि हाल ही में पाकिस्तान ने यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन के नियमों के विपरीत जाकर भारत से आदान-प्रदान होने वाली डाक सेवा (Postal Exchange) को भारत को सूचित किये बगैर बंद कर दिया था। जबकि भारत और पाकिस्तान के बीच संपन्न तीन द्विपक्षीय समझौतों के अनुसार भी पाकिस्तान द्वारा निलंबन की पूर्व सूचना भारत को दी जानी चाहिये थी।

 

चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा चर्चा में क्यों?

 

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग 17-18 जनवरी, 2020 को चीन और म्यांमार के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना की 70वीं वर्षगाँठ मनाने के लिये म्यांमार की दो-दिवसीय यात्रा पर थे।

 

महत्त्वपूर्ण बिंदु

 

चीन और म्यांमार के राजनयिक संबंधों की 70वीं वर्षगाँठ पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा म्यांमार में अवरुद्ध चीनी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं को पुनः शुरू करने, बीजिंग को नैपी दो (Naypyidaw) के सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक भागीदार के रूप में समेकित करने और दोनों देशों के बीच विशेष ऐतिहासिक संबंधों को फिर से जीवंत करने की दिशा में कदम बढ़ाए गए।

 

राष्ट्रपति शी जिनपिंग की म्यांमार यात्रा में एक ऐसे क्षेत्र, जिसे कभी चीन का 'बैक डोर' कहा जाता था, को चीन-म्यांमार आर्थिक (China-Myanmar Economic Corridor-CPEC) अंतर्गत विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से राजमार्ग में बदलने की घोषणा की बात कही गई थी, साथ ही CMEC को चीन के महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के एक महत्त्वपूर्ण भाग के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। हालाँकि, आर्थिक जुड़ाव के मामले में दोनों देशों के बीच मतभेद है। गौरतलब है कि म्यांमार में राजनीतिक आरक्षण (Political Reservation) के कारण हाल के वर्षों में कई परियोजनाएँ ठप हो गई हैं। शी जिनपिंग की इस यात्रा से चीन के दक्षिणी-पश्चिमी प्रांत युन्नान (Yunnan) और पूर्वी हिंद महासागर के बीच संपर्क हेतु व्यवस्था सुनिश्चित होगी।

 

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC), जो कि बीजिंग के सुदूर पश्चिमी प्रांत शिनजियांग (Xinjiang) से अरब सागर में कराची और ग्वादर को जोड़ता है, की तरह CMEC से भी बंगाल की खाड़ी में नए कूटनीतिक आयामों की शुरुआत हो सकती है। चीन-नेपाल आर्थिक गलियारे (China-Nepal Economic Corridor CNEC) का अनावरण पिछले साल अपनी नेपाल यात्रा के दौरान शी जिनपिंग द्वारा किया गया था ध्यातव्य है कि यह गलियारा तिब्बत को नेपाल से जोड़ता है और गंगा के मैदान में चीन की उपस्थिति को दर्ज करता है। एक साथ तीन गलियारे चीन के आर्थिक उदय और उपमहाद्वीप में उसके प्रभाव को रेखांकित करते हैं।

म्यांमार में लंबित चीनी परियोजनाएँ विचाराधीन प्रमुख अवसंरचना परियोजनाओं में एक विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zone-SEZ) का विकास और क्यों क्यों (Kyaukpyu) में एक गहरे समुद्री बंदरगाह (Deep Sea Port) का विकास तथा चीन की सीमा से मध्य म्यांमार में मांडले तक एक रेलवे लाइन का निर्माण किया जाना शामिल है। उपर्युक्त रेलवे की शाखा का विस्तार म्यांमार के समुद्री तट पर स्थित क्यौकप्यु और दक्षिणी म्यांमार के यांगून तक होगा। क्यौकप्यु के लिये रेलवे लाइन जुड़वा पाइपलाइन प्रणाली (Twin Pipeline System) के साथ सरेखित होगी ध्यातव्य है कि यह पाइपलाइन कुछ वर्षों से यूनान की राजधानी कुनमिंग में तेल और प्राकृतिक, गैस का परिवहन कर रही है। 

कैलिफोर्निया उपभोक्ता गोपनीयता अधिनियम

 

चर्चा में क्यों?

कैलिफोर्निया (यूएसए) में कैलिफोर्निया उपभोक्ता गोपनीयता अधिनियम (California Consumer Privacy Act-CCPA) पारित किया गया जो कि इस तरह का पहला गोपनीयता कानून है। महत्त्वपूर्ण बिंदु

 

यह कानून 1 जनवरी, 2020 से प्रभावी हुआ जो कैलिफोर्निया को कंपनियों द्वारा डेटा के उपयोग को नियंत्रित करने का अधिकार देता है।

इन नियंत्रणों के अंतर्गत डेटा तक पहुँचने का अधिकार, डेटा के हटा दिये जाने पर डेटा के बारे में पूछने का अधिकार और तीसरे पक्ष को इसकी बिक्री रोकने का अधिकार शामिल है। गौरतलब है कि इंटरनेट की वैश्विक प्रकृति के कारण यह परिवर्तन दुनिया भर के उपयोगकर्ताओं को प्रभावित करेगा। यह कानून उपभोक्ताओं को बड़ी कंपनियों से अपनी जानकारी पर

नियंत्रण वापस लेने का अधिकार देता है।

 

CCPA द्वारा प्रदत्त अधिकार

 

इस कानून के अंतर्गत उपयोगकर्ताओं को यह जानने का अधिकार दिया जाता है कि कंपनियाँ की कौन-सी व्यक्तिगत जानकारियाँ एकत्र करती हैं। गौरतलब है कि व्यक्तिगत जानकारी किसी भी ऐसी जानकारी को संदर्भित करती है जिसे उपयोगकर्ता से जोड़ा जा सकता है। उपभोक्ता अनुरोध द्वारा यह जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि कंपनियाँ उनके बारे में क्या निष्कर्ष निकालती हैं। किसी तीसरे पक्ष को दी गई या बेची जा रही उनकी व्यक्तिगत जानकारी के बारे में उन्हें विवरण प्राप्त करने का अधिकार है। उपभोक्ता कंपनियों से अपना व्यक्तिगत डेटा डिलीट करने को कह सकता है तथा अपने डेटा को किसी तीसरे पक्ष को बेचने से मना कर सकता है।

इस कानून में कुछ अपवाद भी हैं, जैसे- लेन-देन को पूरा करने के लिये आवश्यक जानकारी प्राप्त करना, सेवा प्रदान करने हेतु आवश्यक जानकारी प्राप्त करना, उपभोक्ता संरक्षण हेतु जानकारी प्राप्त करना और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की रक्षा हेतु जानकारी प्राप्त करना। 

मुफ्त में एकत्र की गई व्यक्तिगत जानकारी की एक प्रति उपभोक्ता प्राप्त कर सकते हैं तथा 13 वर्ष से कम आयु के बच्चों की जानकारी तीसरे पक्ष को बेचने के लिये कंपनियों को बच्चे के माता-पिता की अनुमति लेना अनिवार्य है।

 

कानून का अधिकार क्षेत्र

 

यह कानून केवल 25 मिलियन डॉलर से अधिक के सकल वार्षिक राजस्व वाले व्यवसायों पर लागू होता है।

 

जो कंपनियाँ उपभोक्ताओं की व्यक्तिगत जानकारी को बेचकर अपने वार्षिक राजस्व का आधे से अधिक भाग प्राप्त करते हैं, उन पर भी यह कानून लागू होगा।

 

यह कानून सिर्फ राज्य में काम करने वाली कंपनियों पर ही लागू नहीं होगा बल्कि कैलिफोर्निया के निवासियों की जानकारी एकत्र करने वाली सभी कंपनियों पर लागू होगा।

 

संभावित परिवर्तन

 

ऐसी वेबसाइट्स, जो निगरानी करने वाली थर्ड पार्टी के साथ जुड़ी हुई हैं, उन्हें उपभोक्ताओं के लिये 'मेरी व्यक्तिगत जानकारी मत (Do Not Sell My Personal Information) en a अपनाना होगा।

 

कई बड़ी कंपनियों ने इसके अनुपालन के लिये नई बुनियादी सुविधाओं की स्थापना की है

. Google ने Google Analytics को डेटा एकत्र करने से रोकने के लिये Chrome Extension लॉन्च किया। * Facebook के अनुसार, यह कानून उस पर लागू नहीं होता है क्योंकि उसके द्वारा डेटा की बिक्री नहीं की जाती और उसके पास पहले से ही ऐसी विशेषताएँ हैं जो कानून का पालन करती हैं (एक ऐसा उपकरण जो उपयोगकर्ताओं को उनकी जानकारी तक पहुँचने और उसे हटाने की अनुमति देता है)।

 

कैलिफोर्निया से इतर कानून की प्रभावशीलता

 

उन भारतीय कंपनियों, जिनके ग्राहक कैलिफोर्निया में हैं, को भी इस कानून का पालन करना पड़ेगा।

 

ध्यातव्य है कि कंपनियों के लिये ग्राहक बुलाने से ज्यादा आसान इस कानून का पालन करना है। माइक्रोसॉफ्ट और महिला अपने ग्राहकों हेतु कानून के अनुसार परिवर्तन करने के लिये तैयार हैं। गौरतलब है कि यूरोपीय संघ के जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (General Data Protection Regulation-GDPR) यूरोपियन यूनियन को ही नहीं बल्कि पूरी यूरोपीय अर्थव्यवस्था को बदल दिया है।

कैलिफोर्निया का यह कानून विश्व के लिये एक नवाचार की भांति है, जो अन्य राज्यों और देशों को समान नियमों को अपनाने के लिये प्रेरित करेगा।

 

तुलनात्मक तथ्य

 

कैलिफोर्निया उपभोक्ता गोपनीयता अधिनियम एवं भारत के प्रस्तावित डेटा संरक्षण विधेयक के मध्य तुलना कैलिफोर्निया उपभोक्ता गोपनीयता अधिनियम में डेटा की एक कॉपी एक्सेस करने का अधिकार और डिलीट करने का अधिकार भारत के व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक में भी है। भारत के इस विधेयक में सुधार का अधिकार (Right to Corection) सहित कुछ अन्य बिंदु भी समाहित हैं। भारत का प्रस्ताव डेटा संरक्षण कानून डेटा के एकत्रीकरण से संबंधित उपभोक्ता अधिकारों पर बल देता है, जबकि कैलिफोर्निया का कानून डेटा के तीसरे पक्ष से साझा किये जाने या बेचे जाने से संबंधित उपभोक्ता अधिकारों पर ध्यान देता है।

 

रक्षा शक्ति

 

चर्चा में क्यों?

ईरानी कुद्स फोर्स के प्रमुख और ईरानी सेना के शीर्ष अधिकारी मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या के बाद जवाबी कार्यवाही में ईरान सरकार द्वारा तेहरान में स्थित स्विट्जरलैंड के दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन किया गया।

रक्षा शक्ति

 रक्षा शक्ति यानी ऐसा देश जो किसी अन्य देश में उस संप्रभु राज्य का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ उसके (अन्य संप्रभु राज्य) स्वयं के राजनयिक प्रतिनिधित्व का अभाव होता है। ईरान में अमेरिका का स्वयं का दूतावास नहीं है, अतः ऐसी स्थिति में स्विट्जरलैंड ईरान में अमेरिका के हितों का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी और, संयुक्त राज्य अमेरिका में ईरान के हितों का संचालन वाशिंगटन स्थित पाकिस्तानी दूतावास द्वारा किया जाता है। इस तरह की व्यवस्था के तहत ईरान में अमेरिका के हितों के संरक्षण के लिये स्विट्जरलैंड एक रक्षा शक्ति है।

 

अन्य तथ्य

 

कूटनीतिक संबंधों पर रक्षा शक्ति की अवधारणा को वर्ष 1961 और वर्ष 1963 में आयोजित वियना कन्वेंशन (अभिसमय) में प्रस्तुत किया गया था।

 

वियना कन्वेंशन के प्रावधानों के अनुसार, यदि दो राज्यों के बीच राजनयिक संबंध टूट जाते हैं, या कोई मिशन स्थायी या अस्थायी रूप से वापस बुला लिया जाता है तो उसे भेजने वाला राज्य (अमेरिका के संदर्भ में) अपने हितों और अपने नागरिकों के संरक्षण को एक तीसरे राज्य (स्विट्ज़रलैंड के संदर्भ में) को सौंप सकता है, दोनों राज्यों को स्वीकार्य होगा।

वर्ष 1961 और 1963 के वियना कन्वेंशन के अनुसार, स्विस विदेश मंत्रालय अपनी वेबसाइट के माध्यम से यह भूमिका निभाता है। ईरान के इस्लामिक गणराज्य के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका के राजनयिक और कॉन्सुलर संबंधों की अनुपस्थिति में स्विस सरकार तेहरान में अपने दूतावास के माध्यम से अमेरिकी दूतावास से संबंधित रक्षा कार्य एवं अन्य कार्यों को करती है।

 

स्विट्ज़रलैंड द्वारा कई क्षेत्रों में ऐतिहासिक रूप से विभिन्न देशों का प्रतिनिधित्व किया गया है, विशेष तौर से उन क्षेत्रों में जहाँ किसी देश का कोई राजनयिक मिशन नहीं है। स्विस सरकार 21 मई, 1980 से तेहरान में अपने दूतावास के माध्यम से संयुक्त राज्य अमेरिका की रक्षा शक्ति के रूप में कार्य कर रही है। स्विस दूतावास का विदेशी निवेश अनुभाग अमेरिकी नागरिकों को

 

ईरान में रहने या यात्रा करने के लिये कॉन्सुलर सेवाएं प्रदान करता है । 

 

नेपाली भाषा 'सेके'

 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नेपाल की 'सेके' (Seke) भाषा विश्व भर में चर्चा का विषय बनी रही। लुप्तप्राय भाषाओं पर काम करने वाली संस्था एंडेंजर्ड लैंग्वेज अलायंस (Endangered Language Alliance-ELA) के अनुसार, वर्तमान में 'सेके' भाषी लोगों की संख्या विश्व में मात्र 700 ही रह गई है। सेके भाषा सेक का अर्थ 'सुनहरी भाषा' (Golden Language) है। यह नेपाल में बोली जाने वाली 100 जनजातीय भाषाओं में से एक है।

 

'सेके' भाषा को संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक a United Nations Educational Scientific and Cultural Organization-UNESCO) की निश्चित रूपेण संकटग्रस्त (Definitely Endangered) भाषाओं की सूची में रखा गया है।

 

यह भाषा मुख्यतः नेपाल के ऊपरी मुस्तांग जिला के पाँच गाँवों चुकसंग, सैले, ग्याकर, तांबे और तेतांग में बोली जाती है। जलवायु परिवर्तन के कारण सेब की कृषि गंभीर रूप से प्रभावित होने से अधिकांश के भाषी लोगों को इस क्षेत्र से पलायन करने पर विवश होना पड़ा। व्यवसायों और सरकारी नौकरियों में नेपाली (नेपाल की राष्ट्रीय भाषा) भाषा के प्रभुत्व और 'सेके' भाषा के लिये अवसरों की कमी इस भाषा के विलुप्त होने का प्रमुख कारण है।

 

यूनेस्को द्वारा परिभाषित लुप्तप्राय भाषाओं की 6 श्रेणियाँ

 

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन-यूनेस्को (United Nations Educational Scientific and Cultural Organization UNESCO) ने भाषाओं को उनके बोलने-समझने वाले लोगों की संख्या के आधार पर 6 श्रेणियों में विभाजित किया है

सुरक्षित (Safe): वे भाषाएँ जो सभी पीढ़ियों (Generations) के लोग बोलते हैं तथा उन्हें एक-दूसरे से संवाद में कोई कठिनाई नहीं होती है। 

सुभेद्य (Vulnerable): वे भाषाएँ जो नई पीढ़ी (बच्चों) द्वारा बोली

 

जाती है परंतु वे कुछ क्षेत्रों/परिस्थितियों तक सीमित होती हैं। निश्चित रूप से संकटग्रस्त (Definitely Endangered): वे भाषाएँ जिन्हें बच्चे मातृभाषा के रूप में नहीं सीखते। 

गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Severely Endangered): वे भाषाएँ जो बुजुर्ग पीढ़ी (दादा-दादी) द्वारा बोली जाती हैं और जिन्हें उनके बच्चे समझते हैं लेकिन अगली पीढ़ी से उस भाषा में बात नहीं करते। 

अत्यंत संकटग्रस्त (Critically Endangered): वे भाषाएँ जिन्हें केवल बुजुर्ग पीढ़ी के लोग समझते हैं और इनका प्रयोग भी बहुत ही कम अवसरों पर किया जाता है।

 

विलुप्त भाषाएँ (Extinct Languages): वे भाषाएँ जिन्हें अब कोई भी बोलता-समझता न हो। |

 

यूनेस्को के अनुसार, विश्व में अनुमानित 6000 भाषाओं में से मात्र 57% भाषाओं को सुरक्षित (Safe) की श्रेणी में रखा जा सकता है

जबकि 10% भाषाएँ सुभेद्य (Vulnerable), 10.7% संकटग्रस्त (Definitely Endangered), लगभग 9% गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Severely Endangered), 9.6 अत्यंत संकटग्रस्त (Critically Endangered) तथा लगभग 3.8% भाषाएँ विलुप्त (Extinct) हो चुकी हैं।

 

Endangered Languages Project (ELP)  इस परियोजना की शुरुआत विभिन्न देशों के भाषाविदों और भाषा संस्थानों के सहयोग से वर्ष 2012 में की गई थी।

 

- इसका प्रमुख उद्देश्य लुप्तप्राय भाषाओं से संबंधित जानकारी काआदान-प्रदान और उनका संरक्षण करना है।

गूगल और ईस्टर्न मिशिगन यूनिवर्सिटी (Eastern Michigan University) जैसी संस्थाएँ इस परियोजना की संस्थापक सदस्य हैं

 ELP के आँकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 201 भाषाएँ विलुप्त होने की कगार पर हैं, जबकि नेपाल में ऐसी भाषाओं की संख्या 71 बताई गई है।

 


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