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INVIRONMENT CURREENT TOPICS 2020

INVIRONMENT CURREENT TOPICS 2020


दक्षिण अटलांटिक विसंगति

 

चर्चा में क्यों?

 

'यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी' (ESA) के 'स्वॉर्म' (Swarm) उपग्रहों द्वारा प्राप्त आँकड़ों के अध्ययन से दक्षिण अटलांटिक क्षेत्र के ऊपर 'चुंबकीय विसंगति' का पता चला है। इस 'दक्षिण अटलांटिक विसंगति' (SAA) का विस्तार दक्षिण अमेरिका से दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका तक है।

 

दक्षिण अटलांटिक विसंगति के बारे में

 

SAA अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के मध्य पृथ्वी के भू-चुंबकीय क्षेत्र के व्यवहार को संदर्भित करता है।

 

यह पृथ्वी के निकटस्थ उस क्षेत्र को इंगित करता है जहाँ पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र सामान्य चुंबकीय क्षेत्र की तुलना में कमजोर पाया गया है। SAA एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पृथ्वी की वान एलन रेडिएशन बेल्ट पृथ्वी की सतह के 200 किलोमीटर की ऊँचाई तक नज़दीक आ जाती है। वान एलन रेडिएशन बेल्ट ब्राजील के तट के पास रेडियोधर्मी कणों को पृथ्वी चुंबकीय क्षेत्र में पकड़ कर रखने के लिये ज़िम्मेदार है।

 

इस क्षेत्र में ऊर्जावान कणों का प्रवाह बढ़ने के कारण परिक्रमा कर रहे उपग्रहों को विकिरण के सामान्य से अधिक स्तर तक का सामना करना पड़ता है।

 

यह प्रभाव पृथ्वी के चुंबकीय द्विध्रुव के कारण होता है।

 

वान एलन रेडिएशन बेल्ट

 

किसी भी ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र के कारण ग्रह चारों तरफ आवेशित एवं ऊर्जावान कणों की एक 'रेडिएशन बेल्ट' पाई जाती है।

 

'वान एलन रेडिएशन बेल्ट' पृथ्वी के चारों ओर विकिरण बेल्ट को संदर्भित करती है।

 

रेडिएशन बेल्ट के मुख्य घटकों का निर्माण सौर पवन तथा कॉस्मिक विकिरणों से होता है। पृथ्वी के दो रेडिएशन बेल्ट हैं- एक 'आंतरिक वान एलन रेडिएशन बेल्ट' और दूसरा 'बाहरी रेडिएशन बेल्ट'

 

आंतरिक रेडिएशन बेल्ट पृथ्वी की सतह से 1000 किमी. से 6000 किमी. की ऊँचाई तक विस्तृत है। आंतरिक बेल्ट में प्रोटॉन तथा इलेक्ट्रॉनों का संयोजन होता है।

 

बाह्य रेडिएशन बेल्ट पृथ्वी सतह से 15,000 किमी. से 25,000 किमी. तक विस्तृत है। बाह्य विकिरण बेल्ट में मुख्यतः ऊर्जावान तथा आवेशित इलेक्ट्रॉन पाए जाते हैं

 

भारत में उष्णकटिबंधीय चक्रवात

 

चर्चा में क्यों?

 

मई और जून माह में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अम्फान तथा महाराष्ट्र और गुजरात में निसर्ग ने तटीय क्षेत्रों को व्यापक रूप से प्रभावित किया। निसर्ग चक्रवात का निर्माण दक्षिण-पूर्व और पूर्व-मध्य अरब सागर और लक्षद्वीप के कम दबाव वाले क्षेत्र में हुआ।

 

उष्णकटिबंधीय चक्रवात के बारे में

 

उष्णकटिबंधीय चक्रवात उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वायुदाब वाले अनुसरण परिसंचरण तंत्र होते हैं जिनका व्यास  

सामान्य रूप से 80 से 300 किलोमीटर तक होता है। ये चक्रवात साधारण से प्रचंड गति में आगे बढ़ते हैं। क्षीण चक्रवात 32 किलोमीटर प्रति घंटे तथा हरिकेन 120 किलोमीटर प्रति घंटे से भी अधिक तेज़ चलते हैं। सागरों के ऊपर की गति अधिक तीव्र होती है, जबकि स्थलों पर पहुँचते-पहुँचते ये क्षीण हो जाते हैं। इसी कारण ये केवल महाद्वीपों के तटीय भागों को ही अधिक प्रभावित कर पाते हैं। चक्रवातों के केंद्र में वायुदाब बहुत कम होता है। केंद्र से बाहर की ओर वायुदाब में तीव्रता से वृद्धि होने के कारण हवाएँ तेज़ी से केंद्र की ओर झपटती हैं और तूफानी गति धारण कर लेती हैं।

 

उष्णकटिबंधीय चक्रवात साधारण तौर पर व्यापारिक पवनों के साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में अग्रसर होते हैं।

 

निर्माण के लिये अनुकूल दशाएँ

० उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति विषुवत रेखा के दोनों ओर महासागरों के ऊपर होती हैं। इन चक्रवातों के निर्माण के लिये समुद्री सतह का तापमान सामान्यतः 26-27°C होना आवश्यक है। वायुमंडल में लगभग 5000 मीटर की ऊँचाई तक उच्च सापेक्षिक आर्द्रता के साथ-साथ वायुमंडलीय स्थिरता विद्यमान होनी चाहिये, जिससे ऊर्ध्वाधर कपासी वर्षा मेघ का निर्माण हो सके। भूमध्य रेखा पर कोरिओलिस बल शून्य होने के कारण भूमध्य रेखा पर चक्रवातों का निर्माण नहीं होता है। अक्षांश पर कोरिओलिस बल चक्रवात निर्माण के लिये पर्याप्त एवं महत्त्वपूर्ण है। लगभग 65 प्रतिशत चक्रवाती गतिविधियाँ 10° और 20° अक्षांश के बीच होती है।

 

बंगाल की खाड़ी में चक्रवातों की अधिक आवृत्ति

 

अरब सागर की समुद्री सतह का तापमान अपेक्षाकृत कम है, जो चक्रवातों के निर्माण और तीव्रता के लिये अनुकूल स्थिति नहीं है।

 

बंगाल की खाड़ी न केवल बंगाल की खाड़ी और आस-पास के क्षेत्रों से, बल्कि प्रशांत महासागर से भी चक्रवात प्राप्त करती है। प्रशांत महासागर में चक्रवातों की आवृत्ति काफी अधिक है। एक बड़े भू-स्थल का सामना करने के पश्चात् चक्रवात कमज़ोर से हो जाते हैं, इसलिये बंगाल की खाड़ी से चक्रवात अरब सागर की ओर नहीं जा पाते हैं।

 

दूसरी ओर अरब सागर में केवल वही चक्रवात आते हैं. जो स्थानीय रूप से उत्पन्न होते हैं।

 

अरब सागर में चक्रवात

 

वर्ष 2019 में कुल आठ चक्रवातों में से पाँच का निर्माण अरब सागर में हुआ। इस दृष्टि से यह असामान्य वर्ष था, क्योंकि सामान्य रूप से अरब सागर में प्रतिवर्ष एक या दो चक्रवात ही बनते हैं। वर्ष 2019 में अरब सागर में उत्पन्न होने वाले ये पाँच चक्रवात वायु, हिक्का, क्यार, महा और पवन थे। 2 इसके विपरीत बंगाल की खाड़ी में वर्ष 2019 के दौरान केवल तीन चक्रवातों- पाबुक, फानी और बुलबुल का निर्माण हुआ। IPCC की रिपोर्ट के अनुसार, अरब सागर में चक्रवातों की आवृति अरब सागर में मानसून के पश्चात् के चक्रवात देखे गए हैं, लेकिन निसर्ग जैसे मानसून-पूर्व चक्रवात अब तक दुर्लभ हैं।

 

 

आयनमंडल आधारित भूकंपीय निगरानी

 

चर्चा में क्यों?

 

भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के एक स्वायत्त अनुसंधान संस्थान 'भारतीय भू-चुम्बकत्व संस्थान' (IIG) के वैज्ञानिकों द्वारा आयनमंडल से भूकंपीय स्रोतों की विशेषताओं का पता लगाने के लिये अधिक तीव्रता वाले भूकंपों का अध्ययन किया गया है। यह शोध IIG के अंतर्विषयक कार्यक्रम 'कपल्ड लिथोस्फीयर एटमॉस्फीयर- आयनोस्फीयर- मैग्नेटोस्फीयर सिस्टम' (CLAIMS) का एक भाग है।

 

CLAIMS सह-भूकंपीय आयनमंडल व्यवस्था/कंपन (Co-seismic ionospheric Perturbations-CIP), भूकंप के अधिकेंद्र के आस-पास भूमि विरूपण प्रतिरूप को अच्छी तरह से प्रतिबिंबित कर सकता है। CLAIMS के माध्यम से इसका अध्ययन किया जाता है। CIP का निर्धारण ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (Global Positioning System-GPS) द्वारा मापी कुल इलेक्ट्रॉन सामग्री (Total Electron Content-TEC) का उपयोग करके किया गया। TEC एक रेडियो ट्रांसमीटर तथा रिसीवर के मार्ग के मध्य मौजूद इलेक्ट्रॉनों की कुल संख्या है।

 

IIG के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2012 में हिंद महासागर, वर्ष 2015 में नेपाल तथा वर्ष 2016 में ऑस्ट्रेलिया-प्रशांत क्षेत्र के भूकंप का आयन मंडल पर प्रभाव का अध्ययन किया है।

 

सह भूकंपीय आयनमंडल अव्यवस्था/कंपन (CIP)

 

सामान्यतः जब कोई भूकंप आता है तो भू-पर्पटी में उत्पन्न उभार तथा ऊर्ध्वाधर विस्थापन से मुक्त ऊर्जा के कारण ध्वनि तथा गुरुत्वाकर्षण तरंगें (Gravitational Waves) उत्पन्न होती हैं। ये तरंगें अपने अधिकेंद्र के ऊपर स्थित वायुमंडल के कम घनत्व वाले क्षेत्र में तेजी से फैलती हैं वायुमंडलीय ऊंचाई में वृद्धि के साथ इनके आयाम (Amplitude) में भी वृद्धि होती है। आयन मंडल में पहुँचकर ये तरंगें आयन मंडल इलेक्ट्रॉन घनत्व को पुनर्वितरित कर इलेक्ट्रॉन घनत्व व्यवस्था (Electron Density Perturbations-EDP) उत्पन्न करती हैं, जिसे सह भूकंपीय आयन मंडल अव्यवस्था/कंपन (CIP) के रूप में भी जाना जाता है। ध्वनि तरंगों की ऊर्ध्वगामी गति मुख्यतया वायुमंडल के घनत्व और रासायनिक संरचना के साथ-साथ वायुमंडलीय तापमान पर निर्भर करती है।

 

आयनमंडल

 

वायुमंडल संस्तरों में आयनमंडल 80 से 400 किलोमीटर के बीच स्थित है। इसमें विद्युत आवेशित कण पाए जाते हैं, जिन्हें आयन कहते हैं। - इस भाग में विस्मयकारी विद्युत और चुंबकीय घटनाएं घटित होती रहती हैं। पृथ्वी द्वारा भेजी गई रेडियो तरंगे इस संस्था द्वारा परावर्तित कर दी जाती हैं। यहाँ ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में वृद्धि होती है।

 इसी मंडल में उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश (Aurora Borealis) तथा दक्षिणी ध्रुवीय प्रकाश (Aurora Australis) के दर्शन होते हैं।

 

आयन मंडल तापमंडल का सबसे निचला भाग होता है।

 

भूकंपीय ध्वनि

 

चर्चा में क्यों?

 

ब्रिटिश जियोलॉजिकल सर्वे (British Geological Survey-BGS) के वैज्ञानिकों ने COVID-19 के कारण जारी लॉकडाउन के बीच पृथ्वी की भूकंपीय ध्वनि और कंपन में परिवर्तन की सूचना दी। ध्यातव्य है कि इससे पूर्व बेल्जियम के रॉयल ऑब्जर्वेटरी के भूकंपीय विशेषज्ञों ने भूकंपीय ध्वनि के स्तर में 30-50% की गिरावट दर्ज की थी।

 

भूकंपीय ध्वनि

 

भू-विज्ञान में भूकंपीय ध्वनि मानवीय गतिविधियों, जैसे-विनिर्माण और परिवहन के कारण उत्पन्न हुए सतह के लगातार कंपन को संदर्भित करती है। मानव गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाला यह कंपन ध्वनि वैज्ञानिकों के लिये महत्त्वपूर्ण भूकंपीय आँकड़ों अपेक्षाकृत मुश्किल बनाता है। 

 

भूकंपीय ध्वनि भूकंपीय यंत्र द्वारा दर्ज किये गए संकेतों का अवाहित घटक होती है। उल्लेखनीय है कि भूकंपीय यंत्र वह वैज्ञानिक उपकरण है जो भू-हलचल जैसे- भूकंप, ज्वालामुखी प्रस्फुटन और विस्फोट आदि को रिकॉर्ड करता है। भू-विज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों जैसे कि तेल अन्वेषण, जल-विज्ञान और भूकंप इंजीनियरिंग में भी भूकंपीय ध्वनि का अध्ययन किया जाता है।

 

भूकंपीय तरंगे

 

- भूकंप मूल से भूकंप प्रारंभ होने पर भूकंपीय तरंगें उठने लगती है। ये तरंगें सर्वप्रथम अधिकेंद्र पर पहुँचती है, जहाँ सिस्मोग्राफ पर इनका अंकन कर लिया जाता है।

 भूकंपीय कंपन के आधार पर भूकंपीय तरंगों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है

 

प्राथमिक या 'P' तरंगें

 

ध्वनि तरंगों के समान इन तरंगों में अणुओं में कंपन तरंगों की दिशा में आगे या पीछे होता है।

 

 अनुदैर्ध्य प्रकार की ये तरंगें गति में सबसे तीव्र होती हैं।

ये तरंगें पृथ्वी के प्रत्येक भाग में यात्रा करती हैं। इनकी गति सबसे अधिक होने के कारण धरातल पर सबसे पहले पहुँचती हैं।

 

अनुप्रस्थ 'S' तरंगें

 

 जल तरंगों अथवा प्रकाश तरंगों के समान इन लहरों में अणुओं की गति समकोण पर होती हैं।

 

इस प्रकार की तरंगें तरल पदार्थ से होकर नहीं गुजर सकतीं। यही वजह है कि ये तरंगें सागरीय भागों में पहुँचने पर लुप्त हो जाती हैं।

 

धरातलीय या 'L' तरंगें

 

धरातलीय तरंगें अन्य दो तरंगों की अपेक्षा कम वेगवान होती हैं।

 

इनका भ्रमण पथ पृथ्वी का धरातलीय भाग ही होता है। ये तरंगें अधिकेंद्र पर सबसे बाद में पहुँचती हैं।

 

 अधिक गहराई में पहुँचने पर धरातलीय तरंगें लुप्त हो जाती हैं। ये तरंगें जल से होकर भी गुजर सकती हैं।

 

तीनों विभिन्न तरंगों तथा उनकी विभिन्न गतियों द्वारा पृथ्वी की आंतरिक बनावट के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त होती है।

 

 

सौर चक्र

 

चर्चा में क्यों?

 

पिछले तीन सौर चक्रों में सौर कलंक की तीव्रता कम रही है, जिससे ऐसा अनुमान था कि एक लंबे सौर हास काल के साथ इस सौर चक्र की प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी। हालाँकि IISER की शोध टीम के अनुसार ऐसे संकेत हैं कि 25वाँ सौर चक्र हाल ही में प्रारंभ हुआ है।

 

माउंडर मिनिमम (Maunder Minimum)

 

जब न्यूनतम सौर कलंक सक्रियता की अवधि दीर्घकाल तक रहती है तो इसे माउंडर मिनिमम' कहते हैं।

 

वर्ष 1645-1715 के बीच की 'माउंडर मिनिमम' अवधि में सौर कलंक परिघटना में विराम देखा गया। यह अवधि तीव्र शीतकाल के साथ जोड़ा जाता है।

  

क्या है सौर चक्र?

 

सूर्य में विद्युत आवेशित गर्म गैस सोलर डायनेमो का प्रभाव उत्पन्न करते हुए शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र पैदा करती है। इसके कारण सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र एक चक्र से गुज़रता है, जिसे सौर चक्र कहा जाता है।

 

हर 11 साल बाद सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र पूरी तरह से पलट जाता है अर्थात् सूर्य के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव आपस में स्थान बदल लेते हैं। सौर चक्र सूर्य की सतह पर सौर कलंक को गतिविधि को प्रभावित करता है। इनका निर्माण सूर्य के चुंबकीय क्षेत्र के कारण होता है। चूँकि चुंबकीय क्षेत्र बदलते रहते हैं, इसलिये सूर्य की सतह पर सौर कलंक के निर्माण की गतिविधि तथा उनकी संख्या भी परिवर्तित होती रहती है। सौर चक्र को ट्रैक करने का एक तरीका सौर कलंकों की संख्याओं की गणना है। सौर चक्र के आरंभिक समय को सौलर मिनिमम कहा जाता है। इस समय सूर्य की सतह पर सौर कलंकों की संख्या सबसे कम होती है।

 

सौर चक्र के मध्य भाग को सौलर मैक्सिमम कहा जाता है। इस समय सूर्य की सतह पर सौर कलंकों की संख्या सबसे अधिक होती है। जैसे ही चक्र समाप्त होता है सौलर मिनिमम की स्थिति वापस आ जाती है और फिर एक नया चक्र प्रारंभ हो जाता है। सौर चक्र के दौरान सूर्य पर विशाल विस्फोटों (सौलर फ्लेयर्स और कोरोनल मास इजेक्शन) की मात्रा भी बढ़ जाती है। ये विस्फोट अंतरिक्ष में ऊर्जा और द्रव्य के शक्तिशाली विस्फोट मुक्त करते हैं।

 

सौर गतिकी (Solar Dynamo)

 

सूर्य में उच्च तापमान के कारण पदार्थ प्लाज्मा के रूप में उत्सर्जित होते हैं। इन गर्म प्लाज्मा पदार्थों की गति से प्लाज्मा में दोलन के कारण चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। 0 सौर डायनेमो की इस प्रकृति के कारण चुंबकीय क्षेत्र में भी परिवर्तन होता है तथा इस चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन के साथ सौर कलंकों की संख्या भी घटती-बढ़ती रहती है।

 

 

हिमालयी क्षेत्र और भू-जल

 

चर्चा में क्यों?

 

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के तहत एक स्वायत्त संस्था, भारतीय भू-चुम्बकत्व संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ जियोमैग्नेटिज्म) के शोधकर्ताओं ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि भू-जल में मौसमी बदलावों का प्रभाव हिमालय की ऊँचाई में कमी और उसके उत्थान पर पड़ता है। इसमें पहली बार भू-जल उपयोग और पर्वतों की स्थिति को जोड़कर देखा गया।

 

प्रमुख बिंदु

 

हिमालय की तलहटी और उत्तरी गंगा के मैदान के ढाल में कमी के लिये अब केवल भू-गर्भीय घटनाओं (भू-संचलन या महाद्वीपीय प्रवाह से जुड़ी विवर्तनिक गतिविधियों) को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि भू-जल की उपलब्धता भी इसे प्रभावित करती है।

 

अध्ययन के अनुसार जल एक लुब्रिकेटिंग एजेंट (Lubricating Agent) के रूप में कार्य करता है और इसलिये शुष्क मौसम में मलवा फिसलन की दर कम हो जाती है।

 

चूँकि हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु को प्रभावित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिये इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलेगी कि जल-विज्ञान किस प्रकार जलवायु को प्रभावित करता है।

 

यह अध्ययन वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं के लिये हिमालयी क्षेत्र की मौजूदा स्थिति से निपटने में मददगार साबित हो सकता है, जहाँ जल की उपलब्धता के बावजूद शहरी क्षेत्र पानी की कमी से जूझ रहे हैं।

 

शोधकर्त्ताओं ने ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) और ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) डेटा का एक साथ उपयोग किया, जिसके कारण शोधकर्ताओं के लिये हाइड्रोलॉजिकल द्रव्यमान की विविधता को निर्धारित करना संभव हो पाया है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार GPS और GRACE का संयुक्त डेटा हिमालय की उप-सतह में 12% की कमी होने का संकेत देता है।

 

ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE)

 

ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) नासा के दो उपग्रहों के लिये संदर्भित है, जो निम्न-पृथ्वी कक्षा में 2002 में लॉन्च किये गए थे।

 

गुरुत्वाकर्षण त्वरण के कारण उपग्रह अपने बीच की दूरी को मापने के लिये एक सटीक माइक्रोवेव रेंजिंग प्रणाली का उपयोग करते हैं।

 

GRACE पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में परिवर्तन को मापता है, जो सतह के द्रव्यमान में परिवर्तन से सीधे तौर पर संबंधित हैं।

 

प्रवाल भित्तियों का पुनर्स्थापन

 

चर्चा में क्यों?

 

भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण द्वारा गुजरात वन विभाग के साथ मिलकर कच्छ की खाड़ी में प्रवाल भित्तियों को बायोरॉक या खनिज अभिवृद्धि तकनीक (Biorock or Mineral Accretion Technology) का उपयोग करते हुए पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है।

 

प्रमुख बिंदु

 

कच्छ की खाड़ी में उच्च ज्वार की स्थितियों को देखते हुए गुजरात के मीठापुर तट से एक नॉटिकल मील की दूरी पर बायोरॉक संरचना स्थापित की गई है।

 

इससे पहले वर्ष 2015 में भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण ने गुजरात वन विभाग के साथ मिलकर एक्रोपोरिडे परिवार (एक्रोपोरा फॉर्मूला, एक्रोपोरा ह्यूमिलिस, मोंटीपोरा डिजिटाटा) से संबंधित केरल की प्रजातियों (स्टैग्नोर्न कोरल) को सफलतापूर्वक मन्नार की खाड़ी में

 

पुन्स्थापित किया था। बायोरॉक या खनिज अभिवृद्धि तकनीक 0 बायोरॉक, इस्पात संरचनाओं पर निर्मित समुद्री जल में विलेय खनिजों के विद्युत संचय से बनने वाला पदार्थ है। इन इस्पात संरचनाओं जो कि समुद्र की सतह पर तैरते रहते हैं, को के तल पर उतारा जाता है और सौर पैनलों की सहायता से इनको ऊर्जा प्रदान की जाती है। - यह प्रौद्योगिकी पानी में इलेक्ट्रोड के माध्यम से विद्युत प्रवाहित करने का काम करती है।

 

 जब एक धनावेशित एनोड और ऋणावेशित कैथोड को समुद्र के तल पर रखकर उनके बीच विद्युत प्रवाहित की जाती है तो कैल्शियम आयन और कार्बोनेट आयन आपस में संयोजन करते हैं जिससे कैल्शियम कार्बोनेट का निर्माण होता है, कोरल लार्वा कैल्शियम कार्बोनेट की उपस्थिति में तेजी से बढ़ते हैं। - वैज्ञानिकों के अनुसार, टूटे हुए केरल के टुकड़े बायोरॉक संरचना से बंधे होते हैं जहाँ वे अपनी वास्तविक वृद्धि की तुलना में कम-से-कम चार से छह गुना तेजी से बढ़ने में सक्षम होते हैं क्योंकि उन्हें स्वयं के कैल्शियम कार्बोनेट कंकाल के निर्माण में अपनी ऊर्जा खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती है।

 

प्रवाल भित्ति

 

प्रवाल, जिसे मूंगा या कोरल भी कहते हैं, एक प्रकार का समुद्री जीव है। इसके शरीर के बाहरी तंतुओं में एक प्रकार का पादप शैवाल रहता है, जिसे जूजेंथली कहते हैं। यह शैवाल प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से अपने आहार की पूर्ति करता है।

 

प्रवाल के विकास की आदर्श दशाएँ

 

प्रवाल मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में 25° उत्तरी से 250 दक्षिणी अक्षांशों के मध्य 20-21° तापमान वाली स्थितियों में पाया जाता है।

 

इसके लिये सूर्य का प्रकाश भी आवश्यक है, इसीलिये प्रवाल 200 250 फिट की गहराई के बाद मर जाते हैं। प्रवालों के लिये अवसाद रहित स्वच्छ जल होना चाहिये क्योंकि अवसादों की उपस्थिति में प्रवाल का मुंह बंद हो जाता है इसी

 

कारणों का विकास नदी के मुहाने पर नहीं होता। इनके विकास के लिये 27-300/00 लवणता अति उत्तम मानी जाती है।

 

भारत में प्रवाल भित्तियाँ

 

प्रवाल प्रजातियों को बाघों के समान ही वन्यजीव संरक्षण अधिनियम,

 

1972 की अनुसूची-I में शामिल कर संरक्षण प्रदान किया गया है।

 

 लक्षद्वीप जैसे क्षेत्रों में ये चक्रवातों के लिये अवरोधक का कार्य कर तटीय कटाव की रोकथाम में भी सहायता करते हैं। 9 भारत में चार प्रमुख प्रवाल भित्ति क्षेत्र हैं: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, मन्नार की खाड़ी और कच्छ की खाड़ी।

 

वलयाकार सूर्य ग्रहण

 

चर्चा में क्यों?

 

26 दिसंबर, 2019 को पृथ्वी के पूर्वी गोलार्द्ध में वलयाकार सूर्य ग्रहण की स्थिति देखी गई। भारत में यह सूर्य ग्रहण केरल, कर्नाटक तथा तमिलनाडु में देखा गया।

 

सूर्य ग्रहण

 

जब पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य चंद्रमा आ जाता है तो सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुंच पाता और पृथ्वी की सतह के कुछ हिस्से पर दिन में अँधेरा छा जाता है, इसी स्थिति को सूर्य ग्रहण कहते हैं। सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं- पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण तथा वलयाकार सूर्य ग्रहण।

 

पूर्ण सूर्य ग्रहण तब होता है जब पृथ्वी, सूर्य तथा चंद्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं जिसके कारण सूर्य पूरी तरह से ढक जाता है। पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय सूर्य की परिधि पर हीरक वलय की संरचना का निर्माण होता है।

 

जब चंद्रमा की परछाई सूर्य के पूरे भाग को ढकने की बजाय किसी एक हिस्से को ही ढके, तब आंशिक सूर्य ग्रहण होता है।

 

वलयाकार सूर्य ग्रहण की स्थिति तब बनती है जब चंद्रमा पृथ्वी से दूर होता है तथा इसका आकार छोटा दिखाई देता है। इसकी वजह से चंद्रमा, सूर्य को पूरी तरह ढक नहीं पाता और सूर्य एक अग्नि वलय (Ring of Fire) की भाँति प्रतीत होता है। वलयाकार सूर्य ग्रहण से निर्मित अग्नि वलय पृथ्वी पर सभी स्थानों से नहीं दिखाई देता। इसलिये अलग-अलग स्थानों पर यह आंशिक सूर्य ग्रहण की भाँति दिखाई देता है। वलयाकार सूर्य ग्रहण की स्थिति सूर्य की बाहरी परत कोरोना के अध्ययन के लिये आदर्श होती है क्योंकि पृथ्वी और सूर्य के बीच चंद्रमा के आ जाने से सूर्य की तेज़ रोशनी अवरोधित हो जाती है

 

तथा खगोलीय यंत्रों द्वारा इसका अध्ययन आसानी से किया जा सकता है।

 

आँखों में बिना कोई उपकरण लगाए सूर्य ग्रहण को देखने से स्थायी अंधेपन की स्थिति या रेटिना में जलन हो सकती है जिसे सोलर रेटिनोपैथी कहते हैं।

 

पिंक सुपरमून

 

7 अप्रैल, 2020 को आकाश में पिंक सुपरमून की घटना देखी गई। नासा के अनुसार, एक सुपरमून की घटना तब होती है जब एक पूर्ण चंद्रमा पृथ्वी के सबसे करीब होता है। जब पूर्ण चंद्रमा पृथ्वी से निकटतम बिंदु पेरिजी (Perigee) पर दिखाई देता है तो यह एक नियमित पूर्णिमा की तुलना में अधिक उज्ज्वल एवं बड़ा होता है। इस वर्ष की पहली घटना सुपरमून 9 मार्च को देखी गई थी और अंतिम घटना 7 मई, 2020 को घटित हुई। पृथ्वी से सबसे दूर बिंदु को अपोजी (Apogee) कहा जाता है, यह पृथ्वी से लगभग 405,500 किलोमीटर दूर है। वहीं पेरिजी (Perigee) पृथ्वी से लगभग 363,300 किलोमीटर दूर है। चंद्रमा मूल रूप से गुलाबी रंग का नहीं होता है। इसे पिंक सुपरमून नाम पिंक वाइल्डफ्लावर (Pink Wildflowers) से मिला है जो उत्तरी अमेरिका में वसंत ऋतु में खिलते हैं। इसे पास्कल मून (Paschal Moon) भी कहा जाता है क्योंकि ईसाई कैलेंडर में ईस्टर (Easter) के लिये तारीख की गणना करने में इसका उपयोग किया जाता है। पास्कल मून के बाद पहला रविवार ईस्टर रविवार है।

 

एंगुइला

 

एंगुइला कैरेबियन सागर में एक द्वीप है जिसने दो नवीन प्रौद्योगिकियों (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और वैनिटी यूआरएल) के माध्यम से वित्तीय लाभ कमाया है। AI' एंगुइला का 'कंट्री कोड' है और यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का एक संक्षिप्त रूप भी है। वैनिटी यूआरएल (Uniform Resource Locator-URL) एक अनूठा वेब एड्रेस है जिसका उपयोग मार्केटिंग उद्देश्यों को पूरा करने के लिये किया जाता है। वैनिटी यूआरएल एक प्रकार का कस्टम यूआरएल है जो उपयोगकर्ताओं को किसी एक वेबसाइट के विशिष्ट पृष्ठ को याद रखने और खोजने में मदद करता है।

 

यह पूर्वी कैरेबियन सागर में स्थित एक ब्रिटिश समुद्रपारीय द्वीप है। कैरेबियन सागर अटलांटिक महासागर का एक भाग है जो मैक्सिको की खाड़ी के दक्षिण-पूर्व में है। इसका निर्माण मूंगा एवं चूना पत्थर से हुआ है और यहाँ की जलवायु उष्णकटिबंधीय है इस क्षेत्र में कई छोटे निर्जन अपतटीय द्वीप हैं जिनमें से कुछ बड़े द्वीप डॉग, स्क्रब, सोम्ब्रेरो और प्रिक्ली पीयर काय्स हैं।

 

ड्रेक पैसेज

 

25 दिसंबर, 2019 को चार देशों के 6 नाविकों ने पहली बार पूर्णत: मानव शक्ति संचालित अभियान के माध्यम से ड्रेक पैसेज (Drake Passage) पार किया। इस उपलब्धि को गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज किया गया। इस अभियान को 'द इम्पॉसिबल रो' नाम दिया गया था। इस अभियान में रोअर्स (नाविकों) ने चिली के केप हॉर्न से यात्रा प्रारंभ करते हुए अंटार्कटिक प्रायद्वीप के सैन मार्टिन लैंड पर स्थित प्रिमेवेरा बेस पर अपनी यात्रा समाप्त की। जब इस क्षेत्र में तेज हवाओं या तूफानों की उत्पत्ति होती है, तो इस पैसेज में नौकायन करना खतरनाक हो जाता है। यह पैसेज दक्षिण अमेरिका के दक्षिणतम बिंदु केप हॉर्न तथा पश्चिमी अंटार्कटिक प्रायद्वीप के मध्य स्थित है। यह पूर्व में अटलांटिक महासागर तथा पश्चिम में प्रशांत महासागर को आपस में जोड़ता है। ड्रेक पैसेज को विश्व के सबसे जोखिमयुक्त जलमार्गों में से एक माना जाता है क्योंकि यहाँ दक्षिण दिशा से ठंडी समुद्री जलधाराएँ और उत्तर से गर्म समुद्री जलधाराएँ आपस में टकराकर शक्तिशाली समुद्री जलावतों का निर्माण करती हैं। इस पैसेज का नामकरण 'सर फ्रांसिस ड्रेक' के नाम पर किया गया था, जो कि नाव द्वारा विश्व की परिक्रमा करने वाले प्रथम व्यक्ति थे।

 

लामू द्वीप

 

सोमालिया के अल-शबाब ग्रुप ने केन्याई तटीय लामू क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका और केन्याई सेना द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले सैन्य अड्डे पर हमला किया है। लामू द्वीप केन्या के पूर्वी तट पर स्थित है। लामू द्वीप पर लामू नगर स्वाहिली नगरों के बीच सबसे पुरानी एवं संरक्षित बस्तियों में एक है। यह नगर एक अनोखी एवं दुर्लभ ऐतिहासिक विरासत है जो 700 से अधिक वर्षों से स्थापित है। इसे मूंगा पत्थर और मैंग्रोव लकड़ी से बनाया गया है। पूर्वी अफ्रीका में जंजीबार और मोम्बासा जैसे अन्य नगरों से पूर्व यह सबसे महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्रों में एक था। बंटू (Bantu), अरब, फारसी, भारतीय और यूरोपीय लोगों के बीच आपसी मेलजोल के परिणामस्वरूप लामू स्वाहिली संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। 19वीं शताब्दी से लामू द्वीप पर प्रमुख मुस्लिम धार्मिक त्योहारों का आयोजन होता रहा है जिससे यह इस्लामी एवं स्वाहिली संस्कृतियों के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा इस द्वीप को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है।

 

नगर वन योजना

 

चर्चा में क्यों?

 

विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर सरकार द्वारा वन विभाग, नगर निकायों, गैर सरकारी संगठनों, कॉर्पोरेट्स और स्थानीय नागरिकों के बीच भागीदारी और सहयोग से पाँच वर्षों में देश भर में 200 शहरी वन विकसित करने के लिये नगर वन योजना के कार्यान्वयन की घोषणा की गई है।

 

योजना का महत्त्व

 

भारत पशुओं और पौधों की कई प्रजातियों से समृद्ध जैव-विविधता से संपन्न क्षेत्र है। संपूर्ण विश्व में मौजूद जैव-विविधता के 36 वैश्विक हॉटस्पॉट्स में से 4 भारत में विद्यमान हैं। जैव विविधता संरक्षण को पारंपरिक रूप से दूरस्थ वन क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया है। बढ़ते शहरीकरण के साथ शहरी क्षेत्रों में भी जैव विविधता संरक्षण की आवश्यकता उत्पन्न हुई है। शहरी वानिकी इस अंतर को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका है। यह योजना अतिरिक्त कार्बन सिंक (Carbon Sink) का निर्माण करने में मददगार साबित होगी।

 

योजना द्वारा शहरों में ग्रामीण वन संरक्षण की पुरानी परंपरा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाएगा। यह योजना शहरी क्षेत्रों में वनीकरण द्वारा बढ़ते प्रदूषण स्तर से निपटने में सहायक सिद्ध होगी।

 

शहरों में स्वस्थ वातावरण प्रदान करने के साथ ही स्मार्ट, स्वच्छ हरित, सतत् और स्वस्थ शहरों के विकास में भी योगदान करेगी। यह शहरी क्षेत्रों की वनस्पतियों और जीवों के संरक्षण पर पर्यावरणीय शिक्षा के प्रसार का उद्देश्य रखती है।

 

शहरों में वनीकरण द्वारा स्व-स्थाने (In-situ) जैव-विविधता संर इस योजना का मुख्य उद्देश्य शहरी क्षेत्रों में शुद्ध पर्यावरण का निर्माण करना है।

 

 शहरों में वृक्ष गर्मी में कमी करने के साथ ही मनोरंजन और समाजीकरण के लिये स्थान प्रदान करते हैं। एक अनुमान के अनुसार, यदि वृक्षों को इमारतों के पास लगाया जाए तो 2°C और 8°C तक तापमान में कमी की जा सकती है। इस प्रकार यह ऊष्मा द्वीप के प्रभाव को कम करके शहरी समुदायों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल बनाने में मदद करते हैं।

 

पेड़ वातनुकूलकों के उपयोग में 30% तक की कटौती कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र के शहरी वानिकी कार्यालय के अनुसार, वृक्षारोपण द्वारा हीटिंग ऊर्जा के उपयोग को 20-50% तक कम किया जा सकता है।

 

ओजोन परत की सुरक्षा

 

चर्चा में क्यों?

 

यूरोपीय यूनियन की कोपरनिकस एटमॉस्फियर मॉनिटरिंग स्वयं (CAMS) की एक रिपोर्ट के अनुसार, आर्कटिक के ऊपर निर्मित औडोर छिद्र अब समाप्त हो गया है। रिपोर्ट में आर्कटिक के ऊपर बने ओजोन छिद्र के ठीक होने की वजह पोलर वटेंक्स (Polar Vortex) को माना गया है। पृष्ठभूमि

 

प्रतिवर्ष दक्षिणी (Austral) वसंत के दौरान अंटार्कटिक क्षेत्र के ऊपर ओजोन छिद्र देखने को मिलते हैं।

 

अंटार्कटिक ओजोन छिद्रों का निर्माण मुख्यतया क्लोरीन और ब्रोमीन सहित मानव-निर्मित रसायनों के कारण होता है। ये रसायन समुद्र तल से लगभग 10-50 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित समताप मंडल में प्रवेश करते हैं।

 

हानिकारक रसायन शीत ऋतु में अंटार्कटिक क्षेत्र के ऊपर विकसित होने वाले मज़बूत पोलर वर्टेक्स के भीतर जमा हो जाते हैं। पोलर वर्टेक्स में तापमान लगभग -78 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाने पर ध्रुवीय समताप मंडलीय बादलों का निर्माण संभव होता है जो रासायनिक प्रतिक्रियाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अंटार्कटिका क्षेत्र की तरह ओजोन क्षरण के लिये आवश्यक परिस्थितियाँ आमतौर पर आर्कटिक क्षेत्र में नहीं पाई जाती हैं। आर्कटिक क्षेत्र के भू-स्थलों और पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे होने के कारण यहाँ दक्षिणी गोलार्द्ध की तुलना में मौसम के प्रतिरूप अधिक प्रभावित होते हैं।

 

उत्तरी गोलार्द्ध में पोलर वर्टेक्स दक्षिणी गोलार्ध की तुलना में आमतौर पर अधिक कमज़ोर और विकृत होता है क्योंकि यहाँ तापमान इतना कम नहीं हो पाता है। 2020 में आर्कटिक पोलर वर्टेक्स असाधारण रूप से मजबूत और लंबे समय तक विद्यमान रहे हैं।

 

वर्ष 2020 के शुरुआती महीनों से ही आर्कटिक समतापमंडल में तापमान काफी कम था, जिसके परिणामस्वरूप आर्कटिक पर बड़ी मात्रा में ओज़ोन रिक्तीकरण की परिघटनाएँ देखी गई।

 

 

अंतर्राष्ट्रीय प्रयास

 

1985 में ओजोन परत की सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हेतु वियना कन्वेंशन हुआ। इसकी परिणति 1987 में ओजोन परत क्षयकारी पदार्थों (ODS) पर नियंत्रण हेतु मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के रूप में हुई।

 

फ्रेमवर्क कन्वेंशन के रूप में प्रसिद्ध वियना कन्वेंशन के अंतर्गत CFCs के उपयोग में कमी लाने हेतु बाध्यकारी नियम नहीं है। 2009 में वियना कन्वेंशन सार्वभौमिक सत्यापन वाला पहला कन्वेंशन बन गया। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल एक अंतर्राष्ट्रीय बाध्यकारी संधि है जिसे ओजोन 8 क्षयकारी पदार्थों के उत्पादन एवं उपभोग में कमी लाने हेतु 16

 

सितंबर, 1987 को अपनाया गया था। रवांडा के किगाली में अक्तूबर 2016 में 197 देशों द्वारा हाइड्रोफ्लोरोकार्बन की श्रेणी के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये किया गया। किगाली समझौता 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, जिसमें केवल ओजोन क्षरण ज़िम्मेदार गैसें शामिल थी, में संशोधन करके ग्लोबल वार्मिंग के लिये ज़िम्मेदार गैसों को भी शामिल करता है।

 

भारत द्वारा किये गए प्रयास

 

भारत ने ओजोन परत के संरक्षण हेतु 1991 में वियना कन्वेंशन पर हस्ताक्षर कर इसका सत्यापन किया था मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर ओज़ोन क्षयकारी पदार्थों के संबंध में 1992 में हस्ताक्षर किये हैं। भारत सरकार द्वारा पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत ओज़ोन क्षयकारी पदार्थ (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 जारी किये गए हैं। भारत CFCS, CI, एवं हैलोन्स का उत्पादन और खपत 1 जनवरी, 2010 से धीरे-धीरे समाप्त कर रहा है।

 

 

एटालिन जलविद्युत परियोजना

 

चर्चा में क्यों?

 

केंद्र सरकार ने अरुणाचल प्रदेश में दिबांग घाटी जिले में प्रस्तावित 3097 मेगावॉट की एटालिन जलविद्युत परियोजना के कारण जैव विविधता पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन की अनुशंसा की है। जैव विविधता पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव को देखते हुए पर्यावरण कार्यकर्ता इस परियोजना को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। परियोजना के अंतर्गत दिबांग की सहायक नदियों-दिर तथा टैंगो पर दो बांधों के निर्माण की परिकल्पना की गई है।

 

दिबांग घाटी में जैव विविधता

 

अरुणाचल प्रदेश में दिबांग घाटी विश्व के 36 जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक पूर्वी हिमालय जैव विविधता हॉटस्पॉट का हिस्सा है। यह क्षेत्र बाघों की विशिष्ट आनुवंशिक आबादी सहित अनुसूची-1 के लुप्तप्राय प्रजातियों का महत्त्वपूर्ण निवास स्थान (Habitat) है।

 

बाघों के अलावा यहाँ 75 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें क्लाउडेड लेपर्ड, एशियाई गोल्डन कैट, एशियाई जगली कुसा, लाल पांडा, मिश्मी टैकिन और रेड गोरल आदि शामिल है। दिवांग घाटी में पक्षियों की 300 से भी अधिक प्रजातियों के पाप जाने का अनुमान लगाया गया है, जिनमें दूंगा, स्थानिक और सुप्तप्राय प्रजातियाँ, जैसे- बेली ट्रैगोपैन, स्केलेटर मोनाल, रफस नेक्ड हॉर्नबिल, बर्ड्स ट्रोगोन, हॉजसन फ्रॉगमाउथ, वैज-बोड बैवलर और हाल ही में खोजा गया वेन-बैबलर शामिल हैं। इस क्षेत्र में हाल ही में उभयचरों की 43 प्रजातियों को दर्ज किया गया है।

 

भारत में जलविद्युत विकास

 

वर्ष 2008 के पश्चात् सौर और पवन परियोजनाओं के अधिक आकर्षण के कारण जलविद्युत परियोजनाएँ धीरे-धीरे पिछड़ गई। वर्ष 2018 के अंत में भारत में स्थापित जलविद्युत क्षमता लगभग 45,400 मेगावाट थी। वर्ष 2008 और 2018 के मध्य भारत की कुल स्थापित विद्युत क्षमता में जलविद्युत ऊर्जा की हिस्सेदारी 25% से घटकर 13% यानी लगभग आधी हो गई है। वर्ष 2015 में भारत सरकार ने 25 मेगावाट से बड़ी पनबिजली परियोजनाओं को अक्षय ऊर्जा के रूप में वर्गीकृत करना बंद कर दिया। सरकार का अनुमान है कि देश की जलविद्युत क्षमता (25 मेगावाट से अधिक) 1,45,000 मेगावाट से अधिक है। 1998 में भारत सरकार ने जलविद्युत विकास पर नीति की घोषणा की जिसके तहत देश में जल विद्युत के विकास के लिये प्रोत्साहन दिया जाता है।

 

 

 

हिमालयन आईबेक्स

 

चर्चा में क्यों?

 

एंडेंजर्ड स्पीशीज़ रिसर्च (Endangered Species Research ) पत्रिका में प्रकाशित लेख के अनुसार 'भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण' (Zoological Survey of India-ZSI) के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन में यह पाया गया है कि हिमालयन आईबेक्स प्रजाति, साइबेरियन आईबेक्स प्रजाति से अलग तथा विशिष्ट प्रजाति है।

 

महत्त्वपूर्ण जानकारी

 

IUCN की लीस्ट कंसर्ड (Least Concerned) श्रेणी में शामिल हिमालयन आईबेक्स का वैज्ञानिक नाम कैप्रा सिबिरिका (Capra Sibirica) तथा स्थानीय नाम टांगरोल (मांगरोल) है। हिमालयन आईबेक्स प्रजाति लद्दाख के ट्रांस हिमालय क्षेत्र, जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के महान हिमालय एवं पीर पंजाल क्षेत्र में पाई जाती है।

 

इसके आवास महान हिमालय क्षेत्र में 3400-4400 मीटर, जबकि ट्रांस हिमालय क्षेत्र में 4000-4725 मीटर की ऊँचाई तक मिलते हैं। यह अल्पाइन चरागाहों और आर्द्र घास के मैदानों पर चराई करती. है, लेकिन इनके आवास हमेशा चट्टानी क्षेत्रों के नज़दीक ही होते हैं। यह जंगलों में बहुत कम प्रवेश करती है। हिमालयन आईबेक्स की अधिक संख्या पिन वैली राष्ट्रीय उद्यान (हिमाचल प्रदेश) तथा कांजी वन्यजीव अभयारण्य (जम्मू-कश्मीर) में देखने को मिलती है।

 

साइबेरियन आईबक्स

 

साइबेरियन आईबेक्स जंगली बकरी की एक प्रजाति है जो शीत मरुस्थल, चट्टानी दृश्य भूमि, तीव्र ढाल के क्षेत्र, उच्च समतल भूमि, पर्वतीय कगार तथा पहाड़ों की तलहटी जैसे विभिन्न आवासों में निवास करती है। यह प्रजाति अफगानिस्तान, चीन में झिंजियांग, गांसू, भारत में हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर, कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, मंगोलिया, पाकिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान तथा उज्वेकिस्तान के पर्वतीय क्षेत्रों में 500-6000 मीटर की ऊँचाई तक पाई जाती है।

 

 

पिन वैली राष्ट्रीय उद्यान

 

हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले के ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र में स्थित यह 1987 में राष्ट्रीय उद्यान के रूप में घोषित किया गया। यहाँ जानवरों और पक्षियों की 20 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। यह उद्यान विशेष रूप से लुप्तप्राय हिम तेंदुए के लिये प्रसिद्ध है। अन्य प्रजातियाँ- टंगरोर, भरल, लाल लोमड़ी, पिका, हिम मुर्गा, गोल्डन ईगल, धर्म और तिब्बती भेड़िया आदि हैं। पिन वैली की विशेषता अल्पाइन चारागाह है। यहाँ जुनिपर और बर्च पेड़ विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह क्षेत्र औषधीय जड़ी बूटियों और मसालों से समृद्ध है।

 

मैंग्रोव वन

 

चर्चा में क्यों?

 

21 मार्च, 2020 को अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस मनाया गया, जिसमें मैंग्रोव वनों के महत्त्व को स्वीकार कर इनके संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया गया।

 

अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस

 

- संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2012 में 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस घोषित किया।

 

- यह दिवस सभी प्रकार के वनों के महत्त्व के बारे में जागरूकता वृद्धि तथा वृक्षारोपण अभियान से संबंधित गतिविधियों के लिये देशों के स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को प्रोत्साहित करता है। - प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस के लिये विषय का चुनाव वनों पर सहयोगात्मक साझेदारी द्वारा किया जाता है। 2020 के अंतरराष्ट्रीय

 

वन दिवस का विषय 'वन और जैव विविधता' है।

 

मैंग्रोव वन की विशेषताएँ

 

मैंग्रोव वन उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के तटों, ज्वारनदमुखों, ज्वारीय क्रीक, पश्चजल, लैगून एवं पंक जमावों में विकसित होते हैं।

 

मैंग्रोव की लगभग 80 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ये सभी प्रजातियाँ खारे पानी के प्रति सहनशील होती हैं।

 

मैंग्रोव पौधों में विशेष श्वसन जड़ों का विकास होता है, जिनके माध्यम से ये पौधे ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का आदान प्रदान करते हैं। इन जड़ों को न्यूमेटोफोर्स कहते हैं। मैंग्रोव पौधों की जड़ों गुरुत्वाकर्षण के विपरीत वृद्धि करती हैं और सतह पर आ जाती हैं।

 

भारत में मैंग्रोव वनों की स्थिति

 

वन क्षेत्र स्थिति रिपोर्ट-2019 के अनुसार, मैंग्रोव वन देश के कुल 4975 वर्ग किमी. में विस्तृत है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 0.15% है।

 

सर्वाधिक मैंग्रोव क्षेत्रफल वाले राज्य पश्चिम बंगाल (2112 वर्ग किमी.), गुजरात (1177 वर्ग किमी.), अंडमान और निकोबार (616 वर्ग किमी.) है।

 

2017 के मूल्यांकन की तुलना में देश में मैंग्रोव के विस्तार में 54 वर्ग किमी की शुद्ध वृद्धि हुई है। प्रतिशत के हिसाब से पश्चिम बंगाल में 42.45% मैंग्रोव का विस्तार है, जबकि गुजरात में यह 23.66% तथा अंडमान और निकोबार में 12.39% है।

 

वैश्विक स्तर पर मैंग्रोव संरक्षण के उपाय

 

यूनेस्को, ISME (मैंग्रोव पारिस्थितिकी संरक्षण के लिये पारिस्थितिकी तंत्र). UNDP, IUCN, रामसर कन्वेंशन, UNEP, वेटलैंड इंटरनेशनल आदि अनेक संस्थाएँ मैंग्रोव वनों के संरक्षण और प्रबंधन के लिये कार्यरत हैं। पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली पर संयुक्त राष्ट्र दशक के तहत वर्ष

 

2021-2030 की अवधि में समुद्री नीले मैंग्रोव सहित गंभीर रूप से अवनयित भू-परिदृश्य (Landscapes) तथा वनों की पुनर्बहाली से संबंधित कार्यों को बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा।

 

भारत सरकार के प्रयास

 

सरकार द्वारा वर्ष 1976 में भारतीय मैंग्रोव समिति का गठन किया सरकार को सलाह देना था।

 

गया, जिसका प्रमुख उद्देश्य मैंग्रोव के संरक्षण एवं विकास के लिये तटीय पारितंत्र की सुरक्षा, विकास व प्रस्थापना हेतु भविष्य के लिये मैंग्रोव कार्यक्रम (IUCN-UNDP समर्थित) चलाया गया।

 

रेड-स्नो

 

चर्चा में क्यों?

 

अंटार्कटिका में यूक्रेन के वर्नाडस्की रिसर्च बेस (Vernadsky Research Base) के आसपास 'रेड-स्नो' (Red Snow) की वायरल तस्वीरों ने 'रेड-स्नो' को लेकर जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं को पुनः उजागर कर दिया है।

 

 

भारत में लाल पांडा

 

चर्चा में क्यों?

 

वन्यजीवों के व्यापार की निगरानी करने वाली 'ट्रैफिक' (Traffic) नामक एक गैर-सरकारी संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार हाल के वर्षों में हिमालय क्षेत्र में लुप्तप्राय लाल पांडा (Red Panda) के शिकार के मामलों में गिरावट दर्ज की गई है।

 

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु

 

जुलाई 2010 से जून 2019 के बीच हिमालय क्षेत्र में लाल पांडा के शिकार और इनके गैर-कानूनी व्यापार के मामलों के अध्ययन पर आधारित इस रिपोर्ट के अनुसार, क्षेत्र की युवा पीढ़ी में वन्यजीवों के अंगों से बने उत्पादों के प्रयोग के प्रति रुचि में कमी लुप्तप्राय लाल पांडा के शिकार के मामलों में गिरावट का एक मुख्य कारण है। हालाँकि अन्य जीवों जैसे-कस्तूरी हिरण (Musk Deer), जंगली सूअर आदि द्वारा लाल पांडा का शिकार किया जाना अभी भी इस जीव के अस्तित्त्व के लिये एक खतरा बना हुआ है। जुलाई 2010 से जून 2019 के बीच भारत और भूटान की सरकारों द्वारा लाल पांडा के शिकार और इनके गैर-कानूनी व्यापार का कोई भी मामला दर्ज नहीं किया गया।

 

इस अध्ययन के अंतर्गत सुरक्षा अधिकारियों द्वारा जब्त किये गए जीवों के मामलों के अतिरिक्त बाजारों, ई-व्यापार वेबसाइट्स, सर्वेक्षण और ग्रामीण स्तर पर हज़ारों लोगों से बातचीत के आधार पर प्राप्त आंकड़ों को शामिल किया गया।

 

लाल पांडा: प्रमुख बिंदु

 

पांडा नाम नेपाली शब्द 'पोन्या' से निकला है, जिसका अर्थ है 'बाँस या पौधे खाने वाला जानवर'

 

यह ऐलुरुस फुल्गेंस (Ailurus Fulgens) प्रजाति का एक कुशल और कलाबाज जानवर है, जो मुख्य रूप से पेड़ों पर रहता है।

 

• 5 CITES (Convention on International Trade in Endangered Species of Wild Fauna and Flora) Appendix nra

 

है तथा IUCN की रेड लिस्ट के तहत संकटग्रस्त (Endangered) जीवों की श्रेणी में सूचीबद्ध है। इसे भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत कानूनी संरक्षण प्राप्त है।

 

यह सिक्किम का राज्य पशु है।

 

यह स्तनपायी जीव पूर्वी हिमालय क्षेत्र में नेपाल, भारत, भूटान, दक्षिणी चीन और म्यांमार के पर्वतीय क्षेत्रों में 2500 से 4000 मीटर तक की ऊँचाई पर पाया जाता है।

 

रेड पांडा के आवास मोंटेन वनों (ऑर्किड, फर्न, मॉस, लाइकेन, और लिवर बस की प्रधानता) में पाए जाते हैं। ये मुख्यत: शाकाहारी जीव हैं जो पेड़ों की पत्तियों और बाँस को भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। ये फल, पौधों की जड़ें, घास,

लाइकेन, पक्षियों के अंडे और कीड़े भी खाते हैं।

 

मोंटेन वन

 

मोंटेन वन पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले पारिस्थितिकी तंत्र को संदर्भित करते हैं, जो जलवायु से अत्यधिक प्रभावित होते हैं।

 ये अत्यधिक ऊँचाई पर घास के मैदानों या टुंड्रा में परिवर्तित हो जाते हैं।

 

भारत में लाल पांडा के संरक्षण के लिये किये गए प्रयास

 

भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत इसे कानूनी संरक्षण प्राप्त है। वर्ष 1996 में WWF की सहायता से भारत में लाल पांडा परियोजना शुरू की गई।

 

संरक्षित क्षेत्रों के माध्यम से लाल पांडा प्रजाति का संरक्षण, जैसे कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान (सिक्किम) नेओरा वैली (पश्चिम बंगाल), नामदफा राष्ट्रीय उद्यान (अरुणाचल प्रदेश), सिंगालीला राष्ट्रीय उद्यान- (पश्चिम बंगाल)।

 

ब्लैक कार्बन

 

 

वैज्ञानिक पत्रिका 'एटमोस्फियरिक एनवायरनमेंट' (Atmospheric Environment) में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, कृषि अपशिष्ट दहन और वनाग्नि से उत्पन्न 'ब्लैक कार्बन' (Black carbon) के कारण 'गंगोत्री हिमनद' के पिघलने की दर में वृद्धि हो सकती है।

 

 प्रमुख बिंदु

 

ग्रीष्मकाल में गंगोत्री हिमनद क्षेत्र में ब्लैक कार्बन की सांद्रता में 400 गुना तक वृद्धि ब्लैक कार्बन की प्रकाश-अवशोषित करने की प्रकृति के कारण ग्लेशियर को और अधिक पिघला सकती है।

 

समतुल्य ब्लैक कार्बन (EBC) एरोसोल अपने हल्के अवशोषित प्रकृति के कारण ग्लोबल वार्मिंग में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। हिमालयी हिमनद, घाटियों जैसे पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में इसकी उपस्थिति गंभीर चिंता का विषय है और सावधानीपूर्वक इसकी निगरानी करने की आवश्यकता है। ब्लैक कार्बन की सामयिक अधिकता कृषि अवशेष जलाने (देश के पश्चिमी भाग में) तथा गर्मियों में वनाग्नि (हिमालयी ढलानों के साथ) से उत्पन्न उत्सर्जन के साथ-साथ कुछ हद तक सर्दियों में लंबी दूरी के वाहनों से उत्पन्न प्रदूषण और प्रचलित मौसम संबंधी स्थितियों से काफी प्रभावित होती है।

 

ब्लैक कार्बन क्या है?

 

यह पार्टिकुलेट मैटर का एक जटिल एवं शक्तिशाली मिश्रण तथा भूमंडलीय तापन का महत्त्वपूर्ण घटक है, जो जीवाश्म ईंधन, लकड़ी और अन्य ईंधनों के अपूर्ण दहन से उत्पन्न होता है।

 

अपूर्ण दहन की प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, वाष्पशील कार्बनिक यौगिक और ब्लैक कार्बन कण जैसे कई प्रदूषक एक साथ बनते हैं।

 

यह एक अल्पजीवी जलवायु प्रदूषक है जो वायुमंडल में उत्सर्जित होने के पश्चात् कुछ दिनों से लेकर कुछ सप्ताह  तक बना रहता है।

  

ब्लैक कार्बन के सोत

 

बायोमास कुक स्टोव, बायोमास हीटिंग स्टोव एवं केरोसिन लैंप जैसी घरेलू खाना पकाने और हीटिंग गतिविधियों का कुल वैश्विक ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में आधे से अधिक योगदान है।

 

डीजल वाहन जैसे परिवहन के साधनों से उत्सर्जन। ईंट निर्माण, कोयला खनन और अन्य औद्योगिक गतिविधियाँ।

 

कृषि तथा नगरीय अपशिष्टों का खुला दहन।

 

तेल गैस का उत्पादन व गैस का लंबी दूरी तक परिवहन।

 

बड़े पैमाने पर दहन की क्रियाएँ, जैसे- औद्योगिक और विद्युतगृहों

 

के बॉयलर्स एवं भट्टियों में दहन।

 

 

जलवायु और स्वच्छ वायु संघ

 

जलवायु और स्वच्छ वायु संघ सरकारों, अंतर-सरकारी संगठनों, व्यावसायिक संगठनों, वैज्ञानिक संस्थानों और नागरिक समाज संगठनों की एक स्वैच्छिक साझेदारी है।

 

अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों जैसे-मीथेन, HFCs, ब्लैक कार्बन और ट्रोपोस्फेरिक ओज़ोन के उत्सर्जन में कमी लाकर यह वायु में गुणवत्ता सुधार तथा जलवायु की रक्षा करने के लिये प्रतिबद्ध है।

 

पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली पर संयुक्त राष्ट्र दशक

 

चर्चा में क्यों?

 

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 'पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली पर संयुक्त राष्ट्र दशक (2021-30) में व्याप्त राजनीतिक समर्थन, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं वित्तीय सहायता हेतु वैश्विक सहयोग की उम्मीद प्रकट की है। मार्च 2018 में ब्राजील में बॉन चैलेंज के दौरान  उच्च-स्तरीय बैठक में अल साल्वाडोर ने पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्वहाली 2021-2030 पर संयुक्त राष्ट्र के समक्ष प्रस्ताव पेश किया।

 

प्रमुख बिंदु

 

 

पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली पर यूएन दशक को निम्नीकृत और क्षतिग्रस्त पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने, जलवायु परिवर्तन से निपटने तथा जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा एवं जल आपूर्ति सुनिश्चित करने में वैश्विक सहयोग की आवश्यकता के साधन के रूप में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाया गया।

 

'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम' (UNEP) एवं 'खाद्य और कृषि

 

संगठन' (FAO) इसके सह-नेतृत्वकर्ता हैं।

 

पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं

 

यह मानव कल्याण के लिये पारिस्थितिकी तंत्र का योगदान है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव जीवन और उसकी गुणवत्ता में वृद्धि करती है।

 

टीबी के अनुसार, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को चार मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: प्रोविजनिंग सेवाएँ (Provisioning Services): इनमें भोजन, ताजा पानी, लकड़ी, फाइबर, आनुवंशिक संसाधन और दवा जैसे उत्पाद सम्मिलित हैं।

 

विनियमन सेवाएँ (Regulating Services): इनमें जलवायु व प्राकृतिक खतरा से निपटने के लिये विनियमन, जल शोधन और अपशिष्ट प्रबंधन, पर या कीट नियंत्रण जैसी सेवाएँ शामिल की जाती हैं।

 

समर्थन सेवाएँ (Supporting Services): पारिस्थितिक तंत्र सेवाएँ जो अन्य पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के उत्पादन के लिये आवश्यक हैं, जैसे- पोषण चक्र, ऑक्सीजन चक्र, मिट्टी का निर्माण, जल चक्र और आवास आदि।

 

* सांस्कृतिक सेवाएँ (Cultural Services): ये गैर-भौतिक लाभ हैं, जैसे- आध्यात्मिक संवर्द्धन, बौद्धिक विकास, मनोरंजन और सौंदर्य मूल्य आदि।

 

TEEB (The Economics of Ecosystems and Biodiversity)

 

यह जैव विविधता के आर्थिक लाभों पर ध्यान आकर्षित करने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय पहल है।

 

इसका उद्देश्य जैव विविधता की क्षति और पारिस्थितिकी तंत्र निम्नीकरण की बढ़ती लागत को प्रकट करना तथा व्यावहारिक क्रियाओं को सक्षम करने के लिये विज्ञान, अर्थशास्त्र व नीति निर्माण के क्षेत्रों को एक साथ मिलकर कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करना है।

 

अवैध रेत खनन

 

चर्चा में क्यों?

 

अवैध रेत खनन के विनियमन की चुनौती को देखते हुए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने नए दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

 

प्रमुख बिंदु

 

मंत्रालय द्वारा जारी किये गए दिशा-निर्देश राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) द्वारा वर्ष 2018 में दिये गए आदेशों के समरूप हैं। इसके अतिरिक्त इन दिशा-निर्देशों को सतत् रेत प्रबंधन दिशा-निर्देश, 2016 के साथ एकीकृत करने संबंधी आदेश भी दिये गए हैं। उपरोक्त नियमों के अतिरिक्त रेत खनन, खनन और खनिज (विनियमन और विकास) अधिनियम, 1957 राज्य सरकारों को खनिजों के अवैध खनन, परिवहन एवं भंडारण को रोकने के लिये नियम बनाने का अधिकार देता है।

 

नए दिशा-निर्देश

 

प्रत्येक राज्य द्वारा नदियों का समय-समय पर सर्वेक्षण किया जाए तथा आंकड़ों को सार्वजनिक किया जाए। नदी के तल की स्थिति का बार-बार अध्ययन किया जाए।

 

ड्रोन द्वारा हवाई सर्वेक्षण एवं ज़मीनी सर्वेक्षण के माध्यम से खनन क्षेत्रों की लगातार निगरानी की जाए। रात में भी नाइट-विज़न ड्रोन के माध्यम से खनन गतिविधियों की निगरानी की जाए। जिला स्तरीय समर्पित कार्य बलों की स्थापना की जाए।

 

रेत और अन्य नदी सामग्री की ऑनलाइन बिक्री प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए। मानसून के दौरान किसी भी नदी के किनारे खनन की अनुमति नहीं होगी।

 

ऐसे मामलों में जहाँ नदियाँ जिले की सीमा या राज्य की सीमा बनाती हैं उनमें सीमा को साझा करने वाले जिले या राज्य खनन गतिविधियों तथा खनन सामग्री की निगरानी के लिये संयुक्त टास्क फोर्स का गठन करना, साथ ही उपयुक्त जानकारी का प्रयोग करके जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट (District Survey Reports-DSR) तैयार करना।

 

ज़िला सर्वेक्षण रिपोर्ट

 

सतत् रेत प्रबंधन दिशा-निर्देश, 2016 के अनुसार, खनन पट्टे देने से पहले एक महत्त्वपूर्ण प्रारंभिक कदम के रूप में खनन संबंधी ज़िला सर्वेक्षण रिपोर्ट तैयार करने की आवश्यकता होती है। यह देखा गया है कि राज्य और जिला प्रशासन द्वारा प्रस्तुत जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रायः पर्याप्त एवं व्यापक स्तर की नहीं होती है जिससे अवैध खनन संबंधी कार्य जारी रहते हैं।

नए दिशा-निर्देश जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट के लिये विस्तृत प्रक्रिया को सूचीबद्ध करेंगे।

 

पहली बार जिले में नदी तल सामग्री और अन्य रेत स्रोतों की जानकारी के लिये एक इन्वेंट्री का विकास किया जाएगा।

 

सतत रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश-2016

 

जनवरी 2016 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने अल्प खनिजों हेतु एक नीति तैयार की जिसमें रेत खनन से संबंधित मुद्दों पर विशेष जोर दिया गया।

 

इस नीति के तहत केंद्र सरकार ने सतत् रेत खनन के लिये पर्यावरण मंजूरी देने की प्रक्रिया को विकेंद्रीकृत किया।

 

 

पूर्वी घाट

 

चर्चा में क्यों?

 

पूर्वी घाट में हुए एक शोध के अनुसार, यह क्षेत्र भारत के सर्वाधिक दोहन वाले और निम्नीकृत पारिस्थितिक तंत्रों में से एक है।

 

प्रमुख बिंदु

 

शोधकर्त्ताओं ने पौधों की प्रजातियों का अध्ययन किया तथा पूर्वी घाट के लगभग 800 स्थानों पर 28 दुर्लभ, लुप्तप्राय एवं संकटग्रस्त (Rare, Endangered and Threatened-RET) प्रजातियों की उपस्थिति दर्ज की।

 

इन क्षेत्रों में मृदा, भूमि उपयोग, मानवजनित हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन का भी अध्ययन किया गया।

 

पूर्वी घाट

 

. गोदावरी, महानदी, कृष्णा और कावेरी आदि महत्त्वपूर्ण नदियाँ इस क्षेत्र से होकर बहती हैं। इन नदियों ने पूर्वी घाट पर्वत को कई स्थानों पर काट दिया है। अतः यहाँ कई अलग-अलग पहाड़ियाँ देखने को मिलती हैं। यहाँ सदाबहार और पर्णपाती वन पाए जाते हैं।

 

पूर्वी घाट के उत्तरी भाग में चानोकाइट एवं स्लेट जैसी चट्टानें पाई जाती हैं।

 

'विशाखापत्तनम' एवं 'महेंद्रगिरि' पूर्वी घाट पर्वत की हैं। यहाँ की पहाड़ियों में बिलगिरि पहाड़ी, मालगिरि पहाड़ी, जावदी पहाड़ी, जिंग्जी पहाड़ी आदि प्रमुख हैं। प्रमुख चोटियाँ

 

बिलगिरि एवं मालगिरि की पहाड़ियाँ चंदन, बागवानी और शेवराय यहाँ 450 से अधिक स्थानिक पौधों की प्रजातियाँ विद्यमान होने के बावजूद  पहाड़ी विभिन्न प्रकार के धात्विक खनिजों के लिये प्रसिद्ध हैं।

 

 यह क्षेत्र भारत के सर्वाधिक दोहन वाले और निम्नीकृत पारिस्थितिक तंत्रों में से एक है।

 

शोधकर्त्ताओं द्वारा स्थानिक प्रजातियों को कालाहांडी, महेंद्रगिरि,नल्लामलाई, शेषाचलम, बिल्ली और कलरेयान पहाड़ी के जंगलों के मुख्य क्षेत्रों में वितरित किया गया है।

 

 

नाइट्रोजन प्रबंधन

 

चर्चा में क्यों?

 

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन (Reactive Nitrogen) के बारे में फ्रंटियर्स रिपोर्ट का प्रकाशन किया गया।

 

प्रमुख बिंदु

 

यूरोपीय नाइट्रोजन मूल्यांकन में नाइट्रोजन प्रदूषण के पाँच प्रमुख खतरों की पहचान की गई है

 

जल गुणवत्ता

 

वायु गुणवत्ता

 

 ग्रीन हाउस गैस संतुलन

 

पारिस्थितिकी तंत्र

 

 जैव-विविधता

 

नाइट्रोजन प्रदूषण और संबंधित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के स्तर में तेज़ वृद्धि के कारकों में कृषि, परिवहन, उद्योग एवं ऊर्जा क्षेत्रों में बढ़ती मांग मुख्यतः ज़िम्मेदार है। ध्यातव्य है कि नाइट्रस ऑक्साइड (N,0), ग्रीनहाउस गैस के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड से 300 गुना अधिक शक्तिशाली है।

 

प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन

 

प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन में अमोनिया, नाइट्रोजन ऑक्साइड, नाइट्रिक अम्ल, नाइट्रेट एवं यूरिया तथा यूरिक अम्ल जैसे घटक शामिल होते हैं। प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन में वृद्धि के कारण निचले वायुमंडल में ओज़ोन की उच्च सांद्रता से तटीय पारिस्थितिकी तंत्र में सुपोषण, जल का अम्लीकरण तथा जैव-विविधता को नुकसान होता है।

 

नाइट्रोजन प्रबंधन के वैश्विक प्रयास

 

स्कॉटलैंड ने जलवायु परिवर्तन विधेयक में नाइट्रोजन बजट को शामिल किया है।

 

श्रीलंका की सरकार UNEP और अंतर्राष्ट्रीय नाइट्रोजन प्रबंधन प्रणाली के साथ सतत् नाइट्रोजन प्रबंधन पर कोलंबो घोषणा पत्र को लागू करने के लिये तैयार है। इस घोषणा के तहत वर्ष 2030 तक नाइट्रोजन कचरे को आधा

 

किया जाएगा। इस घोषणा को UNEP और अंतर्राष्ट्रीय नाइट्रोजन पहल की संयुक्त गतिविधि अंतर्राष्ट्रीय नाइट्रोजन प्रबंधन प्रणाली' के तकनीकी समर्थन के साथ तैयार किया गया है।

 

इस घोषणा के तहत 'जीवन के लिये नाइट्रोजन' नामक अभियान अंतर्राष्ट्रीय नाइट्रोजन पहल की शुरुआत वर्ष 2003 में पर्यावरणीय प्रारंभ किया गया है।

 

समस्याओं पर वैज्ञानिक समिति (Scope) और इंटरनेशनल जियो स्फीयर बायोस्फीयर प्रोग्राम (IGBP) द्वारा की गई थी।

 

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

 

चर्चा में क्यों?

 

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय तथा भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान जैसलमेर में स्थापित संरक्षण केंद्र में 9 स्वस्थ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड चूजों के जन्म की पुष्टि गई है।

 

मुख्य बिंदु ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का औसत जीवनकाल 15 से 16 वर्षों का होता है तथा एक मादा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड 1 से 2 वर्षों में मात्र एक अंडा ही देती है और इससे निकलने वाले चूजे के जीवित बचने की दर 60%-70% होती है। लंबे जीवन काल के इतर धीमी प्रजनन दर और मृत्यु दर का अधिक होना इस प्रजाति की उत्तरजीविता के लिये एक चुनौती है।

 

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

 

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड या सोन चिड़िया विश्व में सबसे अधिक वज़न के उड़ने वाले पक्षियों में से एक है, यह पक्षी मुख्यतया भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। वर्तमान में विश्व भर में इनकी संख्या 150 के लगभग बताई जाती है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 की अनुसूची-1 में तथा IUCN की रेड लिस्ट में गंभीर रूप से

संकटग्रस्त (CE) की श्रेणी में रखा गया है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की मृत्यु का एक बड़ा कारण इनका उच्च वोल्टेज

विद्युत तारों से टकराना भी है क्योंकि इनके सीधे देखने की क्षमता कमजोर होती है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का भोजन कीड़े, खाद्यान और फल हैं खेतों में अत्यधिक कीटनाशकों का प्रयोग इनके भोजन और आवास को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है।

 

गैंडों की पुनर्स्थापना

 

उत्तराखंड वन्यजीव बोर्ड ने भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) द्वारा दिये गए प्रस्ताव के अनुसार, कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व में गैंडों को पुनर्स्थापित करने की मंजूरी दी है।

 

मुख्य बिंदु

 

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में गैंडों के आवास के लिये चुने गए आदर्श स्थल उत्तर में निम्न हिमालय, दक्षिण में शिवालिक पहाड़ियों और पूर्व में रामगंगा जलाशय द्वारा घिरे हुए हैं, जो इन क्षेत्रों से गैंडों की आवाजाही को रोकने के लिये प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य करेंगे। इससे मानव-पशु संघर्ष की घटनाओं में कमी आएगी। एक समय सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के अपवाह मैदानों तथा उत्तराखंड में गैंडों की उपस्थिति थी, लेकिन वर्तमान में मानवजनित दबाव एवं अवैध शिकार के परिणामस्वरूप ये केवल भारत तथा नेपाल के छोटे से भू-भाग तक ही सीमित रह गए हैं।

 

एक सींग वाला गैंडा (भारतीय गैंडा)

 

यह IUCN की रेड लिस्ट में सुभेद्य श्रेणी में शामिल है।

 

 भारत में गैंडे मुख्य रूप से काजीरंगा व मानस राष्ट्रीय उद्यान. पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य में पाए जाते हैं।

 

 गैंडे की सभी प्रजातियों में यह गैंडा आकार में सबसे बड़ा होता है।

 

गैंडों की संख्या में वृद्धि के लिये 'इंडियन राइनो विजन' 2020 कार्यक्रम चलाया जा रहा है।

 

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व

 

यह उत्तराखंड के नैनीताल जिले में स्थित है।

 

2 वर्ष 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर को कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में लॉन्च किया गया था, जो कॉर्बेट नेशनल पार्क का हिस्सा है। 2 कॉर्बेट नेशनल पार्क के मध्य बहने वाली प्रमुख नदियाँ रामगंगा, सोन नदी. मंडल, पलायन और कोसी हैं।

 

यूरोपीय संघ ग्रीन डील

 

चर्चा में क्यों?

 

वैश्विक जलवायु परिवर्तन समझौतों के उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफलता की स्थिति में EU द्वारा यूरोपीय संघ ग्रीन डील की घोषणा की गई।

 

प्रमुख बिंदु

 

ध्यातव्य है कि यूरोपीय संघ (EU) की वार्षिक जलवायु वार्ता स्पेन - की राजधानी मैड्रिड में एक निराशाजनक परिणाम के साथ समाप्त हुई। इसमें पेरिस समझौते के तहत स्थापित किये जाने वाले एक नए कार्बन बाजार के नियमों को परिभाषित नहीं किया जा सका। EU विश्व में चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है।

 

यूरोपीय संघ ग्रीन डील के लक्ष्य जलवायु तटस्थता

 

EU ने वर्ष 2050 तक 'जलवायु तटस्थ' बनने हेतु सभी सदस्य देशों के लिये एक कानून लाने का वादा किया है। जलवायु तटस्थता जिसे सामान्यतः शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की स्थिति के रूप में व्यक्त किया जाता है, देश के कार्बन उत्सर्जन को संतुलित करती है। जलवायु तटस्थता के अंतर्गत वातावरण से ग्रीनहाउस गैसों का कार्बन सिंक द्वारा अवशोषण और कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज जैसी निष्कासन प्रौद्योगिकियों को शामिल किया जाता है।

 

वर्ष 2030 उत्सर्जन कटौती लक्ष्य में वृद्धि

 

EU ने पेरिस समझौते के तहत घोषित अपनी जलवायु कार्ययोजना में वर्ष 1990 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक अपने उत्सर्जन में 40% की कमी करने के लिये प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

 

EU द्वारा कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिये वर्ष 1990 को आधार बनाए जाने के विपरीत अधिकतर विकसित देशों ने वर्ष 2005 को अपना आधार वर्ष बनाया या उसे वर्ष 2015 के पेरिस समझौते के तहत स्थानांतरित कर दिया है।

 

 

 

हाई रेंज माउंटेन लैंडस्केप प्रोजेक्ट

 

 

 पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय. केरल सरकार एवं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के बीच एक साझेदारी तथा ग्लोबल एनवायरनमेंट फैसिलिटी (GCF) द्वारा समर्थित हाई रेंज माउंटेन लैंडस्केप प्रोजेक्ट को केरल में नए नाम से पुनः प्रारंभ किया जा रहा है।

 

प्रमुख बिंदु

 

स्थानीय लोगों और विशेषकर इक्की जिले के लोगों के विरोध के कारण यह परियोजना वर्ष 2014 से लंबित थी जिसे अब 2,198 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में क्रियान्वित किया जा रहा है। इस परियोजना का नया नाम 'अनुनाद गाँव और उसके आस-पास के क्षेत्र में बहु-उपयोगी प्रबंधन के माध्यम से सतत् आजीविका एवं जैव-विविधता संरक्षण (Sustainable Conservation Through Multiuse Management of Anchunad and Adjoining Landscape) रखा गया है।

 

UNDP कार्यक्रम के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में व्यापक अपशिष्ट प्रबंधन, जल स्रोतों का संरक्षण, सतत् कृषि, आजीविका कार्यक्रम और हरित केरल मिशन को इस परियोजना के तहत लागू किया जाएगा। इस परियोजना में हरित केरल मिशन ग्राम पंचायत स्तर पर स्पेशल पर्पज़ व्हीकल (SPV) है और परियोजना को वन क्षेत्रों के अंदर वन विभाग द्वारा एवं वन क्षेत्रों के अंतर्गत पंचायतों में पर्यावरण-विकास समितियों तथा वन संरक्षण समितियों के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है।

 

हरित केरल मिशन

 

 केरल सरकार द्वारा राज्य को स्वच्छ और हरित बनाने के लिये वर्ष 2016 में 'हरित केरल मिशन' प्रारंभ किया गया था।

 

यह एक अम्ब्रेला मिशन है जो अपशिष्ट प्रबंधन, जैविक खेती, जल संसाधन प्रबंधन के घटकों को एकीकृत करता है। इसके तहत सरकारी कार्यालयों में हरित प्रोटोकॉल लागू किये जाने का प्रावधान है तथा इसके अंतर्गत सरकारी कार्यालयों में किसी भी बैठक या कार्यक्रम में प्लास्टिक या डिस्पोजेबल सामग्री का प्रयोग नहीं किया जाएगा।

 

सतत विकास प्रकोष्ठ

 

चर्चा में क्यों?

 

केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने खदानों के बंद होने के बाद की पर्यावरणीय चिंताओं को दूर करने के लिये सतत विकास प्रकोष्ठ (Sustainable Development Cell-SDC) स्थापित करने का निर्णय लिया है।

 

सतत विकास प्रकोष्ठ की भूमिका

 

सतत विकास प्रकोष्ठ कोयला कंपनियों को योजना तैयार करने और संसाधनों के इष्टतम उपयोग हेतु परामर्श देगा जिससे खनन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने तथा भविष्य में भी पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले इनके प्रभावों में कमी के लिये कंपनियों द्वारा उठाए गए कदमों की निगरानी की जा सके। इस संबंध में प्रकोष्ठ, कोयला मंत्रालय के नोडल कार्यालय (Point) के रूप में कार्य करेगा। यह प्रकोष्ठ माइन क्लोजर फंड सहित पर्यावरणीय शमन उपायों के लिये भविष्य की नीति की रूपरेखा भी तैयार करेगा।

 

प्रकोष्ठ के कार्य

 

आँकड़ों का संग्रहण। आंकड़ों का विश्लेषण। सूचनाओं की प्रस्तुति। सूचना आधारित योजना तैयार करना।

 

सर्वोत्तम कार्य प्रणालियों को अपनाना। परामर्श, नवोन्मेषी विचार, स्थल विशेष दृष्टिकोण के आधार पर ज्ञान को साझा करना तथा लोगों और समुदायों के जीवन को आसान बनाना।

 

उपरोक्त सभी कार्य योजनाबद्ध तरीके से निम्नलिखित चरणों में पूरे किये जाएंगे

 

चरण-I: भूमि की गुणवत्ता में सुधार और वनीकरण। चरण-II: वायु की गुणवत्ता, उत्सर्जन और ध्वनि प्रबंधन।

 

. चरण-III: खदान के जल का बेहतर प्रबंधन।

 

चरण-IV: प्रकोष्ठ खदानों के अपशिष्टों के पुनः उपयोग, पुनर्चक्रण और उचित व्यवस्था के उपाय सुझाएगा। चरण-V: खदान के आसपास सौंदर्यीकरण के बाद सतत् पर्यटन पर जोर देना।

* चरण-VI: योजना तैयार करना और निगरानी।

 

चरण-VII: नीति, शोध, शिक्षा और विस्तार

 

 

प्रतिपूरक वनीकरण

 

चर्चा में क्यों?

 

वन सलाहकार समिति ने गैर-सरकारी एजेंसियों के प्रतिपूरक वनीकरण के लिये वृक्षारोपण की ज़िम्मेदारी को कमोडिटी के रूप में पूर्ण करने संबंधी एक योजना प्रारंभ किये जाने की अनुशंसा की है।

 

मुख्य बिंदु

 

इस योजना के माध्यम से प्रतिपूरक वनीकरण की व्यवस्था लचीली हो जाएगी तथा इससे खनन या अवसंरचना विकास कंपनी (गैर-सरकारी कंपनी) अपनी इस ज़िम्मेदारी को भविष्य में पूरा कर सकती या इस ज़िम्मेदारी को हस्तांतरित कर सकती हैं।

  

 प्रस्तावित स्कीम गैर-सरकारी कंपनियों और ग्रामीण वन समुदाय को भूमि की पहचान तथा वृक्षारोपण करने की अनुमति देती है। यदि वृक्षारोपण में वन विभाग के मानदंडों को पूरा कर लिया जाता हैं तो तीन वर्षों के बाद उस वन भूमि को प्रतिपूरक वनीकरण के रूप में माना जाएगा।

 

ऐसे उद्योग जिन्हें प्रतिपूरक वनीकरण के लिये वन भूमि की आवश्यकता है, उन्हें वृक्षारोपण करने वाली इन निजी या गैर-सरकारी कंपनियों से संपर्क करना होगा तथा उन्हें इसका भुगतान करना होगा। उसके बाद इस भूमि को वन विभाग को हस्तांतरित कर दिया जाएगा और इसे वन भूमि के रूप में दर्ज किया जाएगा। 0 इन वन भूमियों को तैयार करने वाली कंपनियाँ अपनी परिसंपत्तियों का व्यापार करने के लिये स्वतंत्र होंगी। - यह स्कीम 'सतत् विकास लक्ष्यों' और 'राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान' (NDCs) जैसी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में सहायक होगी।

 

वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के प्रावधानों के तहत जब भी खनन या अवसंरचना विकास जैसे गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिये वन भूमि का उपयोग किया जाता है, तो बदले में उस भूमि के बराबर गैर-वन भूमि अथवा निम्नीकृत भूमि के दोगुने के बराबर भूमि पर प्रतिपूरक वनीकरण करना होता है। वन सलाहकार समिति द्वारा की गई प्रतिपूरक वनीकरण संबंधी अनुशंसा पर्यावरण हेतु चिंता का विषय बन गई है।

 

वन सलाहकार समिति द्वारा 'ग्रीन क्रेडिट स्कीम' (Green Credit Scheme) को प्रारंभ करने का प्रस्ताव रखा गया है। इसे पहली बार गुजरात सरकार द्वारा विकसित किया गया था परंतु वर्ष 2013 से इसे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से अनुमति नहीं मिली है।

 

 

 

प्रोजेक्ट माइनिंग

 

भारत के चुनिंदा राज्यों में भू-जल प्रबंधन में सुधार लाने के लिये विश्व बैंक ने एक नवीन ऋण आधारित परियोजना 'प्रोजेक्ट माइनिंग' प्रारंभ की है। यह परियोजना विश्व बैंक समर्थित 'अटल भू-जल योजना' को ऋण उपलब्ध कराने के लिये प्रारंभ की गई है। केंद्र सरकार भू-जल प्रबंधन की दिशा में प्रोत्साहन उपायों के रूप में स्थानीय सरकारों (जिलों और ग्राम पंचायतों सहित) को धन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा (लगभग 80 प्रतिशत) हस्तांतरित करेगी। प्रोजेक्ट माइनिंग के माध्यम से अटल भू-जल योजना में गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 78 जिलों को शामिल किया गया है। अटल भू-जल परियोजना का मुख्य उद्देश्य सहभागी भू-जल प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिये संस्थागत ढाँचे को मजबूत करना एवं सतत् भू-जल संसाधन प्रबंधन के लिये सामुदायिक स्तर पर व्यावहारिक परिवर्तन उपायों को प्रोत्साहित करना है।

 

आईकमिट'पहल

 

केंद्रीय विद्युत मंत्री ने 05 जून, 2020 को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर '#आईकमिट' (#Commit) पहल की शुरुआत को यह पहल भविष्य में सतत् रूप से एक मजबूत व लचीली ऊर्जा प्रणाली बनाने के लिये सभी हितधारकों एवं व्यक्तियों को ऊर्जा दक्षता, नवीकरणीय ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ने के लिये एक स्पष्ट आह्वान है। भारत सरकार के विद्युत मंत्रालय के तहत 'एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड' (EESL) द्वारा शुरू की गई 'आईकोमिट' पहल से सरकार, कंपनियों तथा बहुपक्षीय एवं द्विपक्षीय संगठनों, थिंक टैंक तथा व्यक्तियों आदि को एक साथ लाया जा रहा है। EESL भारत सरकार की एक एनर्जी सर्विसेज कंपनी है। यह 100% सरकारी स्वामित्व वाली, एनटीपीसी लिमिटेड, पावर फाइनेंस कारपोरेशन, ग्रामीण विद्युतीकरण निगम एव पावर ग्रिड का एक संयुक्त उद्यम है। इसका गठन वर्ष 2009 में भारत सरकार के विद्युत मंत्रालय के तहत ऊर्जा दक्ष परियोजनाओं को सुविधाजनक बनाने के लिये किया गया था। इस पहल से भारत सरकार के नेशनल इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन 2020, फेम (FAME)1 और 2, दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, सौभाग्य योजना, उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना (UDAY). अटल वितरण प्रणाली सुधार योजना (ADITYA), सौर पार्क, अटल ज्योति योजना आदि अन्य प्रमुख उपक्रम भी जोड़े जाएंगे।

 

 

जैव-विविधता संरक्षण इंटर्नशिप कार्यक्रम

 

22 मई, 2020 को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जैव-विविधता के संरक्षण के लिये 'जैव-विविधता संरक्षण इंटर्नशिप कार्यक्रम' शुरू किया। इस कार्यक्रम में एक खुली, पारदर्शी. ऑनलाइन प्रतिस्पर्द्धी प्रक्रिया के माध्यम से एक वर्ष की अवधि के लिये 20 छात्रों को स्नातकोत्तर डिग्री के साथ संलग्न करने का प्रस्ताव है। इस कार्यक्रम में 'राष्ट्रीय जैव-विविधता प्राधिकरण' (NBA) और 'संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम' नोडल एजेंसी के रूप में शामिल हैं। यह कार्यक्रम गतिशील एवं रचनात्मक छात्रों को संलग्न करना चाहता है जो प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन एवं जैव-विविधता संरक्षण के बारे में जाने और विभिन्न राज्य एवं केंद्रशासित प्रदेशों में NBA की परियोजनाओं का समर्थन करने के लिये तथा तकनीकी रूप से 'राज्य जैव-विविधता बोर्ड', 'संघ राज्य क्षेत्र जैव-विविधता परिषद' को उनके अधिदेशों के निर्वहन में सहायता प्रदान करने के इच्छुक हैं।

 

 

अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस

 

प्रत्येक वर्ष 22 मई को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस की थीम 'हमारे समाधान प्रकृति में हैं' (Our Solutions are in Nature) है। इसका उद्देश्य लोगों में जैव-विविधता के महत्त्व के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना है। अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस को मनाने की शुरुआत 20 दिसंबर, 2000 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव द्वारा की गई थी। 22 मई, 1992 को नैरोबी में जैव-विविधता पर अभिसमय (CBD) के पाठ को स्वीकार किया गया था इसलिये 22 मई को प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस मनाया जाता है।

 

ताडोबा-पार्क टाइगर रिजर्व

 

ताडोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व मध्य भारत में महाराष्ट्र रामपुर जिले में स्थित है। ताडोबा वन्य जीव अभ्यारण [को 1955 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था और अंधारी वन्यजीव अभयारण्य को वर्ष 1986 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था ताडोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व महाराष्ट्र राज्य में दूसरे टाइगर रिजर्व के रूप में प्रीजेक्ट टाइगर के तहत वर्ष 1994-95 में स्थापित किया गया था यहाँ उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन पाए जाते हैं इनमें मुख्य रूप से सागौन, ऐन, बीजा घोड़ा, हल्दू, सलाई, सेमल और तेंदुआ आदि शामिल हैं भारतीय तेंदुए, स्लॉथ बीयर, गौर, नीलगाय, बोले, धारीदार हाइना, भारतीय लघु कौन, जंगली बिल्ली, सांभर, चित्तीदार हिरण, जंगली कुत्ते आदि यहाँ पाए जाने वाले प्रमुख जीव-जंतु है।

 

गंतव्य-सरिस्का टाइगर रिजर्व

 

1 मई, 2020 को भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने 'देखो अपना देश' श्रृंखला के अंतर्गत 'गंतव्य-सरिस्का टाइगर रिजर्व' शीर्षक से 13वीं वेबिनार श्रृंखला का आयोजन किया। सरिस्का टाइगर रिजर्व, अरावली की पहाड़ियों में स्थित है जो 800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में घास के मैदानों, शुष्क पर्णपाती वनों, चट्टानी परिदृश्यों से ढका हुआ है। सरिस्का को वर्ष 1955 में अभयारण्य घोषित किया गया था तथा वर्ष 1979 में इसे एक राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया। सरिस्का भारत में पहला टाइगर रिजर्व है जहाँ रॉयल बंगाल टाइगर को सफलतापूर्वक बसाया गया है। वर्तमान में इस रिजर्व में लगभग 20 बाघ हैं। केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय द्वारा शुरू की गई इस वेबिनार श्रृंखला का उद्देश्य भारत के विभिन्न पर्यटन स्थलों के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना एवं उनको बढ़ावा देना है।

 

 

पृथ्वी दिवस-2020

 

प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस (Earth Day) मनाया जाता है। इस वर्ष पृथ्वी दिवस की थीम 'जलवायु कार्रवाई' (Climate Action) है। इसका मुख्य उद्देश्य पृथ्वी एवं पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करना है। इस वर्ष अर्थात् 22 अप्रैल, 2020 को पृथ्वी दिवस के 50 वर्ष पूरे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1970 में अमेरिकी सीनेटर गेलोर्ड नेल्सन (Gaylord Nelson) ने पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से पृथ्वी दिवस की शुरुआत की थी जिसके बाद से विश्व में पृथ्वी दिवस मनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। वर्ष 1970 में पहले पृथ्वी दिवस मनाने शुरुआत के साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका में कई महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय कानून पारित किये गए, जिनमें वर्ष 1970 में स्वच्छ वायु अधिनियम, स्वच्छ जल अधिनियम एवं लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम के साथ-साथ संयुक्त राज्य अमेरिका की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी का गठन भी शामिल था। इसके बाद विश्व के अनेक देशों में ऐसे ही पर्यावरणीय ब कानून पारित किये गए। इसके अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के कारण वर्ष 2016 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु ऐतिहासिक परिस ई समझौते पर हस्ताक्षर के लिये पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल, 2016) के दिन को ही चुना गया था।

 

 

ट्रॉपिकल बटरफ्लाई कंज़र्वेटरी

 

तितली एवं उसके पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में ट्रॉपिकल बटरफ्लाई कंजर्वेटरी (Tropical Butterfly Conservatory-TBC) का विकास किया गया है। TBC अपर अनाइकट रिजर्व फॉरेस्ट में स्थित है जो तिरुचिरापल्ली में कावेरी और कोल्लीडम नदियों के बीच स्थित है। यह 27 एकड़ में फैला है और इसे एशिया का सबसे बड़ा तितली पार्क माना जाता है। इसकी शुरुआत नवंबर 2015 में की गई थी। यहाँ एक बाह्य कंज़र्वेटरी 'नक्षत्र वनम' और भीतरी कंजर्वेटरी 'रासी वनम' के साथ-साथ गैर-अनुसूचित तितली प्रजातियों के लिये एक प्रजनन प्रयोगशाला भी है। कोल्लीडम दक्षिण-पूर्वी भारत की एक नदी है जो श्रीरंगम द्वीप पर कावेरी नदी की मुख्य शाखा से अलग होकर पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।

 

 

मुदुमलाई टाइगर रिजर्व

 

तमिलनाडु राज्य के मुदुमलाई टाइगर रिजर्व में बंदी हाथियों के लिये कायाकल्प शिविर का शुभारंभ किया गया। मुदुमलाई टाइगर रिजर्व तमिलनाडु राज्य के नीलगिरि जिले में तीन राज्यों (कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु) के त्रि-जंक्शन पर स्थित है। इसकी सीमा पश्चिम में वायनाड वन्यजीव अभयारण्य (केरल), उत्तर में बांदीपुर टाइगर रिज़र्व (कर्नाटक) और दक्षिण-पूर्व में नीलगिरि उत्तर प्रभाग तथा दक्षिण-पश्चिम में गुडालुर (Gudalur) वन प्रभाग से मिलकर टाइगर एवं एशियाई हाथी जैसी प्रमुख प्रजातियों के लिये एक बड़े संरक्षण परिदृश्य का निर्माण करती है। मोयार नदी मुदुमलाई टाइगर रिजर्व से होकर बहती है।

 

 

केव फिश

 

भारत में विश्व की सबसे बड़ी केव फिश (Cave Fish) खोजी गई। इस केव फिश को पूर्वोत्तर भारत में मेघालय राज्य की जयंतिया पहाड़ी में स्थित उम लाडाव गुफा से खोजा गया है। पृथ्वी पर भूमिगत मछली (Subterranean Fish) की लगभग 250 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। कम भोजन की उपलब्धता के कारण ये बहुत छोटी (औसतन 8.5 सेमी.) होती हैं। इस प्रजाति की आँखें नहीं है और यह गोल्डन मैसूर (Golden Mahseer) के समान प्रतीत होती है। इसे IUCN की रेड लिस्ट में संकटग्रस्त की श्रेणी में रखा गया है। गोल्डन महसीर सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाली मीठे पानी की मछली है जो पहाड़ों एवं उप-पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है।

 

 

 

दिल्ली का पहला स्मॉग टॉवर

 

दिल्ली में पहले स्मॉग टॉवर का उद्घाटन किया गया यह टॉवर प्रोटोटाइप एयर प्यूरीफायर की भाँति कार्य करेगा। इस टॉवर में स्थापित फिल्टर में एक प्रमुख घटक के रूप में कार्बन नैनोफाइबर का उपयोग किया जाएगा। गौरतलब है कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) भी इस परियोजना में शामिल है। टॉवर के शीर्ष में लगे पंखों के माध्यम से अत्यधिक मात्रा में वायु को एयर फिल्टर की तरफ खींचकर दूषित वायु को शुद्ध किया जाएगा। वर्षों से वायु प्रदूषण से प्रभावित चीन की राजधानी बीजिंग और उत्तरी शहर शीआन में दो स्मॉग टॉवर लगाए गए हैं। बीजिंग में लगाया गया टॉवर डैन रूजगार्डे द्वारा बनाया गया है।

 

 

टिड्डी दल

 

चर्चा में क्यों?

 

फसलों को बुरी तरह प्रभावित करने वाली टिड्डियों का राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र (विदर्भ क्षेत्र) के शहरी क्षेत्रों में देखा जाना चिंता का विषय है। मई के शुरुआती दिनों में ही पाकिस्तान से होते हुए टिड्डियों का आगमन राजस्थान की तरफ होने लगा था। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, टिड्डियाँ भोजन की तलाश हेतु शहरी क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं।

 

टिड्डी दल

 

टिड्डियां छोटे सींगों वाले प्रवासी फुदके होते हैं जिन पर बहुत से रंगों के निशान होते हैं। ये बहुत अधिक भोजन खाने के आदी होने के साथ-साथ झुंड (वयस्क समूह) और हापर बैंड्स (अवयस्क समूह) बनाने में सक्षम होते हैं।

 

विश्व में टिड्डियों की 10 प्रमुख प्रजातियां पाई जाती हैं- रेगिस्तानी टिड्डी, बोम्बे टिड्डी, प्रवासी टिड्डी, इटेलियन टिड्डी, मोरक्को टिड्डी, लाल टिड्डी, दक्षिणी अमेरिकन टिड्डी, आस्ट्रेलियन टिड्डी और वृक्ष टिड्डी।

 

भारत में केवल चार प्रजातियाँ अर्थात रेगिस्तानी टिड्डी (शिस्टोसरका ग्रेगेरियन), प्रवासी टिड्डी (लोकसभा माइग्रेटरी), बॉम्बे टिड्डी (नोमेडेक्रिस सिक्टा) और वृक्ष टिड्डी (ऐनेक्रिडियम प्रजाति) पाई जाती हैं।

 

रेगिस्तानी टिड्डी भारत में और इसके साथ-साथ अन्य महाद्वीपों के बीच सबसे प्रमुख नाशीजीव प्रजाति है।

 

वर्षा और परिस्थितियाँ अनुकूल होने की स्थिति में ये तेजी से प्रजनन करती हैं। मात्र तीन महीनों की अवधि में इनकी संख्या 20 गुना तक बढ़ सकती है।

 

टिड्डियों के पूर्वागमन के कारण

 

टिड्डियों के पूर्वागमन का प्रमुख कारण मई और अक्तूबर 2018 में आए मेकुनु और लुबान नामक चक्रवाती तूफान हैं, जिनके कारण दक्षिणी अरब प्रायद्वीप के बड़े रेगिस्तानी क्षेत्र झीलों में परिवर्तित हो गए थे। इस घटना के कारण टिड्डियों का भारी मात्रा में प्रजनन हुआ था। नवंबर 2019 में पूर्वी अफ्रीका में टिड्डियों ने भारी मात्रा में फसलों को नुकसान पहुँचाया था। साथ ही पूर्वी अफ्रीका में भारी वर्षा होने के कारण इनकी जनसंख्या में वृद्धि होने के पश्चात् ये दक्षिणी ईरान और पाकिस्तान की तरफ बढ़ती गई। वर्ष 1950 के बाद टिड्डियों का ऐसा हमला पहली बार देखने को

मिल रहा है। इस बार वे अच्छे मानसून के कारण लंबे समय तक इस क्षेत्र में मौजूद हैं।

 

वर्ष 2019 में मानसून पश्चिमी, विशेषकर टिड्डियों से प्रभावित क्षेत्रों में भारत में समय से पहले शुरू हुआ। यह सामान्य रूप से सितंबर/अक्तूबर माह के बजाय एक माह से नवंबर तक सक्रिय रहा। विस्तारित मानसून के कारण टिड्डी दल के लिये उत्कृष्ट प्रजनन स्थितियाँ पैदा हुई। इसके साथ ही प्राकृतिक वनस्पति का भी उत्पादन हुआ, जिससे वे लंबे समय तक भोजन के लिये आश्रित रह सकती थीं। टिड्डी दल के इस हमले को बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न चक्रवात 'अम्फान' की तेज़ हवाओं से भी सहायता प्राप्त हुई।

 

टिड्डी चेतावनी संगठन (LOGO)

 

D कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के वनस्पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय के अधीन आने वाला टिड्डी चेतावनी संगठन मुख्य रूप से रेगिस्तानी क्षेत्रों राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में टिड्डियों की निगरानी, सर्वेक्षण और नियंत्रण के लिये ज़िम्मेदार है। - इस संगठन के दो मुख्यालय हैं। फरीदाबाद में स्थित मुख्यालय प्रशासनिक कार्यों, जबकि जोधपुर में स्थित मुख्यालय संगठन के तकनीकी कार्यों की देखरेख करता है।

 

 

नवीन सागरीय सेवाएँ

 

चर्चा में क्यों?

 

इंडियन नेशनल सेंटर फॉर ओशन इन्फॉर्मेशन सर्विसेज (INCOIS). हैदराबाद ने अपने विविध उपयोगकर्ताओं को बेहतर ढंग से सागरीय सेवाएँ उपलब्ध कराने हेतु तीन नवीन सेवाएँ प्रारम्भ की है।

 

इंडियन नेशनल सेंटर फॉर ओशन इन्फॉर्मेशन सर्विसेज

 

(INCOIS)

यह संस्थान वर्ष 1999 में स्थापित पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (Ministry of Earth Sciences) के तहत एक स्वायत्त संगठन है। INCOIS सागरीय क्षेत्र में उपयोगकर्ताओं को कई प्रकार की निःशुल्क सेवाएँ प्रदान करता है। यह मछुआरों से लेकर अपतटीय तेल अन्वेषण उद्योगों जैसे विशिष्ठ उपयोगकर्ताओं को अपनी सेवाएं प्रदान करता है।

 

यह भारतीय सुनामी प्रारंभिक चेतावनी केंद्र (Indian Tsunami Early Warning Centre-ITEWC) के माध्यम से सुनामी, तूफान की लहरों आदि पर तटीय आबादी के लिये निगरानी और चेतावनी सेवाएँ प्रदान करता है।

 

भारतीय सुनामी प्रारंभिक चेतावनी केंद्र (ITEWC)

 

इंडियन सुनामी अर्ली वार्निंग सेंटर (ITEWC), INCOIS, हैदराबाद की एक इकाई है, जो वैश्विक महासागरों में होने वाली सुनामी की घटनाओं में सलाह तथा पूर्वानुमान जारी करता है।

 

ITEWC प्रणाली में 17 ब्रॉडबैंड भूकंपीय स्टेशनों का नेटवर्क है जो वास्तविक समय में भूकंपीय निगरानी करता है। साथ ही 4 बॉटम प्रेशर रिकॉर्डर (Bottom Pressure Recorders-BPR) और 25 ज्वार गेज (Tide Gauge) है, जो विभिन्न तटीय स्थानों पर स्थापित हैं। यह केंद्र पूरे हिंद महासागर क्षेत्र के साथ-साथ वैश्विक महासागरों में होने वाली सुनामी हेतु उत्तरदायी भूकंपों का पता लगाने में सक्षम है।

 

प्रारंभ की गई नवीन सेवाएँ

 

लघु पोत सलाहकार और पूर्वानुमान सेवा प्रणाली (SVAS) इसे विशेष रूप से मछली पकड़ने वाले जहाजों के परिचालन में

 

सुधार करने के लिये प्रारंभ किया गया है। छोटे मछली पानी जहाज दिशा तथा सागरीय क्षेत्र के संबंध में उचित समय पर सही जानकारी के अभाव में अन्य देशों यथा पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि के नगरीय क्षेत्रों में चले जाते हैं जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है।

 

SVAS प्रणाली भारतीय तटीय जल क्षेत्र में काम करने वाले छोटे जहाजों के लिये सलाहकार और पूर्वानुमान सेवा उपलब्ध कराएगी। SVAS प्रणाली उपयोगकर्ताओं को संभावित क्षेत्रों के बारे में चेतावनी देती है ताकि जहाज पुनः लौट सके।

 

 

एल्गी ब्लूम सूचना सेवा (ABIS)

 

इस सेवा द्वारा शैवाल प्रस्फुटन के संदर्भ में सूचना जारी की जाएगी। शैवाल प्रस्फुटन के कारण तटीय मत्स्य पालन, समुद्री जीवन और जल की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित होती हैं, अत: मछुआरों, पर्यावरण विशेषज्ञ आदि को इसके पूर्वानुमान की आवश्यकता पड़ती है। 

INCOIS-ABIS उत्तरी हिंद महासागर के ऊपर फाइटोप्लैंकटन प्रस्फुटन के अनुपात तथा सागरीय भौतिक दशाओं के आधार पर इन घटनाओं के बारे में वास्तविक समय की जानकारी प्रदान करेगा। एल्गी प्रस्फुटन के ऐसे चार संभावित क्षेत्रों की पहचान ब्लूम हॉटस्पॉट्स (Bloom Hotspots) के रूप में की गई है-उत्तर पूर्वी अरब सागर केरल का तटीय जल, मन्नार की खाड़ी और गोपालपुर (उड़ीसा) का तटीय जल।

 

 

 

रासायनिक आपदाएँ एवं उनका प्रबंधन

 

'स्टाइरीन गैस

 

चर्चा में क्यों?

 

आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित 'एलजी पॉलीमर कारखाने' में 'स्टाइरीन गैस' (Styrene Gas) का रिसाव होने से कम-से-कम 11 लोगों की मौत हो गई तथा आसपास के गाँवों के लगभग 2,000 से अधिक निवासी प्रभावित हुए हैं। 1961 में स्थापित इस कारखाने में पॉलीस्टाइरीन (Polystyrene) तथा प्लास्टिक यौगिकों का निर्माण किया जाता है।

 

स्टाइरीन (Styrene)

 

यह एक ज्वलनशील तरल गैस है, जिसका उपयोग पॉलीस्टाइरीन प्लास्टिक, फाइबर ग्लास, रबर और लैटेक्स के निर्माण में किया जाता है।

 

'यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन' द्वारा संचालित वेबसाइट टॉक्स टाउन' के अनुसार, स्टाइरीन वाहन, सिगरेट के धुएँ तथा फलों एवं सब्जियों जैसे प्राकृतिक खाद्य पदार्थों में भी पाया जाता है। स्टाइरीन के अल्पकालिक संपर्क से श्वसन संबंधी समस्या, आँखों में जलन. श्लेष्मा झिल्ली में जलन और जठरांत्र संबंधी समस्याएँ तथा दीर्घकालिक संपर्क के चलते केंद्रीय तंत्रिका तंत्र प्रभावित हो सकता है।

 

रासायनिक आपदा

 

रासायनिक आपदा से तात्पर्य उन दुर्घटनाओं से है जब रासायनिक मूल की दहनशील सामग्री के विस्फोट के कारण मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले खतरनाक रासायनिक पदार्थ वातावरण में मुक्त हो जाते हैं।

 

रासायनिक पदार्थ आधुनिक औद्योगिक प्राणियों के लिये आवश्यक होने के साथ-साथ यह सरकार, निजी क्षेत्र और समुदायों हेतु बड़े पैमाने पर आपदा प्रबंधन संबंधी बहुत ही गंभीर चिंता का विषय है।

 

रासायनिक आपदाओं से मानव जीवन को क्षति या चोट, कष्ट, पीड़ा, संपति का नुकसान, सामाजिक और आर्थिक अवरोध एवं पर्यावरणीय निम्नीकरण आदि समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।

 

भारत में रासायनिक आपदा जोखिम

 

वर्ष 1984 की भोपाल गैस त्रासदी इतिहास में सबसे विनाशकारी रासायनिक दुर्घटना थी, जहाँ लगभग 2500 से अधिक लोगों की मौत विषैली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) के आकस्मिक विमान के कारण हुई। भोपाल गैस त्रासदी के पश्चात् भी भारत में रासायनिक दुर्घटनाओं की निरंतर श्रृंखला देखी गई है। पिछले दशक में भारत में लगभग 130 रासायनिक दुर्घटनाओं की सूचना मिली हैं। भारत में खतरनाक सामग्रियों से संबंधित हज़ारों पंजीकृत और खतरनाक कारखाने (Major Accident Hazzard-MAH) मानदंड के नीचे और अनौपचारिक असंगठित क्षेत्र हैं जो जटिल स्तर के आपदा जोखिम उत्पन्न कर रहे हैं।

 

भारत सरकार की संस्थागत पहले

 

रासायनिक आपदा से निपटने के लिये देश में व्यापक कानूनी/संस्थागत ढाँचा मौजूद है, जैसे- विस्फोटक अधिनियम, 1884; पेट्रोलियम अधिनियम, 1934; कारखाना अधिनियम, 1948; कीटनाशक अधिनियम, 1968; पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986% मोटर वाहन अधिनियम, 1988; सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम, 1991; आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 तथा राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण आदि।

 

भारत सरकार ने खतरनाक रसायन निर्माण, भंडारण एवं रसायनों के आयात नियमावली, 1989; केंद्रीय मोटर वाहन नियम 1989; गैस सिलेंडर नियम, 2004; खतरनाक और अन्य अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 आदि नियमों को लागू करके रासायनिक सुरक्षा तथा रासायनिक दुर्घटनाओं के प्रबंधन पर कानूनी ढाँचे को और अधिक मज़बूत किया है।

 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) द्वारा रासायनिक आपदा प्रबंधन पर दिशा-निर्देश तैयार किये गए हैं जो सक्रिय, सहभागितापूर्ण, बहु-विषयक व बहु-क्षेत्रीय दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं।

 

 

 

दामोदर घाटी कमान क्षेत्र

 

चर्चा में क्यों?

 

भारत सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और 'विश्व बैंक' के मध्य पश्चिम बंगाल के 'दामोदर घाटी कमान क्षेत्र' (DVCA) में सिंचाई सेवाओं तथा बाढ़ प्रबंधन के लिये 145 मिलियन डॉलर के एक ऋण समझौते पर अनुबंध किया गया।

 

दामोदर नदी

 

'बंगाल का शोक' नाम से प्रसिद्ध दामोदर नदी हुगली की एक सहायक नदी है, जिसका उद्भव छोटा नागपुर पठार से होता है। यह नदी भ्रंश घाटी से प्रवाहित होती है तथा झारखंड और पश्चिम बंगाल राज्यों से होती हुई पश्चिम से पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। बोकारो, बराकर, कोनार और जमनिया इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। अंत में यह रूपनारायण नदी के जल को संग्रह करती हुई हुगली में मिल जाती है।

 

दामोदर नदी घाटी परियोजना

 

अमेरिका के 'टेनेसी घाटी प्राधिकरण' के आधार पर 'दामोदर घाटी परियोजना' के तहत वर्ष 1948 में 'दामोदर घाटी निगम' (Damodar Valley Corporation-DVC) की स्थापना की गई थी। मूल परियोजना में सात प्रमुख बांधों, जैसे- बराकर नदी पर तिलैया, मैथन एवं बाल पहाड़ी, दामोदर नदी पर पंचेत, आयर तथा कोनार और बोकारो नदी पर एक-एक बाँध का निर्माण किया जाना था, लेकिन DVC द्वारा केवल चार बाँधों (तिलैया, मैथन, कोनार और पंचेत) का निर्माण किया गया।

 

 

राष्ट्रीय आपदा मोचन बल अकादमी

 

चर्चा में क्यों?

 

2 जनवरी, 2020 को केंद्रीय गृह मंत्री ने महाराष्ट्र के नागपुर जिले में राष्ट्रीय आपदा मोचन बल अकादमी की आधारशिला रखी।

 

प्रमुख बिंदु

 

अकादमी में राष्ट्रीय आपदा मोचन बल के सदस्यों के साथ स्वयंसेवियों को भी विश्वस्तरीय प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा।

 

इसके अतिरिक्त इस अकादमी में भविष्य के आतंकी खतरों, रासायनिक हमलों आदि से निपटने के लिये भी प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस अकादमी में भारत के साथ-साथ विश्व के कई अन्य देशों (विशेष रूप से सार्क) के आपदा प्रबंधन दलों को प्रशिक्षण दिया जाएगा।

 

राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF)

 

वर्ष 2006 में 'आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005' बटालियन्स के साथ NDRF की स्थापना की गई थी।

के तहत 6 वर्तमान में NDRF में 12 बटालियन्स हैं जिनमें BSF और CRPF से तीन-तीन और CISF, SSB एवं ITBP से दो-दो बटालियन्स हैं तथा इसकी प्रत्येक बटालियन में 1149 सदस्य हैं।

 

आपदा प्रबंधन में NDRF की भूमिका

 

प्राकृतिक व मानव निर्मित आपदा में त्वरित सहायता प्रदान करना। राहत बचाव कार्यों में जुटी अलग-अलग सुरक्षा एजेंसियों के बीच समन्वय स्थापित करना।

 

आपदा क्षेत्र से लोगों को सुरक्षित बाहर निकालना एवं राहत सामग्री का वितरण करना।

 

पिछले कुछ वर्षों में NDRF वैश्विक स्तर पर अग्रणी आपदा प्रबंधन बल के रूप में उभरा है।

 

आईफ्लोस-मुंबई

 

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा मुंबई शहर में बाढ़ की तीव्रता को कम करने के लिये अत्याधुनिक एकीकृत बाढ़ चेतावनी प्रणाली 'प्लेस-मुंबई' (iFLOWS-Mumbai) को विकसित किया गया है। इस चेतावनी प्रणाली में मुंबई शहर की बाढ़ प्रतिरोधक क्षमता में सुधार के लिये विशेष रूप से अधिक वर्षा की घटनाओं एवं चक्रवातों के दौरान मुंबई के लिये प्रारंभिक चेतावनी का प्रावधान किया गया है। प्रेस-मुंबई' (IFLOWS-Mumbai) को एक मॉड्यूलर संरचना पर बनाया गया है। इसमें डाटा सिमुलेशन, बाढ़, जलप्लावन, भेद्यता, जोखिम, प्रसार मॉड्यूल और निर्णय सहायक तंत्र जैसे सात मॉड्यूल हैं। इस प्रणाली में 'मध्यम श्रेणी के मौसम पूर्वानुमान के लिये राष्ट्रीय केंद्र' (NCMRWF) और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) से मौसम मॉडल. भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM), ग्रेटर मुंबई नगर निगम (MCGM) और IMD द्वारा स्थापित रेन गेज नेटवर्क स्टेशनों से क्षेत्रीय डेटा तथा भूमि उपयोग पर थीमेटिक लेयर एवं बुनियादी ढाँचे से संबंधित जानकारी आदि शामिल की गई हैं। चूँकि मुंबई एक द्वीपीय शहर है जिसकी कनेक्टिविटी समुद्र के साथ है इसलिये शहर पर ज्वार एवं तूफान के प्रभाव की गणना करने के लिये हाइड्रोडायनामिक मॉडल (Hydrodynamic Model) और तूफान वृद्धि मॉडल (Storm Surge Model) का उपयोग किया जाता है।

 

बिम्सटेक आपदा प्रबंधन अभ्यास

 

11 फरवरी, 2020 को राष्ट्रीय आपदा मोचन बल 'बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल एंड इकॉनमिक को-ऑपरेशन' (बिम्सटेक) आपदा प्रबंधन अभ्यास के दूसरे संस्करण का ओडिशा में उद्घाटन किया। इस अभ्यास की थीम 'एक सांस्कृतिक विरासत स्थल जो भूकंप और बाढ़ या तूफान से गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त' थी। इस अभ्यास का उद्देश्य मुख्य प्राकृतिक आपदा के दौरान अधिसूचना, तैयारी एवं त्वरित प्रतिक्रिया के लिये मौजूदा आपातकालीन प्रक्रियाओं का परीक्षण करना था। इस अभ्यास में बिम्सटेक के सदस्य देशों में भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार और नेपाल ने भाग लिया, जबकि अन्य दो सदस्य देश भूटान तथा थाईलैंड ने अभ्यास में भाग नहीं लिया।

 



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