धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन
MODERN HISTORY (
18वीं शताब्दी में यूरोप में एक नवीन
बौद्धिक लहर चली, जिसके
फलस्वरूप जागृति के एक नये युग का सूत्रपात हुआ। तर्कवाद तथा अन्वेषणा की
भावना ने यूरोपीय समाज को प्रगति प्रदान की।
भारत का एक नवीन पाश्चात्य शिक्षित वर्ग भी
तर्कवाद, विज्ञानवाद
तथा मानववाद से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका।
इन पाश्चात्य शिक्षित भारतीयों ने इस नवज्ञान से
प्रभावित होकर सामाजिक एवं धार्मिक सुधार का कार्य प्रारंभ किया
तर्कवाद व नवचेतना के इस आधार पर परिवर्तन की जो प्रक्रिया
प्रारंभ हुयी उसे 'पुनर्जागरण' (Renaissance) की संज्ञा दी गयी।
पुनर्जागरण की प्रक्रिया में पुरातन मान्यताओं एवं विश्वासों पर प्रहार किये
गये तथा विभिन्न कुरीतियों का परित्याग कर नवज्ञान एवं नयी मान्यताओं को
अपनाने पर बल दिया गया।
भारत की भूमि पर उपनिवेशी शासन के प्रभाव ने
आधुनिक भारतीय इतिहास के अत्यंत संवेदनशील चरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
ब्रिटिश शासन के तले भारतीय समाज एवं संस्कृति में व्यापक परिवर्तन आया तथा वह
अपनी परंपरागत छवि से दूर हो गया। अंग्रेजों से पूर्व जितने भी बाह्य आक्रमणकारी
भारत आये या तो वे भारतीय समाज एवं संस्कृति में कोई दूरगामी प्रभाव नहीं डाल सके
या फिर यहीं की सभ्यता एवं संस्कृति में समाहित हो गये किंतु अग्रेजों का भारत में
आगमन ऐसे समय में हुआ जब यूरोप में आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति की बयार बह रही थी एवं
मानवतावाद, तर्कवाद,
विज्ञान एवं वैज्ञानिक अन्वेषण अपनी महत्ता स्थापित करते जा रहे थे।
19वीं शताब्दी में भारतीय समाज
धार्मिक अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों से जकड़ा हुआ था। हिन्दू समाज बुराइयों, बर्बरता एवं अंधविश्वासों से
ओतप्रोत था। पुरोहित, समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये
हुये थे तथा जनसामान्य पर विभिन्न कर्मकांडों तथा निरर्थक धार्मिक कृत्यों की
सहायता से वर्चस्व स्थापित कर चुके थे उन्होंने शिक्षा, ज्ञान
एवं धार्मिक क्रियाकलापों को
अपना विशेषाधिकार बताया तथा इनकी सहायता से
जनसामान्य के मनोमस्तिष्क पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की चेष्टा की।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था भी इतनी ही दयनीय थी।
समाज में सबसे निम्न स्थिति स्त्रियों की थी। लड़की का जन्म अपशकुन, उसका विवाह बोझ एवं वैधव्य (widowhood) श्राप समझा जाता था। जन्म के
पश्चात बालिकाओं की हत्या कर दी जाती थी। स्त्रियों का
वैवाहिक जीवन अत्यंत दयनीय एवं संघर्षपूर्ण था । यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु
हो जाती थी तो उसे बलपूर्वक पति की चिता में जलने को बाध्य किया जाता था। इसे 'सती प्रथा' के नाम से जाना जाता था।
राजा राममोहन राय ने इसे 'शास्त्र की आड़ में हत्या' की संज्ञा दी। सौभाग्यवश
यदि कोई स्त्री इस क्रूर प्रथा से बच जाती थी तो उसे शेष जीवन अपमान, तिरष्कार, उत्पीड़न
एवं दुख में बिताने पर बाध्य होना पड़ता था।
जाति प्रथा भी समाज की एक महत्वपूर्ण बुराई थी। वर्ण या जाति
का निर्धारण वैदिक कर्मकाण्डों के आधार पर होता था। इस जाति व्यवस्था की सबसे
निचली सीढ़ी पर अनुसूचित जाति के लोग थे, जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था तथा अछूत
माना जाता था। इन अछूतों या अश्पृश्यों, की संख्या पूरी
हिन्दू जनसंख्या का 20 प्रतिशत से भी अधिक थी। अश्पृश्य, भेदभाव एवं अनेक प्रतिबंधों के शिकार थे।
इस व्यवस्था ने समाज को कई वर्गों या समूहों
में विभक्त कर दिया। आगे चलकर यह व्यवस्था राष्ट्रीय एकीकरण एवं विकास में
महत्वपूर्ण बाधा सिद्ध हुयी।
वर्ग चेतना ने धीरे-धीरे अन्य संप्रदाय के लोगों को
हिन्दुओं से पृथक करना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में हिन्दू समाज की इस
जाति व्यवस्था ने कई अन्य क्षेत्रों में विसंगतियां एवं कठिनाइयां पैदा की।
अश्पृश्यता की कुरीति ने इस वर्ग के लोगों को समाज से लगभग पृथक
कर दिया। मानव सभ्यता एवं प्रतिष्ठा पर यह कुरीति एक शर्मनाक धब्बा था।
भारत में उपनिवेशी शासन की स्थापना पश्चात देश में
अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रसार हेतु सुनियोजित प्रयास किये गये। शहरीकरण
तथा आधुनिकीकरण ने भी लोगों के विचारों को प्रभावित किया। इन नवीन विचारों के
विक्षोभ ने भारतीय संस्कृति में प्रसार की भावना उत्पन्न की तथा ज्ञान का प्रसार
हुआ।
आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति एवं विदेशी शक्तियों को
पराजित करने की चेतना ने जागृति की नयी किरण फैलायी। धीरे-धीरे यह चेतना जागृत होने लगी
कि भारतीय सामाजिक संरचना एवं संस्कृति में दुर्बलता के कारण भारत जैसा विशाल
देश मुट्ठीभर विदेशियों के हाथों में चला गया है। यह भी महसूस किया जाने लगा
कि भारत सभ्यता की दौड़ में काफी पिछड़ गया है। इस सोच ने एक प्रतिक्रियावादी
स्वरूप को जन्म दिया।
इसी समय कुछ पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त बंगाली
नवयुवकों ने इस सोच से अभिप्रेरित होकर की भारत सभ्यता एवं विकास में काफी
पीछे छूटता जा रहा है, प्राचीन
मान्यताओं एवं मूल्यों पर कुठाराघात किया तथा मांस एवं शराब के सेवन जैसे
खान-पान के पाश्चात्य तरीकों को अपना लिया इससे यह अवश्य परिलक्षित होने
लगा कि शायद भारतीय समाज अब सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के दौर से गुजरने
वाला है।
19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में लोकतंत्र एवं
राष्ट्रवाद के उफान ने भारतीयों एवं
भारत की सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं को भी प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया। इन कारकों
ने शीघ्र ही पुनर्जागरण की प्रक्रिया के उद्भव एवं विकास के लिये पृष्ठभूमि तैयार
की। विभिन्न कारक यथा-राष्ट्रवादी भावनाओं के विकास, नयी आर्थिक शक्तियों के अभ्युदय, शिक्षा के प्रसार आधुनिक पाश्चात्य मूल्यों एवं संस्कृति के प्रभाव तथा
विश्व समुदाय को सशक्त करने की सोच ने 'सुधार'
(Reform) के मार्ग को प्रशस्त किया।
भारत में 19वीं शताब्दी में सामाजिक-धार्मिक
सुधारों की जो प्रक्रिया प्रारंभ हुयी वह उपनिवेशी शासन की उपस्थिति का ही प्रभाव
था । लेकिन कहीं भी उपनिवेशी शासकों ने इसे प्रारंभ नहीं किया।
प्रमुख विचार
यदि देश का हर किसान शिक्षित हो जाये तो भारतीय
इतिहास के पन्नों में यह बात स्वर्ण अक्षरों से लिखी जायेगी।
बम्बई के गवर्नर 1911 में अपने निजी पत्र में
वायसराय को
उभरता हुआ मध्य वर्ग राजनीतिक रूप से पिछड़ा है
तथा वह धर्म की खोज में भी इतना उत्साहित नहीं है, उसे आवश्यकता है समृद्ध सांस्कृतिक स्थायित्व की,
जिससे कि वो अपनी उपेक्षा एवं उत्पीड़न को महसूस कर सके, जो उसे उपनिवेशी शासन ने दी है।
जवाहरलाल नेहरू
जो एक बार मृत एवं दफन हो गया वह सभी के लिये सदैव
के लिये मृत एवं दफन हो गया इसलिये हमें उसे पुर्नजीवित करने के बजाय वर्तमान
परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
महादेव गोविंद रानाडे
हिन्दुत्व मेंअश्पृश्यता एक काला धब्बा है। जब तक
समाज में अश्पृश्यता का अस्तित्व है यह न केवल समस्त हिन्दू जाति के लिये अपितु
पूरे देश के लिये शर्मनाक है। जब इस कुरीति को हिन्दू समाज जड़ से, उखाड़ फेंकेगा तभी सच्चे अर्थों
में सभ्य समाज बन सकेगा और तभी समूचे विश्व को समानता का उपदेश दिया जा सकेगा |
महात्मा गांधी
मेरी अभिलाषा है कि मेरे आंगन में सभी संस्कृतियां
एक साथ फले-फूलें। लेकिन मै नहीं चाहूंगा कि मेरे पैरों तले कोई भी संस्कृति कुचली
जाये। मैं नहीं चाहता कि समाज में कोई दलित, पिछड़ा अशिक्षित या निर्धन हो।
महात्मा गांधी
सामाजिक आधारः
भारत में जो सामाजिक-धार्मिक परिवर्तन प्रारंभ
हुये उसका मुख्य सामाजिक आधार उभरता हुआ मध्य वर्ग एवं परंपरागत साथ ही पाश्चात्य
शिक्षा प्राप्त बौद्धिक वर्ग था। किंतु पश्चिम में जन्मी तत्कालीन चेतना एवं
बुर्जुआई मूल्यों तथा पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त बुर्जुआ रहित सामाजिक आधार में
महत्वपूर्ण टकराव था।
19वीं शताब्दी के बौद्धिक वर्ग में जो मुख्यतया
यूरोप का मध्य वर्ग था,
मानवतावाद एवं विज्ञानवाद के प्रसार से नवीन चेतना आयी तथा
मध्यकालीन मूल्यों एवं प्रथाओं को वर्तमान समय हेतु प्रासंगिक बनाने की तीव्र
इच्छा जागृत हुयी। तब उन्होंने पुनर्जागरण एवं धर्म-सुधार जैसी विचारधारा
का सहारा लेकर समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया। पुनर्जागरण एवं
धर्म-सुधार की प्रक्रिया में जिस वर्ग ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वह कोई औद्योगिक या व्यापारी वर्ग
नहीं था अपितु वे सरकारी कार्यालय में कार्यरत व्यक्ति, शिक्षक,
पत्रकार, वकील एवं चिकित्सक जैसे लोग थे जिनके हित कहीं न कहीं
पर एक-दूसरे के समान थे।
बौद्धिक आधारः
वे महत्वपूर्ण आधार, जिन्होंने सुधार आंदोलनों को वैचारिक धरातल प्रदान
किया उनमें धार्मिक सार्वभौमिकता, मानवतावाद एवं
तर्कवाद प्रमुख थे।
सामाजिक प्रासंगिकता को तर्कवाद के रूप में
मान्यता दी गयी।
राजा राममोहन राय ने स्पष्ट किया कि सभी धर्मों में विश्वास, एकता में आस्था, निर्गुण ईश्वर की उपासना एवं जाति प्रथा में अविश्वास ही सर्वप्रमुख कारक
हैं। उन्होंने प्राचीन विशेषज्ञों को उद्धृत किया तथा मानवीय तर्कशक्ति में आस्था
प्रकट की जो उनके विचार से प्राच्य या पाश्चात्य किसी भी सिद्धांत की अंतिम कसौटी
है। अक्षय कुमार दत्त ने भी स्पष्ट किया कि 'तर्कवाद या
हेतुवाद ही हमारा मुख्य अभिप्रेरक तत्व है'। उन्होंने बताया
कि समस्त प्राकृतिक एवं सामाजिक मान्यताओं को यांत्रिक प्रक्रिया की तरह समझना एवं
विश्लेषित करना चाहिए।
इन्हीं मान्यताओं एवं विश्वासों का प्रतिफल था कि
जहां एक ओर, ब्रह्म
समाज का यह मानना था कि कोई भी पुस्तक न तो ईश्वर है न ही देवी-देवता है, क्योंकि कोई भी पुस्तक पूर्णतया त्रुटिविहीन नहीं हो सकती चाहे वह धार्मिक
ही क्यों न हो । वहीं दूसरी ओर, अलीगढ़ आंदोलन में जोर दिया
गया कि इस्लामिक शिक्षाओं की व्याख्या वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में होनी
चाहिये।
सर सैय्यद अहमद खान ने मुस्लिम धर्म की कुरीतियों पर कड़े प्रहार
किये तथा उन्हें तत्कालीन परिस्थितियों में अप्रासंगिक बताया ।
कई अन्य बुद्धिजीवियों तथा चिंतकों ने भी धर्म एवं
संस्कृति के परम्परागत स्वरूप को बदलने की पहल की तथा सत्यता, प्रासंगिकता एवं तर्कवाद के आधार
पर उसे पुनर्व्याख्यायित करने पर जोर दिया।
स्वामी विवेकानंद के भी धार्मिक विचार अत्यधिक प्रगतिशील एवं
भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप थे उन्होंने भारतीय दर्शन एवं उसकी श्रेष्ठ परम्परा
को सर्वोपरि घोषित किया इसी समय विभिन्न वैज्ञानिक अन्वेषणों एवं वैज्ञानिक तर्कों
को भी चिंतकों ने अपनी अवधारणाओं को पुष्ट करने का आधार बनाया। उदाहरणार्थ- अक्षय
कुमार दत्त ने चिकित्सकीय तर्कों द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि बाल विवाह
हानिकारक था। कई अन्य मान्यताओं को भी विज्ञानवाद के आधार पर अप्रासंगिक सिद्ध
करने का प्रयत्न किया गया।
यद्यपि इस काल में धर्म सुधारकों ने अपने धर्म
को सुधारने का प्रयत्न किया किन्तु उनका दृष्टिकोण किसी एक धर्म तक ही सीमित न
रहकर सार्वभौमिक था।
राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्म के अतिरिक्त ईसाई
धर्म के भी अनेक गलत रीति-रिवाजों को सार्वजनिक किया। उनका विश्वास था कि मूलतः सभी
धर्म एक ही शिक्षा देते हैं उन्होंने सभी धर्मों की मौलिक एकता पर बल दिया तथा
एकेश्वरवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया।
सर सैय्यद अहमद खान का मानना था कि सभी धर्मों का
मूल उद्देश्य एक ही है। भले ही उनका तरीका भिन्न-भिन्न हो।
केशवचंद्र सेन के विचार भी इस संबंध में उदारवादी
थे तथा उन्होंने कहा कि विश्व के सभी धर्म सच्चे हैं।
अंग्रेज सरकार के रवैये ने भी भारतीय समाज में
सुधार आंदोलन शुरू करने की प्रेरणा दी। अंग्रेजों की आंतरिक मंशा थी कि भारतीय
समाज के एक वर्ग को ऐसे पाश्चात्य रंग में रंगा जाये जिससे वे ब्रिटिश हितों की
रक्षा कर सकें ।
अंग्रेज, सरकारी अधिकारियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते
थे, जो शारीरिक रूप से भारतीय एवं मानसिक रूप से अंग्रेज हो। इस मंशा के पीछे
मुख्य बात यह थी कि भारत जैसे विशाल देश में प्रशासन के सफल संचालन हेतु
अधिकारियों की एक विशाल फौज की आवश्यकता थी। इस कार्य के लिये सभी पदों पर
अंग्रेजों को नियुक्त करना अत्यंत कठिन कार्य था, फलतः वे चाहते थे कि भारतीय बुद्धिजीवियों का एक
ऐसा वर्ग होना चाहिए जो ब्रिटिश हितों का पक्षपोषण कर सके।
सामाजिक सुधार आंदोलनों में मानवीय हितों को
सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी। इस बात को प्रमुखता से इंगित किया गया कि कोई भी
परिवर्तन तभी उपयोगी है, जब उससे
मानवीय कल्याण के उद्देश्यों की पूर्ति होती हो। इसीलिये इस आंदोलन में ऐसे पाखंडी
कर्मकाण्डों को अनावश्यक बताया गया जिससे परेशानियां ज्यादा एवं लाभ कम हों।
सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन में सामाजिक
सुधारकों का अनेक अवसरों पर धार्मिक अगुआवों से तीव्र टकराव भी हुआ क्योंकि सभी
समाज सुधार आंदोलन मुख्यतयाः धार्मिक आडम्बरों एवं कर्मकाण्डों की भर्त्सना करते
थे।
सामाजिक सुधार
19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलन केवल धर्म तक
सीमित नहीं रहे अपितु इनका धर्म से ज्यादा प्रभाव सामाजिक क्षेत्र में पड़ा।
भारतीय समाज में कई ऐसी मान्यतायें व प्रथा विद्यमान थीं जिनका आधार अंधविश्वास व
अज्ञान था। इनमें से कई प्रथायें अत्यंत क्रूर व अमानवीय थीं। जैसे-सती प्रथा, बाल विवाह, बाल
हत्या इत्यादि। समाज में अशिक्षा
व घोर अंधविश्वास था। पूरा का पूरा सामाजिक ढांचा, अन्याय व असमानता पर आधारित था।
ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत का सामाजिक स्वरूप
अपरिवर्तनशील एवं स्थिर था। गांव आत्मनिर्भर थे तथा एक संकुचित दायरे में
सिमटे हुये थे। सामाजिक व्यवस्था में वर्ण एवं जाति प्रथा अत्यंत सुदृढ़
थी। सम्पूर्ण सामाजिक क्रियाकलापों का निर्धारण जाति के आधार पर ही होता
था। ब्रिटिश राज की स्थापना के पश्चात, पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ,
जिससे नव जागृति आयी।
ब्रिटिश आधिपत्य ने भारत के खोखलेपन एवं फूट को
उजागर कर दिया।
इसके पश्चात्य चिंतनशील तथा बुद्धजीवी भारतीयों ने समाज की कुरीतियों एवं
त्रुटियों को सार्वजनिक किया तथा उन्हें दूर करने के प्रयत्न किये। वे पश्चिमी
मानवतावाद, तर्कवाद,
राष्ट्रवाद एवं विज्ञानवाद से गहरे प्रभावित हुये। इन बुद्धजीवियों
ने पाश्चात्य एवं भारतीय संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन कर इसकी कमियों की ओर ध्यान
इंगित किया। पक्षपातपूर्ण अंग्रेजी व्यापारिक नीतियों के फलस्वरूप नये बिचौलियो
तथा व्यापारियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ जिसमें अंग्रेजों से सम्पर्क के कारण पाश्चात्य
विचारों का प्रसार हुआ। अंग्रेजी को शिक्षा का अनिवार्य माध्यम बनाये जाने से एक ऐसे
वर्ग का उदय हुआ जिसने अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त कर पाश्चात्य साहित्य का
अध्ययन किया तथा भारतीय समाज एवं संस्कृति की खामियों का पता लगाया। हालांकि भारत
में आधुनिक ढंग की पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं तथा
उपन्यास इत्यादि के प्रकाशन का श्रेय अंग्रेजों को ही
है। प्रेस के विकास से वैचारिक आदान-प्रदान में तेजी आयी। 1853 के
पश्चात रेलवे के विकास ने भी इस दिशा में सहयोग किया। लोगों में सामाजिक
गतिशीलता आयी। ईसाई मिशनरियों ने भारतीय समाज में प्रचलित अनेक बुराइयों एवं
अमानवीय प्रथाओं की आलोचना की फलतः इस ओर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ। सरकार के
दृष्टिकोण ने भी समाज सुधार आंदोलन प्रारंभ करने की प्रेरणा दी। वे भारतीय समाज
में परिवर्तन करके उसे पश्चिमी समाज के अनुकूल बनाना चाहते थे। फलतः एक और जहां
उन्होंने ईसाई मिशनरियों को भारतीय संस्कृति एवं समाज की निंदा करने के लिए
प्रोत्साहित किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारतीय समाज सुधारकों को भी अपना योगदान
दिया।
भारत में समाज सुधार के प्रारंभिक संगठनों में सामाजिक सभा, सर्वेन्ट आफ इंडिया सोसायटी
इत्यादि प्रमुख थे ज्योति बा फुले, गोपालहरि देशमुख के.टी.
तेलंग, बी.एम. मालाबारी, डी.के. कर्वे,
श्री नारायन गुरु, ई पी. रामास्वामी नयकर एवं
बी.आर. अम्बेडकर इत्यादि प्रमुख व्यक्ति थे, जिन्होंने प्रारंभिक
समाज सुधारकों का कार्य किया। समाज सुधार के बाद के वर्षों में इसे और सुयोग्य
नेतृत्व मिला।
मोटे तौर पर समाज सुधार अभियान के दो मुख्य
उद्देश्य थे।
पहला,
समाज में स्त्रियों की दशा में सुधार लाना तथा दूसरा, समाज से अश्पृश्यता को दूर करना।
स्त्रियों की दशा में सुधार के प्रयासः समाज सुधारकों ने
सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। समाज में स्त्रियों की दशा अत्यंत
सोचनीय थी तथा उन्हें पुरुषों से नीचा समझा जाता था। समाज में स्त्रियों की
अपनी कोई पहचान नहीं थी तथा उनकी ऊर्जा एवं योग्यता पर्दा प्रथा, सती प्रथा एवं बाल विवाह जैसी
बुराइयों
की बलि चढ़ गये थे। हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों ही समाज में महिलायें आर्थिक तथा
सामाजिक रूप से पुरुषों पर आश्रित थीं। उन्हें शिक्षा ग्रहण करने की मनाही
थी। हिन्दू स्त्रियों को सम्पत्ति का कोई अधिकार नहीं था तथा विवाह में उनकी
सहमति नहीं ली जाती थी। मुस्लिम स्त्रियों को हालांकि सम्पत्ति का अधिकार
था परंतु उन्हें पुरुषों की तुलना में आधी सम्पत्ति ही दी जाती थी लेकिन तलाक
में पुरुष और महिलाओं में बहुत ज्यादा भेदभाव किया जाता था। बहुपत्नी प्रथा
हिन्दू एवं मुसलमान दोनों समुदायों में प्रचलित थी।
पत्नी एवं मातृत्व दो ही ऐसे अधिकार क्षेत्र थे, जहां महिलाओं को समाज में
थोड़ी-बहुत मान्यता प्राप्त थी। सामान्यतयाः महिलाओं को उपभोग की वस्तु
माना जाता था तथा ऐसी अवधारणा थी कि उसका जन्म पुरुषों की सेवा करने के लिये
ही हुआ है। समाज में उनका अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं था तथा उनकी सभी
गतिविधियों एवं क्रियाकलापों का निर्धारण पुरुषों द्वारा किया जाता था यद्यपि
समाज के कुछ क्षेत्र ऐसे थे, जिनमें महिलाओं ने उल्लेखनीय
कार्य किये थे किंतु ऐसी महिलाओं की संख्या अत्यल्प थी तथा उन्हें उंगलियों में
गिना जा सकता था। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जब कभी भी महिलाओं की उपेक्षा
की गयी है तव-तव सभ्यता अवनति की ओर उन्मुख हुयी है।
समाज सुधार अभियान, स्वतंत्रता संघर्ष एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के
पश्चात अनेक एसे उदाहरण हैं, जहां महिलाओं ने उल्लेखनीय
योगदान दिया है भारतीय संविधान में महिलाओं की दशा सुधारने हेतु अनेक प्रावधान
किये गये हैं।
सभी समाज सुधारकों ने महिलाओं की दशा सुधारने हेतु
अपना ध्यान केन्द्रित किया तथा अपील की कि महिलाओं को समाज में उनका दर्जा प्रदान
किया जाये। समाज सुधारकों ने घोषित किया कि ऐसा कोई भी समाज सभ्य एवं विकसित नहीं
हो सकता जहां महिलाओं से भेदभाव किया जाता हो तथा उनकी स्थिति दोयम दर्जे की हो।
समाज सुधारकों ने स्त्रियों के विरुद्ध आरोपित की गयी विभिन्न कुरीतियों
यथा-बहुपत्नी विवाह, बाल
विवाह, सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा इत्यादि की तीखी आलोचना की
तथा इन्हें दूर करने के लिये प्रशंसनीय कदम उठाये। इन्होंने सरकार से भी अपील की
कि वह समाज में महिलाओं की दशा सुधारने हेतु पहल करे एवं स्त्रियों से संबंधित
विभिन्न कुप्रथाओं को दूर करने हेतु कदम उठाये । उन्होंने मांग की कि महिलाओं की
मध्यकालीन तथा सामंतकालीन छवि को दूर किया जाये। समाज सुधारकों के इन्हीं प्रयासों
का प्रतिफल था कि सरकार ने स्त्रियों की दशा सुधारने हेतु अनेक कदम उठाये तथा अनेक
कानून बनाये गये। सती प्रथाः राजा मोहन राय ने सती प्रथा को स्त्रियों के साथ किया
गया घोर
अन्याय बताते हुये इसे समस्त हिन्दू समाज के लिये
शर्मनाक कहा। उन्हीं के प्रयत्नों का परिणाम था कि सरकार ने सती प्रथा को
दण्डनीय अपराध घोषित किया तथा ऐसा करने वालों को दण्ड देने का नियम बनाया।
सरकार ने स्त्री को बलपूर्वक जलाये जाने को हत्या के बराबर अपराध घोषित कर
दिया तथा इस प्रथा को प्रोत्साहित करने वालों पर फौजदारी मुकदमा चलाने की
घोषणा की। 1829 में सती प्रथा के विरुद्ध एक कानून पास करके इसके 17वें
नियम के अनुसार विधवाओं का जीवित जलाना बंद कर दिया गया। सबसे पहले यह नियम
बंगाल में लागू किया गया फिर 1830 में यह मद्रास एवं बंबई में भी लागू
कर दिया गया।
शिशु वधः यह क्रूर प्रथा बंगालियों एवं राजपूतों में
प्रचलित थी। इस प्रथा के अनुसार आर्थिक बोझ मानकर या अन्य कारणों से
बालिकाओं की बचपन में ही हत्या कर दी जाती थी। प्रबुद्ध भारतीयों तथा अंग्रेज
दोनों ने ही इस प्रथा की तीव्र आलोचना की। अंततः कानून बनाकर शिशु हत्या को
साधारण हत्या के बराबर अपराध मान लिया गया। भारतीय रियासतों के रेजीडेंटों से
भी कहा गया कि वे ऐसे मामले को सदोष मानव हत्या के बराबर अपराध माने ।
1795 में बंगाल में 21वेंअधिनियम तथा 1804 में
तीसरे अधिनियम के अनुसार कानूनी तौर पर शिशु हत्या को मानव हत्या के बराबर अपराध घोषित कर दिया
गया। 1870 में इस प्रथा को रोकने के लिये कुछ और कानून बनाये गये।
विधवा पुनर्विवाहः
यह ब्रह्म समाज के कार्य क्षेत्रों में एक अत्यंत
प्रमुख मुद्दा तथा उसने इसे लोकप्रिय बनाने हेतु सराहनीय कार्य किया। लेकिन इस
क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान ईश्वरचंद विद्यासागर (1820-91) का था ।
ईश्वरचंद विद्यासागर संस्कृत कालेज कलकत्ता के आचार्य थे। उन्होंने संस्कृत और
वैदिक उल्लेखों से यह सिद्ध किया कि वेद, विधवा पुर्नविवाह की अनुमति देते हैं। उन्होंने लगभग
1 सहत्र हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार को भेजा। अंततः उनके
प्रयत्नों से 1856 में 'हिन्दू विधवा पुर्नविवाह
अधिनियम' बना, जिसके अनुसार विधवा
विवाह को वैध मान लिया गया और ऐसे विवाह से उत्पन्न हुये बच्चे वैध घोषित
किये गये। महाराष्ट्र में जगन्नाथ शंकर सेठ एवं भाऊ दाजी ने भी इस दिशा में
महत्वपूर्ण कार्य किया। विष्णु शास्त्री पंडित ने 1850 में विधवा पुर्नविवाह
एसोसिएशन की स्थापना की। 1852 में गुजरात में सत्य प्रकाश की स्थापना
करके करसोनदास मूलजी ने भी विधवा पुर्नविवाह की दिशा में सराहनीय प्रयत्न किये।
इसी प्रकार के प्रयास बंबई में फर्ग्युसन कालेज
के प्रोफेसर डी.के. कर्वे एवं मद्रास में वीरेशलिंगम पंतुलु ने भी
किये।
प्रो. कर्वे ने विधुर होने पर 1893 में स्वयं एक
विधवा से विवाह किया
था 'विधवा
पुर्नविवाह संघ के सचिव थे। 1899 में उन्होंने पूना में एक विधवा आश्रम स्थापित
किया। जिसमें विधवाओं को जीविकोपार्जन के साधन प्रदान किये जाते थे। 1906
में उन्होंने बंबई में भारतीय महिला विश्वविद्यालय की स्थापना की। भारत में
पहला कानूनी विधवा पुर्नविवाह 7 दिसम्बर 1856 को कलकत्ता में संपन्न हुआ। इसके
साथ ही बी.एम. मालाबारी, नर्मदा, जस्टिस गोविंद महादेव रानाडे, एवं के. नटराजन ने भी
विधवा पुनर्विवाह की दिशा में सराहनीय प्रयास किये।
बाल विवाहः
समाज सुधारकों ने बाल विवाह का भी तीव्र विरोध
किया, जिसके
फलस्वरूप 1872 में 'नेटिव मैरिज एक्ट' पास किया गया। इसमें 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं का विवाह वर्जित
कर दिया गया। लेकिन यह कानून बहुत प्रभावी नहीं हो सका। अंत में एक पारसी धर्म
सुधारक वी.एम. मालावारी के प्रयत्नों से 1891 में 'सम्मति आयु अधिनियम' पारित हुआ। जिसमें 12
वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गयी हर विलास शारदा के
अथक प्रयत्नों से 1930 में 'शारदा एक्ट' पारित हुआ। इस एक्ट द्वारा 18 वर्ष से कम उम्र के लड़के एवं 14 वर्ष
से कम उम्र की लड़की के विवाह को अवैध घोषित कर दिया गया। स्वतंत्रता
प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार ने 1978 में 'बाल
विवाह निरोधक अधिनियम ( संशोधित) बनाया, जिसके द्वारा बालक की विवाह की आयु 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष एवं बालिका की
14 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गयी। साथ ही इसमें बाल विवाह करने वालों के
विरुद्ध दंड का भी प्रावधान है।
स्त्री शिक्षा:
19वीं शताब्दी में समाज में यह भ्रांति व्याप्त थी
कि हिन्दू शास्त्र स्त्री शिक्षा की अनुमति नहीं देते तथा शिक्षा ग्रहण करने पर
देवता उसे वैधव्य का
दंड देते हैं। इस दिशा में सबसे पहला प्रयास
ईसाई मिशनरियों ने किया तथा 1819 में 'कलकत्ता तरुण स्त्री सभा' की स्थापना की।
1849 में कलकत्ता एज़केशन काउंसिल के अध्यक्ष
जे.ई.डी. बेथुन ने 'बेथन स्कूल'
की स्थापना की। बेथुन द्वारा किया गया प्रयास स्त्री शिक्षा की दिशा में
की गयी पहली सशक्त पहल थी। किंतु स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में ईश्वरचंद
विद्यासागर की देन महान है। वे बंगाल के कम से कम 35 बालिका विद्यालयों से
सम्बद्ध थे तथा स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में उनके कार्यों को सदैव याद किया
जायेगा।
बंबई के एलफिस्टन इंस्टीट्यूट के भी विद्यार्थियों
ने भी स्त्री शिक्षा के
क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
1854 के चार्ल्स वुड के डिस्पैच में भी स्त्री शिक्षा को बढ़ावा
देने पर बल दिया गया।
1914 में स्त्री चिकित्सा सेवा स्त्रियों को नर्सिग एवं
मिडवाइफरी के क्षेत्र में प्रशिक्षण देने का सराहनीय कार्य किया। 1916 में जब
प्रो. कर्वे ने भारतीय महिला विश्वविद्यालय प्रारंभ किया तो यह स्त्री
शिक्षा की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ। इसी वर्ष दिल्ली में 'लेडी हर्डिंग ने मेडिकल कालेज' की स्थापना की गयी।
1880 में डफरिन हास्पिटल की स्थापना के पश्चात महिलाओं को स्वास्थ्य
एवं चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध करायी जाने लगी।
स्वदेशी अभियान, बंगाल विभाजन विरोधी अभियान एवं
होमरूल आंदोलन कुछ ऐसे कार्यक्रम थे, जब प्रारंभिक तौर पर घरों की चहारदीवारी में कैद
रहने वाली महिलाओं ने इनमें उत्साहित होकर भाग लिया।
1918 के पश्चात महिलायें उग्रविरोध प्रदर्शनों में भाग लेने लगीं
तथा उन्होंने लाठी चार्ज एवं गोलियों का भी सामना किया। उन्होंने ट्रेड यूनियन
आंदोलनों, किसान
आंदोलनों एवं अन्य अभियानों में भी सक्रिय रूप से हिस्सेदारी निभायी। उन्होंने न
केवल स्थानीय निकायों एवं विधानसभा चुनावों में वोट देना प्रारंभ कर दिया बल्कि इन
चुनावों में खड़े होकर विजयें भी प्राप्त की। 1925 में सरोजिनी नायडू
को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनने का गौरव
प्राप्त हुआ। बाद में वे 1947-49 तक संयुक्त प्राप्त की राज्यपाल भी
रहीं।
1920 के पश्चात जागृति एवं आत्म-विश्वास से स्फूर्त महिलाओं ने
महिला अभियान भी प्रारंभ कर दिये। महिलाओं द्वारा अनेक संस्थाओं एवं संगठनों की
स्थापना की गयी। इसी क्रम में 1927 में अखिल भारतीय महिला कांग्रेस का गठन
किया गया।
स्वतंत्र भारत में महिलाओं हेतु वैधानिक उपायः
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात निर्मित संविधान में
महिलाओं को विधिक समानता के अधिकार दिये गये हैं
तथा उनसे किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकने
हेतु अनुच्छेद 14 एवं 15 में विभिन्न उपबंध किये गये है।
1954 के विशेष विवाह अधिनियम द्वारा अंतर्जातीय एवं
अंतर-धर्म विवाह को कानूनी मान्यता दी गयी
1955 के हिन्दू मेरिज एक्ट द्वारा एक पत्नी के रहते
हुये पुरुष द्वारा दूसरा विवाह करने पर रोक लगा दी गयी तथा ऐसा करने पर दण्ड एवं
जुर्माने का प्रावधान किया गया
1956 के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम द्वारा लड़की को भी
पुत्र के बराबर उत्तराधिकारी बनने व्यवस्था की गयी।
हिन्दू गोद एवं व्यय अधिनियम द्वारा लड़की को भी इस
संबंध मे लड़के के बराबर मान लिया गया।
1961 में मातृत्व लाभ अधिनियम बना, जिसे अप्रैल 1976 में संशोधित
करके गर्भावस्था के दौरान कार्यालयों में कार्यरत निर्देशक सिद्धांत, समान कार्य के लिये महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन दिये जाने की पहल
करते हैं। 'समान पारितोषिक ( पारिश्रमिक) अधिनियम 1976' महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन देने एवं नौकरियों में उनसे किसी भी
प्रकार का भेदभाव रोकने की व्यवस्था करता है।
'कारखाना अधिनियम 1976' द्वारा सभी कारखानों के
लिये यह अनिवार्य बना दिया गया है कि यदि किसी कारखाने में 30 या उससे अधिक
महिला कर्मचारी कार्यरत हैं तो कारखाने के मालिक या प्रबंधक 'क्रेच' (शिशु पालन गृह) की
स्थापना करेंगे, जहां
कार्य के दौरान महिलाओं के छोटे बच्चों की देखभाल की जायेगी।
1983 में संसद ने फौजदारी कानून (संशोघित) पास किया, जिसके द्वारा इंडियन पीनल कोड,
इंडियन इविडेंस एक्ट और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में महिलाओं को
अत्याचार से बचाने हेतु अनेक नये अधिनियम जोड़े गये। महिलाओं के साथ बलात्कार तथा
पति या ससुराल द्वारा सताये जाने पर कठोर दण्ड एवं कारावास की सजा निर्धारित की
गयी है।
महिला व्याभिचार अधिनियम एवं बालिका अधिनियम 1956 में, वर्ष 1986 में संशोधन किया
गया तथा यह नियम बना दिया गया कि किसी महिला या बालिका को लैंगिक रूप से प्रताड़ित
किये जाने पर कठोर दण्ड एवं कारावास की सजा दी जायेगी। इस अधिनियम द्वारा यह भी
व्यवस्था की गयी है किसी महिला का व्यावसायिक उद्देश्यों से दैहिक शोषण गंभीर
अपराध माना जायेगा ।
1886 में 'दहेज निवारण अधिनियम 1961 में अनेक संशोधन किये गये
तथा दहेज देना या ग्रहण करना दोनों ही जुर्म की श्रेणी में रख दिये गये।
वर्ष 1987 में एक अधिनियम पारित करके सती प्रथा को अक्षम्य
मानव हत्या अपराध घोषित कर दिया गया।
वर्ग आधारित शोषण के विरुद्ध संघर्ष
प्राचीन काल में स्थापित हुई हिन्दू धर्म
की चार स्तरीय जाति व्यवस्था या चतुर्वण व्यवस्था, कालांतर में अनेक जातियों एवं
उप-जातियों में विभक्त हो गयी
इसका प्रमुख कारण, प्रजातीय सम्मिलन, भौगोलिक विस्तार एवं व्यवसाय अपनाने की प्रक्रिया में परिवर्तन था। हिन्दू
चतुर्वर्ण व्यवस्था के अनुसार, जाति ही किसी व्यक्ति की
सामाजिक स्थिति का निर्धारण करती है। उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं शुद्धता
की पुष्टि उसकी जाति के द्वारा होती है। जाति ही निर्धारित करती है कि किसे शिक्षा
ग्रहण करने एवं सम्पत्ति रखने का अधिकार है, किसे,
कौन सा व्यवसाय अपनाना चाहिये तथा किसे, किस से वैवाहिक संबंध स्थापित करने चाहिए। किसी व्यक्ति के पूर्वजन्म
के कर्मों का आंकलन भी इसी बात से किया जाता था कि इस जन्म में वह किस जाति में
पैदा हुआ है। परिधान, खान-पान, वास स्थान, कृषि एवं पीने के पानी का श्रोत तथा
मंदिर में प्रवेश के अधिकार जैसे मुद्दों का निर्धारण भी
जाति के द्वारा ही होता था।
इस चतुर्वर्ण व्यवस्था का सबसे निंदनीय पहलू था
समाज में अश्पृश्यता या छुआछूत की भावना का जन्म। जो लोग निम्न जाति में
पैदा होते थे उन्हें अछूत समझा जाता था। उन्हें सामान्यतयाः गांवों से
दूर बसाया जाता था तथा उनके मंदिरों में प्रवेश करने पर पाबंदी थी। इस
वर्ग के लोग अनेक प्रकार के उत्पीड़न एवं भेदभाव के शिकार थे।
कारकः जिनके कारण जातीय कठोरता में कमी आयी
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना से जाति या
वर्ण व्यवस्था में थोड़ा परिवर्तन आया। अंग्रेजों ने सभी जातियों के लोगों को
सेना एवं अन्य प्रशासकीय क्षेत्रों में नियुक्त किया। यद्यपि तत्कालीन उच्च
वर्ग के लोगों ने इसे अपना अपमान समझा तथा इसका विरोध भी किया लेकिन, अंग्रेजों की इस नीति से निम्न
जाति के लोगों में थोड़ा सुधार अवश्य हुआ। सम्पत्ति के निजी स्वामित्व एवं भूमि
भी जातीय समीकरणों में परिवर्तन हुये। धीरे-धीरे गांवों की जाति-व्यवस्था
में थोड़ा मुक्त क्रय से परिवर्तन होने लगा। आधुनिक वाणिज्य एवं व्यवसाय के
विकास एवं परिवहन के साधानों में तीव्र वृद्धि से भी सामाजिक गतिशीलता में
परिवर्तन हुये। अंग्रेजों ने ग्राम पंचायतों की जाति पर आधारित न्याय
प्रणाली को समाप्त कर आधुनिक न्याय व्यवस्था की स्थापना की जिसमें सभी
जातियों के लिये समान न्याय की प्रणाली थीं। प्रशासनिक पदों एवं सरकारी कार्यालयों
में भर्ती के अवसर भी सभी जाति के लिये खोल दिये गये। अंग्रेजों की शिक्षा
व्यवस्था में सभी जातियों को शिक्षा ग्रहण करने के समान अवसर दिये गये।
कालांतर में समाज सुधार कार्यक्रमों ने भी
जाति पर आधारित शोषण को कम करने के प्रयत्न किये। 19वीं शताब्दी के मध्य से विभिन्न
समाज सुधार संगठनो यथा-ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज,
रामकष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल सोसायटी आदि ने भी निम्न जाति के लोगों
की दशा सुधारने के अनेक प्रयास किये। इन संगठनों ने अछूतों एवं निम्न जाति के
लोगों के मध्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य किया तथा उन्हें मंदिरों में
प्रवेश दिलाने, तालाबों से जल ग्रहण करने एवं
सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग करने की दिशा में प्रयत्न
किये। हालांकि कुछ समाज सुधारकों ने चतुर्वर्ण व्यवस्था का थोड़ा पक्ष लिया लेकिन
उन्होंने भी जाति-प्रथा एवं छुआछूत की आलोचना की। इन समाज सुधारकों ने
जाति-प्रथा की कठोरता की निंदा की तथा जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था के निर्धारण
को अनुचित बताया । उन्होंने 'कर्म' के सिद्धांत को प्राथमिकता देने की वकालत की
इन्होंने लोगों से अपील की कि वे भूख से मरने की बजाय सक्रिय हों तथा मानव जगत
के कल्याण हेतु रचनात्मक कार्यों में सहयोग करें। आर्य समाज ने शूद्रों को
उच्च शिक्षा ग्रहण करने, यज्ञोपवीत धारण करने तथा
उच्च जाति के लोगों के समान अधिकार प्राप्त करने का समर्थन किया।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी स्वतंत्रता
एवं समानता के सिद्धांत को सर्वोपरि मानते हुये जातिगत ऊंच-नीच को गलत बताया
राष्ट्रवादी नेताओं एवं संगठनों ने भी जातीय विशेषाधिकार, समान नागरिक अधिकारों के लिये
संघर्ष तथा सभी के स्वतंत्र विकास के सिद्धांत की वकालत की इस अवधि में प्रदर्शन
में जन-भागेदारी, जनसभाओं
एवं सत्याग्रह आंदोलन जैसे कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लेने के कारण दलितों
की स्थिति में कुछ सुधार हुआ।
1937 में विभिन्न राज्यों में कांग्रेसी सरकारें
बनने के पश्चात
उन्होंने दलितों के उत्थान के लिये अनेक कार्य किये। कांग्रेसी सरकारों ने
कुछ राज्यों में हरिजनों के लिये निःशुल्क शिक्षा कार्यक्रम भी प्रारंभ
किया। ट्रावनकोर, इंदौर
एवं देवास के शासकों ने स्वयं पहल करके अछूतों को मंदिरों में जाने के अधिकार दे
दिये।
गांधीजी,
समाज से छुआछत की बराई को समूल नष्ट करने के लिये कृतसंकल्पित थे। उनके
विचार मानवतावाद एवं तर्क पर आधारित थे उनके अनुसार, शास्त्र छुआछत को मान्यता
नहीं देते और यदि कुछ शास्त्रों में ऐसा प्रावधान है भी तो उस पर ध्यान नहीं देना
चाहिए क्योंकि यह बुराई सत्यता के सिद्धांतों के विपरीत है। 1932 में
उन्होंने 'अखिल भारतीय हरिजन संघ' की स्थापना की।
शिक्षा में व्यापक प्रसार एवं जनजागृति के फलस्वरूप दलित वर्ग
के लोगों में चेतना जागृत हुयी तथा उन्होंने भेदभाव एवं उत्पीड़न का विरोध करना
प्रारंभ कर दिया। दलितों ने उच्च वर्ग की ज्यादतियों एवं शोषण के विरुद्ध कई सशक्त
आंदोलन चलाये। महाराष्ट्र में माली जाति में जन्मे ज्योतिबा फुले ने
ब्राह्मण वर्ग के विशेषाधिकारों को चुनौती दी। उन्होंने दलितों में, विशेषकर दलित महिलाओं में
शिक्षा के प्रसार को सर्वश्रेष्ठ प्राथमिकता दी तथा इसके लिये अनेक स्कूल खोले
बाबा साहब अम्बेडकर, जो बाल्यावस्था से ही जातीय
भेदभाव के प्रत्यक्ष गवाह थे
आजीवन उच्च वर्ग की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। उन्होंने 'अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासघ' की स्थापना की। उन्हीं
के प्रयत्नों से प्रेरणा लेकर कई अन्य तत्कालीन दलित नेताओं ने आपस में
मिलकर 'अखिल
भारतीय दलित वर्ग संघ' की स्थापना की। डा. अम्बेडकर ने समाज की चतुर्वर्ण व्यवस्था की
घोर आलोचना की तथा स्पष्ट किया कि देश के उत्थान के लिये समाज में व्याप्त इस बुराई
को दूर किया जाना आवश्यक है।
1935 के अधिनियम में दलित एवं पिछडे वर्ग के लोगों
के लिये विशेष प्रतिनिधित्व का प्रावधान किये जाने से इस वर्ग को एक बड़ी उपलब्धि
हासिल हुयी।
19वीं शताब्दी के पश्चात कोल्हापुर के महाराजा ने
स्वयं ब्राह्मण विरोधी अभियान को प्रोत्साहन दिया। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक
में यह अभियान दक्षिण भारत में भी फैल गया तथा कम्मास, रेड्डी, वेल्लोर
एवं मुसलमानों ने भी इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। 1920 के दशक में दक्षिण
भारत में ई.वी. रामास्वामी नाइकर ने ब्राह्मणों के विरुद्ध आत्म-सम्मान
आंदोलन' प्रारंभ किया। अन्य दलित समर्थक आंदोलनों
की भांति इस आंदोलन ने भी दलितों के मंदिरों में प्रवेश करने पर लगी पाबंदी को
हटाने की मांग की। केरल में श्री नारायण गुरु ने जीवनपर्यंत दलितों की
दशा सुधारने के लिये संघर्ष किया। उन्होंने दलितों से ऊंची जातियों के विरुद्ध
संघर्ष करने की अपील की। श्री गुरु ने नारा दिया समस्त मानव जाति के लिये एक
इंश्वर, एक जाति एवं एक धर्म' है। श्री नारायण गुरु के शिष्य सहादरन अयप्पन ने इस नारे को
परिवर्तित करके समस्त मानव जाति के लिये कोई ईश्वर नहीं, कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं का नारा दिया।
परंतु इन सभी प्रयत्नों के बावजूद ब्रिटिश शासनकाल
में जाति प्रथा के विरुद्ध चल रहे अभियानों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल
सकी। क्योंकि ब्रिटिश सरकार की भी अपनी कुछ सीमायें थीं, जिनके चलते वह उच्च वर्ग या
रूढ़िवादी वर्ग के विरुद्ध खुलकर संघर्ष नहीं कर सकती थी। इसके अतिरिक्त राजनीतिक
आर्थिक उत्थान के विना निम्न जातियों की दशा में सुधार असंभव था। इस वारे में
ईमानदारीपूर्वक जो भी प्रयत्न किये गये वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही हुये। स्वतंत्रता
प्राप्ति के पश्चात बने भारतीय संविधान में छुआछूत के उन्मूलन हेतु अनेक
प्रावधान किये गये तथा अस्पृश्यता को किसी भी तरह से बढ़ावा देने के प्रयास को
अनैतिक एवं गैरकानूनी घोषित किया गया। यह ऐसे किसी प्रतिबंध पर भी रोक लगाता है,
जिसके तहत किसी भी व्यक्ति या जाति के लिये मंदिरों, तालाबों, घाटों, जलपानगृह,
छविगृह, क्लब इत्यादि में जाना वर्जित हो।
संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में भी कहा गया है कि राज्य अपनी समस्त
प्रजा के समुचित उत्थान का प्रयास करेगा। वह सभी नागरिकों को समाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक विकास के समान अवसर देगा
तथा किसी भी आधार पर उनके उत्पीड़न या भेदभाव पर रोक लगायेगा
सांस्कृतिक जागरण, सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन एवं
उसके नेताः
राजा राममोहन राय एवं ब्रह्मा समाजः राजा राममोहन राय को भारतीय
पुनर्जागरण का जनक माना जाता है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे उनके द्वारा
स्थापित ब्रह्म समाज, जो आधुनिक
पाश्चात्य विचारों पर आधारित था, हिन्दू धर्म का पहला
सुधार आंदोलन था।
एक सुधारवादी के रूप में राजा राममोहन राय, मानवीय प्रतिष्ठा के आधुनिक वैज्ञानिक
दृष्टिकोण एवं सामाजिक समानता के सिद्धांत में विश्वास रखते थे वे एकेश्वरवाद
में विश्वास रखते थे उन्होंने 1809 में एकेश्वरवादियों को उपहार नामक
प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। अपने मत के समर्थन में उन्होंने वेदों एवं उपनिषदों के
बंगाली अनुवाद लिखे तथा स्पष्ट किया कि प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र भी
एकेश्वरवाद का समर्थन करते हैं। 1814 में उन्होंने कलकत्ता में 'आत्मीय सभा' की स्थापना की तथा मूर्तिपूजा,
जाति प्रथा की कठोरता, अर्थहीन रीति-रिवाजों
तथा अन्य सामाजिक बुराइयों की भर्त्सना की। एकेश्वरवाद
के कट्टर समर्थक राजा राममोहन राय ने स्पष्ट किया कि वे सभी धर्मों की मौलिक
एकता में विश्वास रखते हैं। उन्होंने दूसरे धर्मों की उन बातों को ग्रहण किया
जिन्हें वे हिन्दू धर्म के योग्य समझते थे उनके विचारानुसार मनुष्य को स्वयं
धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन और रीति-रिवाजों का पालन करना चाहिए।
1820 में उन्होंने प्रीसेप्स आफ जीसस नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने 'न्यू टेस्टामेंट' के नैतिक एवं दार्शनिक संदेश को उसकी चमत्कारिक कहानियों से पृथक करने का प्रयास किया उन्होंने न्यू
टेस्टामेंट के नैतिक एवं दार्शनिक संदेशों की प्रशंसा की। उन्होंने ईसाई
धर्म के भी अनेक गलत रीति-रिवाजों को लोगों के सामने रखा। उनके इस प्रयास से
उन्हें ईसाई मिशनरियों का गुस्सा झेलना पड़ा तथा उनके कई ईसाई मित्र उनसे
निराश हो गये क्योंकि उन्हें यह गलतफहमी थी कि राजा राममोहन राय लोगों को हिन्दू
धर्म त्याग कर ईसाई बनने के लिये प्रोत्साहित कर रहे थे। अपने विचारों एवं
उद्देश्यों को साकार करने के लिये उन्होंने ब्रह्म सभा (जो आगे चलकर ब्रह्म समाज
बना) की स्थापना की। वे सामाजिक सुधार के द्वारा लोगों का राजनीतिक उत्थान
करना चाहते थे तथा उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना जगाना चाहते थे।
राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का कड़ा विरोध
किया। वर्ष 1818 में उन्होंने अपना सती विरोधी अभियान प्रारंभ किया। सर्वप्रथम
उन्होंने इस सामाजिक कुरीति के विरुद्ध जनमत तैयार करने का प्रयास प्रारंभ किया। एक ओर उन्होंने पुरातन
हिन्दू शास्त्रों का प्रमाण देकर धार्मिक ठेकेदारों को दिखलाया कि वे सती प्रथा की
अनुमति नहीं देते, दूसरी ओर उन्होंने लोगों को
तर्कशक्ति, नैतिकता, मानवीयता तथा
दयाभाव की दुहाई देकर इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये प्रेरित किया। उन्होंने श्मशानों (Cremation Ground) की यात्रा की तथा विधवाओं के रिश्तेदारों को समझा कर उन्हें सती होने से
रोकने के अथक प्रयास किये। उन्होंने समान विचारों
वाले व्यक्तियों की सहायता से कई ऐसे समूहों का निर्माण किया जो उन लोगों पर
कड़ी निगाह रखते थे, जो पुरातन अंधविश्वास या गहनों के
लालच में विधवाओं को सती होने के लिये उकसाते थे। राजा राममोहन राय के अथक
प्रयत्नों से इस दिशा में काफी प्रगति हुयी। उन्होंने सरकार से अपील की कि इस
बर्बर प्रथा को रोकने के लिये वह कड़े कानून बनाये। इसी के पश्चात 1829 में
लार्ड विलियम बैंटिक ने एक कानून बनाकर सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर
दिया।
राजा राममोहन राय ने स्त्रियों की हीन दशा का
भी कट्टर विरोध किया। वे स्त्रियों की निम्न सामाजिक दशा तथा उनके साथ किये जा
रहे भेदभाव से बहुत दुखी हुये। उन्होंने स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार देने
की भी मांग की वे स्त्रियों को शिक्षा देने, विधवा विवाह को प्रारंभ करने, सती प्रथा को समाप्त करने तथा बहु-पत्नी विवाह को गैर-कानूनी घोषित करने के
पक्षधर थे। स्त्रियों की दशा सुधारने के लिये उन्होंने मांग की कि उन्हें पैत्रक
एवं विरासत सम्पत्ति संबंधी अधिकार मिलने चाहिए।
राजा राममोहन राय आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा के
प्रचार-प्रसार के समर्थक थे। उन्होंने डेविड हेअर को 1817 में हिन्दू कालेज की
स्थापना में सहायता की तथा उसके द्वारा प्रस्तुत की गयी विभिन्न शिक्षा संबंधी
योजनाओं का समर्थन किया। उन्होंने अपने खर्चे पर 1817 में कलकत्ता में अंग्रेजी
स्कूल खोला जिसमें फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिकों दांते, रूसो एवं वाल्टेयर के दर्शन की
शिक्षा दी जाती थी 1825 में
उन्होंने वेदांत कालेज की स्थापना की जिसमें भारतीय विद्या और पाश्चात्य
भौतिक विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। बंगाली भाषा को
समृद्ध बनाने हेतु उन्होंने बंगला व्याकरण की रचना की तथा बंगाली पद्य
का निर्माण किया।
राजा राममोहन राय की विभिन्न भाषाओं पर गहरी
पैठ थी। वे संस्कृत, फारसी, अरबी, अंग्रेजी, फ्रेंच, लैटिन,
ग्रीक तथा अरबी जैसी एक दर्जन भाषाओं के ज्ञाता थे। विभिन्न भाषाओं के
ज्ञान के कारण उन्होंने विभिन्न भाषाओं की अनेकों पुस्तकों का अध्ययन किया।
उन्हें भारतीय पत्रकारिता का जनक कहा जाता है।
उन्होंने बंगाली, हिन्दी तथा अंग्रेजी में अनेक
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन तथा सम्पादन किया। इनके माध्यम से वे जनता को शिक्षित करते थे
तथा उनके दुखों
एवं कठिनाइयों को सरकार के समक्ष प्रस्तुत करते
थे। एक राजनीतिज्ञ के रूप में राजा राममोहन राय ने बंगाल के जमींदारों की
उत्पीडित कार्यवाहियों की घोर निन्दा की तथा रैयतों द्वारा दिये जाने वाले लगान
की अधिकतम मात्रा निर्धारित करने की मांग की । उन्होंने कर मुक्त भूमि पर
सरकार द्वारा पुनः कर लगाने के प्रयासों का विरोध किया उन्होंने निर्यात की
जाने वाली भारतीय वस्तुओं पर प्रशुल्क घटाने की मांग की तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के
व्यापारिक विशेषाधिकारों को समाप्त करने हेतु सरकार को ज्ञापन दिया। वे उच्च
सेवाओं के भारतीयकरण तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका से पृथक किये जाने के
कट्टर समर्थक थे। उन्होंने मुकदमों की सुनवाई जूरी प्रथा के माध्यम से करने
एवं भारतीयों तथा यूरोपियों के मध्य न्यायिक समानता का भी मांग की। राजा राममोहन
राय का राजनीतिक दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय था। वे अंतरराष्ट्रीयता और विभिन्न
राष्ट्रों के पारस्परिक सहयोग में दृढ़ विश्वास रखते थे . वे अंतरराष्ट्रीय
स्वतंत्रता, समानता
एवं न्याय
के हिमायती थे इससे स्पष्ट होता है कि उन्हें तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों
की गहरी समझ थी। उन्होंने स्पेन, अमेरिका तथा नेपल्स के स्वतंत्रता अभियानों का
समर्थन किया जब वे इंग्लैंड में रह रहे थे तब उन्होंने आयरलैण्ड के जमींदारों
द्वारा वहां के किसानों पर किये जा रहे अत्याचार की निंदा की तथा घोषणा की कि
यदि इस संबंध में इंग्लैण्ड की संसद में जो सुधार विधेयक लाया गया है यदि वह गिर
गया तो वे इंग्लैण्ड छोड़कर चले जायेंगे।
अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों यथा-डेविड हेअर, अलेक्जेंडर डफ, देवेंद्रनाथ टैगोर, पी.के. टैगोर, चंद्रशेखर देव तथा ताराचंद चक्रवर्ती इत्यादि उनके प्रमुख सहयोगी थे।
अगस्त, 1828 राजा राममोहन राय ने 'ब्रह्म सभा' का गठन किया, जिसे
बाद में नाम परिवर्तित कर 'ब्रह्म समाज' कहा जाने लगा। ब्रहा समाज के अनुसार, ईश्वर
एक है और सभी सदगुणों का केंद्र व भंडार है। परंतु परमात्मा निर्गुण एवं
निराकार है। वह न कभी जन्म लेता है न कभी मरता है। वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सृष्टि का पालनकर्ता तथा अमर है
इसीलिये मूर्तिपूजा अनावश्यक है। ब्रह्म समाज के भवन में किसी मूर्ति,
चित्र, पेन्टिग इत्यादि के पूजा करने की
अनुमति नहीं थी। वे धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन या पूजा में भी विश्वास नहीं रखते
थे क्योंकि उनके अनुसार कोई भी पुस्तक त्रुटिरहित नहीं हो सकती है। हिन्दू धर्म का
शुद्धीकरण एवं एकेश्वरवाद या निर्माण परमात्मा में विश्वास, ब्रह्म
समाज का सबसे प्रमुख उद्देश्य था। उनके ये उद्देश्य तर्क एवं वेदों तथा उपनिषदों
की शिक्षाओं पर आधारित थे। ब्रह्म समाज ने सर्व-धर्म समभाव पर बल दिया।
उसके अनुसार, सभी धर्मों में सत्य निहित है अतः व्यक्ति को
अपने धर्म के साथ सभी धर्मों का आदर करना चाहिए। ब्रह्म समाज. नैतिकता पर
बल देता था एवं कर्मफल में उसका विश्वास था। ब्रह्म समाज के समस्त कार्यों
में अहिंसा का स्थान प्रमुख था। उसके सभाभवन में किसी प्रकार की जीव हिंसा नहीं हो
सकती थी।
राजा राममोहन राय का उद्देश्य किसी नये धर्म की
स्थापना करना नहीं था। अपितु, हिन्दू धर्म का शद्धीकरण करना चाहते थे, जो उनके
अनुसार विभिन्न बुराइयों से जकड़ा हुआ है राजा राममोहन राय के सुधारवादी एवं
प्रगतिशील विचारों का तत्कालीन हिन्दू रूढ़वादियों ने कड़ा विरोध किया। राजा
राधाकांत देव ने ब्रह्म समाज के सिद्धांतों का विरोध करने हेतु 'धर्म सभा का गठन किया।
1833 में ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में राजा राममोहन
राय का निधन हो जाने से ब्रह्म समाज
को गहरा आघात लगा।
राजा राममोहन राय की मृत्यु के पश्चात इसकी बागडोर
रविंद्रनाथ टैगोर के पिता महिर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर (1817-1905) ने संभाली।
वे 1842 में ब्रह्म समाज में सम्मिलित हुये। देवेंद्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व में
तत्कालीन भारतीय परिस्थितियों एवं पाश्चात्य विचारों का सुंदर समन्वय था। उन्होंने
ब्रह्म समाज को नयी चेतना एवं नया स्वरूप प्रदान किया। देवेंद्रनाथ टैगोर पहले
ज्ञानवर्धिनी एवं तत्वबोधिनी सभा से संबंधित थे, जिनका उद्देश्य भारत की प्राचीन
सभ्यता एवं राजा राममोहन राय के विचारों का प्रसार करना था।
तत्वबोधिनी सभा, जिसका गठन 1839 में किया गया था, बंगाली भाषा में एक पत्रिका 'तत्वबोधिनी पत्रिका' का प्रकाशन करती थी। इन
दोनों सभाओं के ब्रह्म समाज में जुड़ने से समाज में एक नयी ऊर्जा व शक्ति का संचार
हुआ। धीरे-धीरे ब्रह्म समाज की सदस्य संख्या बढ़ने लगी तथा ईश्वरचंद्र
विद्यासागर तथा अश्वनी कुमार दत्त जैसे महान विचारक इस समाज से जुड़ गये।
देवेंद्रनाथ टैगोर ने हिन्दू धर्म को सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया तथा ब्रह्म
समाज को ईसाई तथा वेदांतिक कर्मकाण्ड से बचाने का प्रयास किया 1843 में अलेक्जेंडर
डफ और प्रेसवीटेरियन चर्च से टैगोर का वाद-विवाद आरंभ हो गया इसके पश्चात ईसाई
पादरियों ने हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने तथा धर्म परिवर्तन के प्रयास प्रारंभ कर
दिये। ब्रह्म समाज ने ईसाई पादरियों की इस चुनौती का दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया।
देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में ब्रह्म समाज ने विधवा विवाह का समर्थन,
स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, बहुपत्नी प्रथा का
उन्मूलन तथा
आडम्बरपूर्ण धार्मिक कर्मकाण्डों को समाप्त करने जैसे सराहनीय
कार्यों पर बल दिया।
1858 में केशवचंद्र सेन द्वारा ब्रह्म समाज की
सदस्यता ग्रहण करने के पश्चात
देवेंद्रनाथ टैगोर ने उन्हें समाज का नया आचार्य नियुक्त किया। केशवचंद्र
सेन की शक्ति, वाकपटुता
और उदारवादी विचारों ने ब्रह्म समाज को अत्यंत लोकप्रिय बना दिया। सेन के
प्रयत्नों से शीघ्र ही इसकी शाखायें बंगाल से बाहर संयुक्त प्रात,
बंबई, मद्रास एवं पंजाब में भी खुल गयीं। लेकिन शीघ्र ही केशवचंद्र सेन के उदारवादी विचारों के कारण
उनमें तथा देवेंद्रनाथ टैगोर में मतभेद हो गये केशवचंद्र सेन समाज के
अंतरराष्ट्रीयकरण, समाज में सभी धर्मों की शिक्षा तथा
अंतरराष्ट्रीय विवाह को प्रोत्साहन जैसे मुद्दों पर बल
दे रहे थे, जिसके कारण देवेंद्रनाथ टैगोर से उनके मतभेद और
गहरे हो गये। 1865 में सेन को आचार्य की पदवी से बर्खास्त कर दिया गया। 1866
में उन्होंने 'भारतीय ब्रह्म समाज ( नव विधान ब्रह्म
समाज) के नाम से एक नयी सभा का गठन किया। इसके पश्चात
देवेंद्रनाथ टैगोर के ब्रह्म समाज को 'आदि ब्रह्म समाज' के नाम से जाना जाने लगा।
1878 में केशवचंद्र सेन ने अपनी 13 वर्षीय
पुत्री का विवाह कूच बिहार के राजा के साथ वैदिक कर्मकाण्डों से किया। जिसका
केशवचंद्र सेन के कुछ साथियों ने कड़ा विरोध किया। इसके पश्चात केशवचंद्र सेन
भारतीय ब्रह्म समाज से अलग हो गये तथा उन्होंने 'साधारण ब्रह्म समाज' की स्थापना की। इसके पश्चात श्री सेन इतिहास के अंधकार में खो गये। मद्रास में
ब्रह्म समाज के अनेक केंद्र खोले गये। पंजाब में दयाल सिंह ट्रस्ट ने
ब्रह्म समाज के सिद्धांतों को प्रसारित करने का बीड़ा उठाया। 1910 में ट्रस्ट ने
इस कार्य के लिये लाहौर में दयाल सिंह कालेज की भी स्थापना की।
एच.सी.ई. जाचारियस के मतानुसार 'आधुनिक भारत में हिन्दू धर्म,
समाज, या राजनीति में से चाहे कोई क्षेत्र हो
उसमें सुधार लाने का सूत्रपात्र राजा रामामोहन राय ने ही किया संक्षेप में ब्रह्म
समाज के योगदान को निम्न प्रकार से बिंदुसार किया जा सकता है:
(i) बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा का विरोध
(ii) बहुपत्नी प्रथा एवं सती प्रथा का विरोध
(3) विधवा विवाह का समर्थन एवं बाल विवाह का विरोध
।
(iv) नैतिकता पर बल, कर्मफल में
विश्वास, सर्वधर्म समभाव, निर्गुण
ब्रह्म की उपासना।
(v) धार्मिक पुस्तकों, पुरुषों
एवं वस्तुओं की सर्वोच्चता में अविश्वास।
(vi) छुआछूत, अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव का विरोध ।
(vii) बांग्ला एवं अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार को
समर्थन
समाज सुधार के दृष्टिकोण से ब्रह्म समाज के अनेक सिद्धांतों
एवं अंधविश्वासों पर प्रहार किया। समाज ने हिन्दुओं द्वारा विदेश यात्रा को
धर्म-विरुद्ध घोषित किये जाने की कड़ी आलोचना की। इसने समाज में स्त्रियों के
उत्थान हेतु कार्य किया,सती प्रथा
का विरोध किया, पर्दा प्रथा को हटाने की मांग की, बाल विवाह एवं बहुपत्नी विवाह को हतोत्साहित किया, विधवा
पुर्नविवाह का समर्थन किया एवं स्त्रियों को शिक्षा दिलाने जैसे कई महत्वपूर्ण
कार्य किये। समाज ने जाति प्रथा तथा छुआछूत जैसी बुराइयों का भी विरोध किया। इस
प्रकार विभिन्न क्षेत्रों में ब्रह्म समाज द्वारा किये गये कार्य अविस्मरणीय
रहेंगे
प्रमुख विचार
मुझे कहते हुय दुःख होता है कि वर्तमान समय में
हिन्दुओं की जो धार्मिक व्यवस्था है वह ऐसी नहीं है कि वो हिन्दुओं के राजनीतिक
हितों का पक्षपोषण कर सके। इन परिस्थितियों में हिन्दू धर्म में कुछ परिवर्तन
अपेक्षित हैं, जिससे
हिन्दुओं को लाभ एवं सामाजिक बल मिल सके।
राजा राममोहन राय
मानव सभ्यता का आदर्श अलग-अलग रहने में नहीं बल्कि
चिंतन तथा क्रिया के सभी क्षेत्रों में व्यक्तियों और राष्ट्रों के आपसी भाई-चारे
में ही है।
राजा राममोहन राय
प्रार्थना समाजः
1867 में बंबई में केशवचंद्र सेन के सहयोग से
आत्माराम पाण्डुरंग ने प्रार्थना समाज की स्थापना की। वर्ष 1849 में महाराष्ट्र में 'परम हंस सभा' के नाम से धार्मिक समाज
का शुभारंभ हुआ। यथार्थ में यह ब्रह्म समाज की ही एक शाखा थी लेकिन यह गुप्त समाज
था जो मुख्यतयाः समाज सुधारक गतिविधियों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करता था। इसका
प्रभाव क्षेत्र काफी सीमित था। वर्ष 1860 में इस सभा का विघटन हो गया तथा इसी
का परिवर्धित एवं संशोधित रूप 1867 में प्रार्थना समाज के रूप में सामने आया ।
ब्रह्म समाज के समान यह भी एक बौद्धिक एकतावादी संगठन था लेकिन इसमें धार्मिक
सुधारों की अपेक्षा सामाजिक सुधारों पर अधिक बल दिया गया था। प्रार्थना समाज के
मुख्य उद्देश्व इस प्रकार थे-
(i) जाति व्यवस्था को अस्वीकृति करना (ii) स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन
(iii) विधवा पुर्नविवाह को प्रोत्साहन तथा
(iv) लड़के एवं लड़की दोनों की विवाह की आयु में वृद्धि
करना।
प्रार्थना समाज में अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों की
सहभागिता थी, जिनमें
महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901), आर.जी. भंडारकर
(1837-1925) एवं एन. जी. चंदावरकर (1855-1923) प्रमुख थे।
प्रमुख विचार
ईश्वर की सच्ची उपासना वही है, जिससे न केवल उस व्यक्ति विशेष का
अपितु समस्त मानव जाति का कल्याण हो सके।
केशवचंद्र सेन
यंग बंगाल आंदोलन तथा हेनरी विवियन डेरोजियो:
19वीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक में बंगाल के
बुद्धजीवियों में एक रैडिकल या उग्रवादी प्रवृत्ति का जन्म हुआ। यह प्रवृत्ति
राजा राममोहन राय के विचारों से भी ज्यादा आधुनिक एवं क्रांतिकारी थी। इस
आंदोलन को ही 'यंग बंगाल
आंदोलन'
के नाम से जाना जाता है। हिन्दू कालेज में 1826 से 1831 तक प्राध्यापक के रूप
में कार्य करने वाले एक तरुण आंग्ल-भारतीय, हेनरी विवियन डेरोजियो इस आंदोलन के प्रवर्तक एवं
नेता थे। अद्भुद प्रतिमा के धनी डेरोजियो, फ्रांस
की क्रांति से गहरे प्रभावित थे तथा अतिवादी विचार रखते
थे उन्होंने एवं उनके अनुयायियों ने जर्जर एवं पुराने रीति रिवाजों का विरोध किया।
अध्यात्मिक उन्नति और समाज सुधार के लिये उन्होंने 'एकेडमिक
एसोसिएशन' और 'सोसायटी फार द एक्वीजीशन
आफ जनरल नालेज' जैसे कई संगठनों की स्थापना की। उन्होंने
'एंग्लो इंडियन हिन्दू एसोसिएशन', 'बंगहित
सभा' और 'डिबेटिंग क्लब' का भी गठन किया कट्टर हिन्दुओं से मतभेद के कारण 1831 में डेरोजियो को
हिन्दू कालेज से निकाल दिया गया। इसके पश्चात वे 'ईस्ट
इंडिया' नामक दैनिक समाचार पत्र का संपादन करने लगे इस आंदोलन का प्रमुख केंद्र हिन्दू कालेज ही था।
डेरोजियो के समर्थकों ने पुरानी एवं ह्यासोन्मुख प्रथाओं तथा सामाजिक एवं
धार्मिक अनुष्ठानों की घोर निंदा की तथा नारी शिक्षा की जोरदार वकालत
की।
यंग बंगाल आंदोलन कई वर्षों तक चला। लेकिन प्रारंभ
से ही हिन्दू कट्टपंथियों के विरोध एवं हिन्दू कालेज के प्रबंधकों द्वारा इस
आंदोलन से सम्बद्ध विद्यार्थियों पर प्रतिबंध लगा दिये जाने से यह आंदोलन सफल
नहीं हो सका।
1831 में ही डेरोजियो की मृत्यु हो जाने से यह
आंदोलन पूरी तरह बिखर गया। यद्यपि यह आंदोलन ज्यादा सफल नहीं रहा किंतु इसके
बावजूद भी इसने राजा राममोहन राय के विचारों को आगे बढ़ाया तथा कई अन्य क्षेत्रों
में प्रसंशनीय कार्य किये। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने इस आंदोलन को बंगाल में आधुनिक
सभ्यता का जनक कहा है।
ईश्वरचंद्र विद्यासागरः
प्रसिद्ध विद्वान एवं समाज-सुधारक ईश्वरचंद्र
विद्यासागर के व्यक्तित्व में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारों का सुंदर समन्वय
था। वे ऐसे उच्च नैतिक मूल्यों में विश्वास करते थे जो मानवतावाद के प्रति
समर्पित तथा गरीबों के लिये उदार हों। 1850 में वे संस्कृत कालेज के
प्रधानाचार्य बने। उन्होंने संस्कृत अध्ययन के लिये ब्राह्मणों के एकाधिकार को
चुनौती दी तथा गैर-ब्राह्मण जातियों को संस्कृत अध्ययन के लिये प्रोत्साहित किया।
उन्होंने संस्कृत शिक्षा के परम्परागत स्वरूप को समाप्त किया तथा संस्कृत कालेज
में अंग्रेजी शिक्षा का प्रबंध किया, जिससे कालेज में आधुनिक दृष्टिकोण का प्रसार हो सके।
उन्होंने संस्कृत शिक्षा को नया रूप प्रदान किया और इसे पढ़ाने के लिये नई तकनीक
विकसित की। उन्होंने संस्कृत पढ़ाने के लिये बंगला भाषा में वर्ण-माला भी लिखी।
विद्यासागर ने विधवा पुर्नविवाह के लिये एक सशक्त आंदोलन चलाया जिसके
फलस्वरूप सरकार ने विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की। उन्होंने
बपहुत्नी विवाह एवं बाल विवाह का भी कड़ा विरोध किया उन्होंने स्त्री शिक्षा को
प्रोत्साहन देने हेतु अथक प्रयत्न किया। वे कम से कम 35 बालिका विद्यालयों से
समवद्ध थे, जिनमें से कई स्कूलों का संचालन वे स्वयं अपने
खर्चे से करते थे। 1849 में स्थापित वेथुन स्कूल के सचिव के रूप में उन्होंने भारत
में स्त्रियों के लिये उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किये।
1840 एवं 1850 के दशक में स्त्री शिक्षा के
क्षेत्र में चलाये गये सशक्त आंदोलन के फलस्वरूप ही कलकत्ता में बेथुन स्कूल की
स्थापना हुयी थी। यद्यपि इस आंदोलन ने अनेक कठिनाइयों का सामना किया। स्कूल के
युवा छात्रों ने उनके विरुद्ध नारे लगाये तथा उनका अपमान किया गया। कई अवसरों पर
छात्रों के अविभावकों के उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया। कई अविभावकों का मानना था
कि स्त्रियों को पाश्चात्य एवं उच्च शिक्षा देने से वे पतियों को अपना गुलाम बना
लेंगी। फिर भी समाज सुधार के विभिन्न क्षेत्रों में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का योगदान
अविस्मरणीय है।
बाल शास्त्री जाम्बेकरः
ये भी एक प्रसिद्ध समाज सुधारक थे, जिनका कार्यक्षेत्र बंबई था।
इन्होंने ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को चुनौती दी तथा हिन्दुत्व को लोकप्रिय बनाने
का प्रयास किया। 1832 में उन्होंने साप्ताहिक पत्र दर्पण का प्रकाशन प्रारंभ
किया।
विद्यार्थियों की शैक्षिक एवं वैज्ञानिक समितियां
इन्हें ज्ञान प्रकाश मंडलियों के नाम से भी जाना जाता था। इनकी दो प्रमुख शाखायें
थीं-पहली, मराठी
एवं दूसरी, गुजराती। जिनका गठन 1848 में कुछ शिक्षित युवा
भारतीयों द्वारा किया गया था। इन मंडलियों द्वारा सामाजिक प्रश्नों एवं लोकप्रिय
विज्ञान पर व्याख्यानों का आयोजन किया जाता था इनका प्रमुख उद्देश्य बालिकाओं को
स्कूलों में प्रवेश लेने के लिये प्रोत्साहित करना था।
परमहंस मंडलियां:
1849 में महाराष्ट्र में अनेक परमहंस मंडलियों का
गठन किया गया। इन मडलियों के सदस्य केवल एक ही ईश्वर में विश्वास करते थे। वे जाति
प्रथा की बुराई को समाप्त करना चाहते थे। इन मंडलियों की दावतों में निम्न जाति के
लोगों द्वारा खाना बनाया जाता था तथा उसे ही मंडली का हर सदस्य ग्रहण करता था चाहे
भले ही वो उच्च जाति का हो । इन मंडलियों ने स्त्री शिक्षा एवं विधवा पुर्नविवाह
की भी वकालत की। बाद में महाराष्ट्र के अनेक स्थानों जैसे पूना,सतारा आदि में भी इन मंडलियों की
शाखायें खुल गयीं।
सत्यशोधक समाज एवं ज्योतिबा फुले:
ज्योतिबा फुले माली जाति में पैदा हुये थे।
उन्होंने 'सत्यशोधक
समाज की स्थापना की। इस समाज
के नेता एवं सदस्य निम्न जाति के लोग थे। इस समाज का मुख्य उद्देश्य
(i) सामाजिक सेवा तथा
(ii) स्त्रियों एवं निम्न जाति के लोगों के बीच शिक्षा
का प्रचार करना था।
फुले ने 'सार्वजनिक सत्यधर्म के समर्थन' एवं
'गुलामी के विरुद्ध कार्य किया। उनके ये कार्य जनसामान्य के
प्रेरणास्रोत बने ।
ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणों के प्रतीक चिन्ह 'राम' के
विरोध में 'राजा बालि को अपने आंदोलन का प्रतीक चिन्ह बनाया।
फुले, समाज में जाति प्रथा के पूर्ण उन्मूलन एवं
सामाजिक-आर्थिक समानता के पक्षधर थे। उन्होंने संस्कृत हिन्दुत्व का विरोध किया।
उनके आंदोलन ने समाज में व्राह्मणों के वर्चस्व को समाप्त कर दलितों की पहचान
बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने पुरोहित वर्ग को समाज का शोषक कहा।
उन्होंने अपनी पत्नी की सहायता से पूना में एक बालिका स्कूल की स्थापना की तथा
महाराष्ट्र में अनेक स्थानों पर विधवा पुर्नविवाह का कार्यक्रम प्रारंभ किया।
गोपालहरि देशमुख 'लोकहितवादी
इन्होंने तार्किक सिद्धांतों तथा आधुनिक एवं मानवतावादी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के
आधार पर भारतीय समाज को पुर्नगठित करने की मांग की उन्होंने हिन्दू रूढ़िवादिता
की आलोचना की तथा सामाजिक एवं धार्मिक समानता पर बल दिया। उन्होंने घोषणा की
कि यदि कोई धर्म समाज सुधार की अनुमति नहीं देता तो उस धर्म को परिवर्तित कर देना
चाहिए'।
गोपाल गणेश अगरकरः
ये सशक्त मानवीय तकों के समर्थक थे। इन्होंने
परम्परागत मूल्यों एवं महत्वहीन प्रथाओं पर अंधविश्वास की तीव्र भर्त्सना की।
द सर्वेट आफ इंडिया सोसायटीः
इसकी स्थापना 1905 में कांग्रेस के उदारवादी
नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने की थी । इसका उद्देश्य राष्ट्रीय मिशनरियों
को देश की सेवा के लिये प्रशिक्षित करना, देश सेवा के कार्य को संवैधानिक तरीके से सम्पन्न
करने के लिये प्रोत्साहित करना तथा लोगों को स्वार्थरहित होकर धार्मिक भावना के
साथ कार्य करने के लिये तैयार करना था। 1915 में गोपाल कृष्ण की मृत्यु के पश्चात
श्रीनिवास शास्त्री ने इसका अध्यक्ष पद संभाला ।
सोशल सर्विस लीगः
इसकी स्थापना गोखले के समर्थक नारायण मल्हार जोशी
ने बम्बई में की। इसका उद्देश्य सभी लोगों को जीवन एवं कार्य की
बेहतर दशायें उपलब्ध कराना था इस लीग ने कई स्कूलों, पुस्तकालयों, अध्ययन कक्षो,
नर्सरी कक्षाओ एवं सहकारी समितियों की स्थापना की। इसके कार्यकर्ता
न्यायालयों के एजेंट के रूप में कार्य करते थे तथा गरीबों एवं अशिक्षित लोगों को
न्याय दिलाने हेतु उनकी ओर से पैरवी करते थे। झुग्गी-झोपड़ी में निवास करने वाले
लोगों की सहायता, व्यायामशालाओं की स्थापना, नाट्य गृहों की स्थापना, जागरुकता बढ़ाने वाले कार्यक्रमों
का मंचन, स्वच्छता अभियान, चिकित्सा
सहायता, युवा क्लबों की स्थापना, स्काउट
सेवा दलों की स्थापना जैसे कार्य भी लीग द्वारा किये जाते है सोशल सर्विस लीग के
संस्थापक नारायण मल्हार जोशी ने ही 1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की
स्थापना की।
रामकृष्ण आंदोलनः
बंगाल में ब्रह्म समाज के प्रयत्नों से बौद्धिक
वर्ग में एक नवीन चेतना जागृत हुयी तथा वे आडम्बरपूर्ण रीति रिवाजों से हटकर
मुक्ति एवं
योग जैसे मार्गों को अपनाने लगे। दक्षिणेश्वर
(कलकत्ता) के काली मंदिर के पूजारी रामकृष्ण परमहंस (1834-86) के उपदेशों ने
रामकृष्ण आंदोलन की पृष्ठिभूमि तैयार की। उन्होंने, चिंतन, सन्यास एवं
भक्ति के परम्परागत तरीकों से धार्मिक मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ईश्वर और धार्मिक
मुक्ति पाने के कई मार्ग हैं, इन मार्गों में सबसे
श्रेष्ठ मार्ग मानव सेवा है। क्योंकि मानव इश्वर का
मूर्त रूप है इसलिये मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। उन्होंने अपनी नम्रता,
मानवता और आध्यात्मिकता के द्वारा कलकत्ता विश्वविद्यालय के अनेक
विद्यार्थियों को प्रभावित किया। इन्हीं विद्यार्थियों में से एक का नाम नरेंद्र
दत्त था, जो आगे चलकर 'विवेकानंद' के नाम से विख्यात हुये। रामकृष्ण परमहस ने, 'परमहंस मठ' की स्थापना की। उन्होंने ध्यान एवं
भक्ति को पाश्चात्यीकरण एवं आधुनिकीकरण के सम्मिलित प्रयोग के रूप में
ईश्वरोपासना का उपाय बताया। उन्होंने कहा सभी धर्मों का आधार एक ही है। राम,
हरि, ईशु, अल्लाह सभी एक
ही ईश्वर के अलग-अलग नाम हैं तथा विभिन्न धर्मों में ईश्वर को पाने के तरीके
भिन्न-भिन्न हैं लेकिन उद्देश्य एक ही है 1886 में रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु हो
गयी। स्वामी विवेकानंद का जन्म 1862 में हुआ। वे आधुनिक जिज्ञासा के कारण
रामकृष्ण के संपर्क में आये तथा उनके शिष्य बन गये। इन्होंने रामकृष्ण परमहंस के
उपदेशों को लोगों के बीच प्रचारित किया तथा इन्हें तत्कालीन भारतीय समाज के अनुरूप
ज्यादा प्रासंगिक बनाने का प्रयास किया वे नव-हिन्दूवाद के उपदेशक के रूप
में उभरे। विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं एवं उपदेशों को प्रचारित करने
के लिये 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। रामकृष्ण की
शिक्षाओं, उपनिषद एवं गीता के दर्शन तथा बद्ध एवं यीश के
उपदेशों को आधार बनाकर विवेकानंद ने विश्व को मानव मूल्यों की शिक्षा दी। उन्होंने
सामाजिक कर्म पर जोर दिया और कहा कि अगर ज्ञान के साथ जिस वास्तविक संसार में हम
रहते हैं, उसमें कर्म न किया जाये तो ज्ञान निरर्थक है।
विवेकानंद ने सर्वधर्म समभाव की घोषणा की और धार्मिक मामलों में किसी भी संकीर्णता की निंदा
की। 1898 में उन्होंने लिखा 'हमारी मात्रभूमि के लिये विश्व के दो महान धर्मों,
हिन्दू एवं मुस्लिम की प्रणालियों का संगम ही एक मात्र आशा है।
उन्होंने हिन्दू धर्म के पृथकतावादी सिद्धांत की आलोचना की तथा उसके 'मुझे मत छुओ' के आदर्श को उसकी एक बड़ी भूल बताया।
साधारण जनता के दुःख एवं कठिनाइयों से परिचित होने के लिये उन्होंने पूरे देश
की यात्रा की तथा कहा 'जिस एक मात्र ईश्वर पर मैं
विश्वास करता हूँ....वह मेरा ईश्वर सब देशों का दुखी, पीड़ित
और दरिद्रजन है'। उनके अनुसार, किसी
भूखे को धार्मिक उपदेश देना, ईश्वर का अपमान करने
जैसा है। उन्होंने देशवासियों से स्वतंत्रता, समानता एवं
स्वतंत्र सोच धारण करने की अपील की।
विवेकानंद, एक
महान मानवतावादी थे तथा उन्होंने रामकृष्ण मिशन के द्वारा मानवीय सहायता
एवं सामाजिक कार्य को अपना सर्वप्रमुख उद्देश्य बनाया। मिशन ने सामाजिक एवं
धार्मिक सुधार के अनेक कार्य किये। उन्होंने कर्मफल की सर्वोच्चता को
प्रतिपादित करते हुये इसे ही सर्वश्रेष्ठ बताया विवेकानंद ने जीव की सेवा की तुलना
शिव की पूजा से की। उनके अनुसार जीवन स्वयं एक धर्म है कर्म के द्वारा ही मानव का
दैवीय अस्तित्व होता है उन्होंने तत्कालीन तकनीक एवं आधुनिक विज्ञान का उपयोग
मानवमात्र के कल्याण हेतु करने की महत्ता प्रतिपादित की। विवेकानंद ने अपने
मानवतावादी और कार्य सम्बंधी विचारों को व्यावहारिक प देने के लिये देश के विभिन्न
भागों में रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखायें स्थापित की। इस मिशन ने लोगों के लिये
स्कूल, पुस्तकालय, दवाखाने, अनाथालय इत्यादि की स्थापना की। मिशन, विभिन्न
प्राकृतिक आपदाओं यथा-बाढ़,
सूखे एवं महामारी
इत्यादि में भी लोगों की सहायता के लिये कार्य करता था मिशन ने अंतर्राष्ट्रीय
संगठन का स्वरूप धारण किया। मिशन एक हिन्दू धार्मिक संगठन था किंतु इसने अन्य
धर्मों को भी महान बताया। आर्य समाज के विपरीत, मिशन
ने मूर्तिपूजा का समर्थन किया। इसके अनुसार, मर्तिपूजा, उपासना
का उत्तम एवं सरल तरीका है
मूर्तिपूजा से आध्यात्मवाद
का विकास बड़ी सरलता से किया जा सकता है। यह श्रेष्ठ है क्योंकि मूर्तिपूजा से
कोई भी मनुष्य बहुत कम समय में ईश्वर की वंदना में निपुण हो सकता है। हिन्दू धर्म
या वेदांत सर्वश्रेष्ठ है इसकी सहायता से हिन्दू, सच्चा हिन्दू एवं क्रिश्चियन सच्चा क्रिश्चियन बन
सकता है। विवेकानंद ने 1893 में शिकागो (अमेरिका) में सम्पन्न 'विश्व धर्म सम्मेलन' में
लोगों को यह बताने का प्रयास किया कि वेदांत केवल हिन्दुओं का ही नहीं
अपितु सभी मनुष्यों का धर्म है उन्होंने आध्यात्मवाद एवं भोतिकताबाद के संतुलन
पर बल दिया। इस सम्मेलन में उन्होंने कहा कि यदि पश्चिम के भौतिकतावाद एवं
पूर्व के आध्यात्मवाद का सम्मिश्रण कर दिया जाये तो यह मानव जाति की भलाई का
सर्वोत्तम मार्ग होगा ।
विवेकानद ने कभी लोगों
को राजनीतिक संदेश नहीं दिया। उन्होंने देश की युवा पीढ़ी से अपील की कि वे
भारत की प्राचीन सभ्यता पर गर्व करें तथा भविष्ण में भारत की संस्कृति को
मानव जाति के कल्याणार्य समर्पित करें। वे भारत को एक जागृत एवं प्रगतिशील राष्ट्र
बनाना चाहते थे। वे जातिवाद, छुआछूत एवं विषमता को राष्ट्र के दुर्वल होने का
महत्वपूर्ण कारक मानते थे। उन्हें भारत की जनता की शक्ति में पूर्ण आस्था धी। उनका
विश्वास था कि एक दिन भारत का विकास होगा तथा देश से अशिक्षा एवं गरीबी पूरी तरह
समाप्त हो जायेगी।
प्रमुख विचार
हमारी मातृभूमि के लिये
दो महान धर्मों की प्रणालियों हिन्दू तथा इस्लाम का संगम ही एकमात्र आशा है।
स्वामी विवेकानंद
तब तक करोड़ों लोग भूख
और अज्ञान से पीड़ित हैं, तब तक में उस हर व्यक्ति को देशद्रोही समझूगा जो
उनके खर्च से शिक्षित वनकर उनके प्रति तनिक भी ध्यान नहीं देता
स्वामी विवेकानंद
मत भूलो कि दलित, गरीब,
अशिक्षित, चमार,एवं
पिछड़े भी उसी हाड़-मांस के वने हुये हैं, जिससे कि सभ्य
समाज के उच्च वर्ग के लोग।
स्वामी विवेकानंद
दयानंद सरस्वती एवं
आर्य समाजः
यह हिन्दू धर्म का
सुधारवादी आंदोलन या,
जिसका मुख्य उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनः
स्थापना करना था। इसके सस्थापक दयानंद सरस्वती (1824-83), जिनके बचपन का नाम मूलशंकर था, का जन्म गुजरात
के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे सत्य की तलाश में लगभग 15 वर्ष तक इधर से
उधर भटकते रहे। 1875 में उन्होंने वंबई में आर्य समाज की स्थापना की। बाद
में उन्होंने इसका मुख्यालय बम्बई से लाहौर स्थानांतरित कर दिया।
दयानंद के विचार एवं
चिंतन का प्रकाशन उनकी उनकी प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में हुआ। दयानंद की
परिकल्पना में, जाति
रहित एवं वर्ग रहित समाज, राष्ट्रीय, सामाजिक
एवं धार्मिक दृष्टि से संयुक्त भारत, विदेशी दासता से मुक्ति
एवं सम्पूर्ण राष्ट्र में आर्य धर्म की स्थापना की कल्पना सर्वप्रमुख थी। उन्होंने
वेदों का सच्चा एवं सभी धर्मों से हटकर बताया। उन्होंने कहा कि वेद भगवान द्वारा
प्रेरित हैं और सम्पूर्ण ज्ञान के श्रोत हैं। उन्होंने उन धार्मिक विचारों को
ठुकरा दिया, जो वेदों के अनुकूल नहीं थे। उन्होंने नारा दिया
'वेदों की ओर लाटो'। दयानंद सरस्वती ने वेदात की शिक्षा मथुरा के एक अंधे गुरु स्वामी
विरजानंद से ग्रहण की थी। वेदों
को उन्होंने सर्वश्रेष्ठ
बताया। उनके अनुसार व्यक्तिगत रूप धार्मिक तर्क का मार्ग सभी को अपनाना चाहिये
क्योंकि हर मनुष्य को ईश्वरोपासना का अधिकार है। उन्होंने प्राचीन हिन्दू धर्म, ग्रंथों
में पुराणों की कड़ी आलोचना की और कहा कि स्वार्थी और अज्ञानी पुराहितो ने पुराणों
की सहायता से हिन्दू धर्मं को दूषित कर दिया है। उन्होंने हिन्दू रूढ़िवादिता,
जातिगत कठोरता, अश्यृ्यता, मूर्तिपूजा, कर्मकांड, पुरोहितवाद,
चमत्कार जैसी चीजों में विश्वास, जीवहत्या,
समुद्र यात्रा पर निषेध, पुरोहितों के श्राद्ध
(भोजन) इत्यादि की कड़ी आलोचना की। उन्होंने हिन्दू धर्म की परंपरागत जाति प्रथा
की भी आलोचना की तथा कहा जाति का निवारण जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के
आधार पर होना चाहिए। आर्य समाज ने लड़को के विवाह की न्यूनतम उम्र 25 वर्ष तथा
लड़कियों की 16 वर्ष निर्धारित की। उन्होंने अंतर्जातीय विवाह' तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया। उन्होंने स्त्री
समानता की वकालत भी की। समाज, प्राकृतिक विपदाओं
जैसे-सूखा, बाढ़, एवं भूकम्प आने पर
सहायता पहुंचाने का कार्य भी करता था। समाज ने शिक्षा व्यवस्था को नयी दिशा
देने की मांग की। शिक्षा के क्षेत्र में समाज का मुख्य योगदान 'दयानंद एग्लो वैदिक' स्कूलों की स्थापना थी। इस तरह का स्कूल 1886 में लाहौर में खोला गया इस स्कूल में पाश्चात्य
शिक्षा की व्यवस्था थी। 1902 में स्वामी श्रद्धानंद ने हरिद्वार में 'गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की, जिसमें शिक्षा के
अपेक्षाकृत परंपरागत प्रसार की व्यवस्था थी। आर्य समाज ने लोगों का ध्यान परलोक
की बजाय इस वास्तविक संसार में रहने वाले मनुष्यों की समस्याओं की ओर आकृष्ट
किया। उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये शुद्धि आंदोलन चलाया, जिससे कि किसी दबाव या भय से हिन्दू धर्म को छोड़ चुके लोग हिन्दू धर्म
में वापस आ जायें। आर्य समाज के अनुसार, परम ईश्वर एक है
और सबको उसकी उपासना करनी चाहिए। ईश्वर की उपासना में आध्यात्मिक चिंतन का सर्वश्रेष्ठ
स्थान है। ईश्वर निराकार है और उसकी मूर्ति रूप में पूजा नहीं की
जानी चाहिए। समाज ने इस बात का खण्डन किया कि ईश्वर का अवतार होता है।
राम और कृष्ण महापुरुष थे न कि ईश्वर के अवतार । सभी मनुष्य उनके विचार अपना कर आर
उनके कार्यों पर चलकर उनका स्थान प्राप्त कर सकते हैं। आत्मा अमर है। आत्मा
द्वारा बार-बार शरीर त्यागन एवं पूर्नजन्म की वात सत्य है लेकिन
स्वार्थीब्राह्मणों द्वारा इसके लिये जो श्राद्ध कराया जाता है, वह निरर्थक एवं गलत है। समाज कर्मफल एवं मोक्ष में विश्वास करता
है। उसके अनुसार वेद हिन्दुओं की सर्वोच्च धार्मिक पुस्तक है।
यहां यह बात स्पष्ट है कि
स्वामी दयानंद सरस्वती का नारा 'वेदों की ओर लोटे' वैदिक शिक्षा
एवं धर्म की वैदिक शद्धता के लिये किया गया प्रयास है न कि वैदिक काल की
पुर्नस्थापना। स्वामी दयानंद ने आधुनिकता एवं देशभक्ति के आदर्शों को अपनाने पर
जोर दिया। आर्य समाज के 10 प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं
-
(1) वेद ही ज्ञान के
श्रोत हैं अतः वेदों का अध्ययन आवश्यक है। (ii) वेदों के आधार पर मंत्र-पाठ करना (iii) मूर्ति पूजा का खंडन (iv) तीर्थ यात्रा और अवतारवाद
का विरोध (v) पुनर्जन्म एवं आत्मा के वारम्बार जन्म लेने पर
विश्वास (vi) एक ईश्वर में विश्वास जो निरंकारी है (vii)
स्त्रियों की शिक्षा को प्रोत्साहन (vii) बाल
विवाह और बहुविवाह का विरोध (ix) कुछ विशेष परिस्थितियों में
विधवा विवाह का समर्थन एवं (x) हिन्दी एवं संस्कृत भाषा के
प्रसार को प्रोत्साहन।
आर्य समाज के प्रमुख
सामाजिक उद्देश्य थे-
ईश्वर के प्रति पितृत्व
एवं मानव के प्रति भ्रातृत्व की भावना, स्त्री पुरुष के बीच समानता, सभी लोगों के बीच पूर्ण न्याय की स्थापना तथा सभी राष्ट्रों के मध्य
सौहार्दपूर्ण व्यवहार। स्वामी दयानंद सरस्वती ने प्रमुख
तत्कालीन समाज सुधारकों जैसे केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र
विद्यासागर, रानाडे, देशमुख इत्यादि से
सम्पर्क स्थापित किया। दयानंद की मृत्यु के पश्चात् उनके
आदर्शों को लाला हंसराज, पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय एवं स्वामी श्रद्धानंद इत्यादि ने आगे बढ़ाया। आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में आत्म-सम्मान एवं आत्म-विश्वास की
भावना जागृत की तथा उसे पाश्चात्य जगत की श्रेष्ठता के भ्रम से मुक्त कराया। आर्य
समाज के प्रयासों से इस्लामी एवं ईसाई मिशनरियों की हिन्दू धर्म विरोधी गतिविधियां
सफल नहीं हो सकी तथा हिन्दू धर्म अक्ष्षुण बना रहा। दयानंद के सत्यार्थ
प्रकाश नाम ग्रंथ में जन सामान्य की अनेक धार्मिक जिज्ञासाओं को दूर किया गया।
इस ग्रंथ में हिन्दू धर्म की अनेक त्रुटियों पर प्रकाश डाला गया है तथा
अन्य धर्म के पाखण्डों की भी निंदा की गयी है।
सेवा सदनः
एक पारसी धर्म सुधारक
बहराम जी एम. मालाबारी ने 1885 में सेवा सदन की स्थापना की। यह सदन, शोषित
एवं समाज द्वारा तिरप्कृत
महिलाओं के उत्थान के लिये प्रयत्न करता
था। यह सभी जाति की महिलाओं के लिये शिक्षा, चिकित्सा
सुविधायें एवं सामाजिक सेवा का कार्य करता था।
देव समाजः
इसकी स्थापना 1887 में
शिव नारायन अग्निहोत्री ने लाहौर में की। इस समाज का मुख्य उद्देश्य आत्मा
की शुद्धि, गुरु की
श्रेष्ठता की स्थापना एवं अच्छे मानवीय कार्य करना था। इसने आदर्श
सामाजिक व्यवहारों यथा-रिश्वत न लेना, मांसाहारी भोजन एवं मद्यपान का निषेध एवं हिंसात्मक कार्यों
से दूर रहने
इत्यादि को अपनाने पर जोर
दिया। इस समाज की शिक्षाओं को देव शास्त्र नामक पुस्तक में संकलित किया गया
है।
धर्म सभा-
इसी स्थापना 1830 में
राधाकांत देव ने की यह एक रूढ़िवादी संस्था थी। इसने सामाजिक-धार्मिक
मामलों में पुरातन एवं रूढ़िवादी तत्वों को संरक्षित करने का प्रयास किया।
यहां तक कि इसने सती प्रथा को समाप्त किये जाने के प्रयासों का भी विरोध किया
लेकिन सभा ने पाश्चात्य शिक्षा विशेषकर बालिकाओं में इसे प्रोत्साहित करने का
समर्थन किया।
भारत धर्म महामंडलः
यह भारत के शिक्षित
रूढ़िवादी हिन्दुओं का एक संगठन था जिसका गठन आर्य समाज,
थियोसोफिकल समर्थकों एवं रामकृष्ण मिशन से हिन्दू रूढ़िवादिता को बचाने के लिये किया गया था
1895 में इसी प्रकार के
एक अन्य संगठन सनातन धर्म सभा की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य भी हिन्दू रूढ़िवादिता के हितों
को सुरक्षित रखने हेतु प्रयत्न करना था दक्षिण भारत में धर्म महापरिषद एवं
बंगाल में धर्म महामंडली की स्थापना भी इन्हीं उद्देश्यों के लिये की गयी। 1902
में इन सभी संगठनों में आपस में संयुक्त होकर एक बड़े संगठन भारत धर्म
महामंडल की स्थापना की, जिसका मुख्यालय वाराणसी में था। इस संगठन ने हिन्दुत्व
की रक्षा के प्रयास किये तथा अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये हिन्दू धार्मिक
सभाओं तथा हिन्दू शिक्षा संस्थानों इत्यादि की स्थापना की इस महामंडल के
सदस्यों में पंडित मदन मोहन मालवीय प्रमुख थे।
राधास्वामी आंदोलनः
आगरा के एक बैंकर तुलसीराम
ने, जिन्हें शिव
दयाल साहब के नाम से भी जाना जाता था, 1861 में
इस आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन के समर्थक-एक ही ईश्वर की सर्वोच्ता में
विश्वास, गुरु की सर्वोच्चता में विश्वास, सत्संगों का आयोजन एवं सादगीपूर्ण सामाजिक जीवन में
आस्था रखते थे। वे सांसारिक मायामोह से दूर रहने का भी प्रयत्न करते थे।
इनके अनुसार सभी धर्म सत् हैं। इस आंदोलन के अनुयायियों का दरगाह एवं
अन्य धार्मिक स्थलों में जाने में विश्वास नहीं था तथा इसके वे सत्य एवं
विश्वास तथा सेवा एवं प्रार्थना को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे।
श्री नारायनगुरु
धर्मपरिपालन आंदोलन (एस.एन.डी.पी.एम.):
यह आंदोलन एक क्षेत्रीय
आंदोलन था, जिसका
जन्म समाज के दलित वर्ग एवं ब्राह्मण वर्ग में टकराव के कारण हुआ।
इस आंदोलन की शुरुआत केरल
के इजयावस जाति के श्री नारायण गुरु स्वामी ने की। इजर्यावस केरल की सबसे बड़ी
दलित जाति है, जिसे
अछूत माना जाता था। यह राज्य की कुल जनसंख्या का 26 प्रतिशत थी। इस जाति के लोग
मुख्यतया ताड़ी (शराब) वेचने का काम करते थे । 1902 में इसी समुदाय के श्री
नारायण गुरु ने एक आंदोलन प्रारंभ किया तथा नारायण गुरु घर्म परिपालन योगम की
शुरुआत की। इस योगम के कई उद्देश्य ये यथा- ) शिक्षा संस्थाओं में इस समुदाय के
छात्रों को प्रवेश का अधिकार दिलाना (। सरकारी सेवाओं में भर्ती (vi) मांदिरों में प्रवेश (iv) राजनीतिक प्रतिनिधित्व दे।
इस आदोलन की फलस्वरूप केरल में दलितों को अनेक अधिकार प्राप्त हुये, कई निषिध क्षेत्रों एवं स्थानों में उनको प्रवेश मिला नया उनमें चेतना का
प्रसार हुआ। दलितों को उनके सामाजिक अधिकार दिलाने में इस आंदोलन का महत्वपूर्ण
स्थान रहा।
वोक्कालिग संघः
इस आदोलन की शुरुआत 1905
में मैसूर में हुयी। यह एक ब्राह्मण विरोधी आंदोलन था।
न्याय आंदोलन या जस्टिस
आंदोलनः
इस आदालन की शुरुआत
सी.एन. मुदलियार, टी.एस.
नायर एवं पी. त्यागराज ने मद्रास में की। इस आंदोलन का उद्देश्य गैर-बाहाण
जातियों का विधायिका में प्रतिनिधित्व बढ़ाना था। 1917 में मद्रास प्रेसीडेंसी
एसोसिएशन का गठन किया गया, जिसने विधायिका में निम्न
जाति के लोगों के लिये पृथक प्रतिनिधित्व की मांग की।
आत्म-सम्मान आदोलनः
इस आंदोलन की शुरुआत
1920 के दशक में वी. रामास्वामी नायकर एवं बालीजा नायडू ने की। इसने समाज में ब्राह्मणों
की सर्वोच्चता को चुनौती दी तथा लोगों से ब्राह्मणवाद का विरोध करने के लिये
आगे आने का आह्वान किया। इसने पिछड़ी जाति के लोगों को विभिन्न अधिकार एवं
प्रतिनिधित्व देने की मांग की आंदोलन के अनुयायियों ने कहा कि धार्मिक
कर्मकांडों में ब्राह्मणों की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है उन्होंने लोगों से अपील
की कि वे विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजाओं के लिये ब्राह्मणों को आमंत्रित न करें।
अरवीप्पुरम आंदोलनः
सन् 1888 में
शिवरात्रि के अवसर पर श्री नारायन गुरु ने पिछड़ी जाति का होने के बावजूद केरल
के अरवीप्पुरम नामक स्थान में भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित की तथा कहा
देवताओं की पूजा एवं आराधाना में ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं है। उन्होंने
स्थानीय मंदिर की दीवार पर लिखा कि जातीयता एवं प्रजातीयता को बढ़ाने वाली दीवार
को गिरा दो, आपसी
घृणा को दूर करी, सद्भाव बढ़ाओ, हम सभी
यहां भाई-भाई की तरह रहेंगे'। इस आदोलन का दक्षिण भारत
में दूरगामी प्रभाव हुआ। इसने दक्षिण भारत के लोगों में एक नई चतना जागृत
की तथा इस क्षेत्र में अनेक आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार की। बाद में होने
वाले अनेक आंदोलन विशेषकर मंदिर प्रवेश आंदोलन' इस आंदोलन से प्रेरित थे।
मंदिर प्रवेश आंदोलनः
तत्कालीन अनेक समाज
सुधारक तथा बुद्धि कार जैसे श्री नारायण गुरु, एन. कुमारन असन, टी.के. माधवन
इत्यादि पहले ही इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर चुके थे। 1924 में के.पी.
केसव के नेतृत्व में केरल में वाइकोम सत्याग्रह प्रारंभ हुआ जिसने सार्वजनिक
मार्गों एवं हिन्दू मंदिरों में दलितों को प्रवेश का अधिकार दिये जाने की मांग
की। पंजाब में जाटों एवं मदुरई के भी स्थानीय निवासियों ने इस सत्याग्रह के
माध्यम से समान अधिकारों की मांग की। महात्मा गांधी ने इस आंदोलन के समर्थन
में केरल की यात्रा की तथा सत्याग्रहियों की मांगें पूरी किये जाने की अपील
की।
पुनः 1931 में जब
सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित हो गया, केरल में मंदिर प्रवेश आंदोलन जोर पकड़ने लगा
के. केलप्पन एवं केरल के प्रख्यात कवि सुब्रह्मण्यम तिरुमाम्बू ने गुरुवयूर नामक
स्थान पर 16 स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं के दल का नेतृत्व किया। प्रसिद्ध सामाजिक
सुधारकों जैसे-पी. कृष्णा पिल्लई एवं ए.के. गोपालन ने भी इस आंदोलन में सक्रिय
भूमिका निभायी। अंततः इस आंदोलन को एक महत्वपूर्ण सफलता तव हाथ लगी,
जब 1936 में ट्रावनकोर के महाराजा ने एक राजाज्ञा जारी करके सभी
सरकार नियंत्रित मंदिरों को सभी जातियों के लिये खोल दिया। इसी तरह का आदेश 1938 में सी.राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास में भी
जारी किया।
इंडियन सोशल कांफ्रेंसः
इसकी स्थापना एम.जी.
रानाडे एवं रघुनाथ राव ने की थी। इस कांफ्रेंस का प्रतिवर्ष एक सम्मेलन
होता था इसका पहला सम्मेलन 1887 में मद्रास में हुआ। संयोग से इसी समय
मद्रास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। इसने
सामाजिक महत्व के विषयों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। वास्तव में यह भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस की समाज सुधारक शाखा ही थी क्योंकि इस कांफ्रेंस के सभी प्रमुख
नेता कांग्रेस से समवद्ध थे। इस कांफ्रेंस के मुख्य उद्देश्यों में-अंतर-जातीय
विवाह को प्रोत्साहन, बहुपत्नी प्रथा का विरोध एवं कुलीन प्रथा का विरोध प्रमुख थे। इसने बाल
विवाह को रोकने के लिये याचना अभियान' भी चलाया,
जिसमें लोगों से याचना की जाती थी कि वे बाल विवाह न करें।
बहावी आंदोलनः
मुसलमानों की पाश्चात्य
प्रभावों के विरुद्ध सर्वप्रथम जो प्रतिक्रिया हुयी, उसे ही बहावी आंदोलन या
वलीउल्लाह आंदोलन के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह एक पुनर्जागरणवादी
आंदोलन था। शाह वलीउल्लाह (1702-62) अठारवीं सदी में मसलमानों के वह प्रथम
नेता थे. जिन्होने भारतीय मुसलमानों में हुयी गिरावट में चिंता प्रकट की। उन्होंने
भारतीय मुसलमानों के रीति-रिवाज तथा मान्यताओं में व्याप्त कुरीतियों की ओर ध्यान
आकृष्ट किया।
इसके पश्चात शाह
अब्दुल्ला अजीज तथा सैय्यद अहमद बरेलवी (1786-1831) ने वलीउल्लाह के विचारों को
लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया। शाह अब्दुल अजीज ने हिंदुस्तान को दारुल-हर्व
(काफिरों का देश) से दारुल-इस्लाम बनाने का आह्वान किया। प्रारंभ में यह अभियान
सिख सरकार के खिलाफ था परंतु 1849 में अंग्रेजों द्वारा पंजाब का विलय करने पर यह
अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया। यह आंदोलन 1870 तक चलता रहा जब तक कि इसे
सैन्य बल द्वारा समाप्त नहीं कर दिया गया । सैय्यद अहमद का यह दल उग्र था। इसका
केंद्र पटना था।
टीटू मीर का आंदोलनः
वहाबी आंदोलन के संस्थापक
सैय्यद अहमद बरेलवी के शिष्य, मीर निथार अली, जिन्हें टीटू
मीर के नाम से भी जाना जाता था, ने इस आंदोलन का प्रवर्तन
किया। टीटू मीर ने बंगाल के मुसलमान किसानों को हिन्दू जमींदारों एवं अंग्रेज
नील सौदागरों के विरुद्ध संगठित किया। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को
आतंकवादी या हिंसक नहीं माना किंतु आंदोलन के अंतिम वर्षों विशेषकर उस वर्ष जब
टीटू मीर का निधन हुआ इसके कार्यकर्ताओं एवं पुलिस में अनेक झड़पें हुयीं। 1831
में इसी प्रकार की एक मुठभेड़ में टीटू मीर का निधन हो गया।
फराजी आंदोलनः
इस आंदोलन की शुरुआत हाजी
शरियत-अल्लाह ने की थी। इस आंदोलन को ‘फराइदी आंदोलन' के नाम से भी जाना जाता
है क्योंकि इसका मुख्य जोर इस्लाम धर्म की सच्चाई पर था। इस आंदोलन का
कार्य क्षेत्र मुख्यतयाः पूर्वी बंगाल था तथा इसका मुख्य उद्देश्य इस क्षेत्र
की मुस्लिम आबादी को सामाजिक भेदभाव एवं शोषण से बचाना था। हाजी शरियत अल्लाह
के पुत्र दर मियां के नेतृत्व में 1840 के पश्चात आंदोलन ने क्रांतिकारी रुख
अख्तियार कर लिया। दूदू मियां ने आंदोलन को एक नया स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने
इसे गांव से लेकर प्रांतीय स्तर तक संगठित किया। उन्होंने संगठन के प्रत्येक स्तर
पर एक प्रमुख नियुक्त किया। इस आंदोलन ने सशस्त्र कार्यकर्ताओं का एक दल तैयार
किया जिसका कार्य हिन्दू जमींदारों एवं पुलिस के विरुद्ध संघर्ष करना था।
दूदू मियां को अनेक बार
पुलिस ने गिरफ्तार किया किंतु 1847 में दूदू मिया की लंबी गिरफ्तारी के पश्चात आंदोलन कमजोर
हो गया। 1862 में दूदू मियां की मृत्यु के बाद भी आंदोलन चलता रहा किंतु किसी बड़े
राजनैतिक प्रश्रय के अभाव में इसकी पहचान एक क्षेत्रीय धार्मिक आंदोलन के रूप में
सिमट कर रह गयी।
अहमदिया आंदोलनः
19वीं शताब्दी में मुस्लिम
समाज और धर्म लिये एक और आंदोलन चला, जिसे अहमदिया आंदोलन कहते हैं। सन् 1889 में सुधार
के मिर्जा गुलाम अहमद ने इस आंदोलन की शुरुआत की। यह आंदोलन उदार सिद्धांतो पर
आधारित था। इसके नेता अपने को हजरत मुहम्मद की तरह का अवतार मानते थे। आंदोलन, मुस्लिम समाज में सुधार लाने एवं उसमें व्याप्त करीतियों को दूर करने के
कार्य को अपना सर्वप्रमुख उद्देश्य मानता था। इसने गैर-मुसलामनों के प्रति युद्ध
जेहाद' को बंद किये जाने की मांग की। आंदोलन ने भारतीय
मुसलमानों के मध्य पाश्चात्य उदारवादी शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा दिया यह आंदोलन
पंजाव के गुरुदासपुर जिले के 'कादिया नगर' से प्रारंभ हुआ था। मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने सिद्धांतों की व्याख्या
अपनी पुस्तक
बराहीन-ए-अहमदिया में की
है।
सर सैय्यद अहमद खान एवं
अलीगढ़ आंदोलनः
1857 के विद्रोह के
पश्चात अंग्रेजी सरकार यह मानने लगी कि इस विद्रोह में मुख्य पडयंत्रकर्ता मुसलमान
थे। कालांतर में वहावी आंदोलन के प्रति सरकार विरोधी रुख से यह धारणा और बलवती हो
गयी। किंतु बाद में ब्रिटिश सरकार यह महसूस करने लगी कि उस समय राष्ट्रवादी आंदोलन
की गति जिस तरह से जोर पकड़ने लगी थी उसका सामना करने के लिये शीघ्र ही कोई कदम
उठाना अपरिहार्य हो गया था। इन्हीं परिस्थितियों में बढ़ते हुये राष्ट्रवाद का
मुकाबला करने के लिये सरकार ने मुसलामनों को सहयोगी के रूप में इस्तेमाल करने
का निश्चय किया। लेकिन यह सहयोग तभी प्राप्त किया जा सकता था जब मुसलमानों को सशक्त
बौद्धिक विचारों से प्रभावित किया जाये। इस समय मुसलमानों का एक वर्ग, जिसका
नेतृत्व सर सैय्यद अहमद खान कर रहे थे, सरकारी संरक्षण एवं
सहयोग प्राप्त करने के पक्ष में था, जिससे
मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार कर रोजगार वृद्धि की जाये, ताकि
मुस्लिम समाज की दशा में सुधार हो सके।
सर सैय्यद अहमद खान का
जन्म 1817 में दिल्ली में एक प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में हुआ था। वे ब्रिटिश
शासन के अधीन न्यायिक सेवा के एक अंग्रेज भक्त नौकरशाह थे। 1876 में सरकारी सेवा
से सेवानिवृत्त होने के पश्चात 1878 में वे 'इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल' के सदस्य बने । अंग्रेजों के प्रति उनके समर्पण से प्रसन्न होकर 1888
में अंग्रेज सरकार ने उन्हें 'नाइटहुड' की उपाधि प्रदान की। उन्होंने अपील की कि
कुरान की शिक्षाओं की व्याख्या पाश्चात्य वैज्ञानिक शिक्षा के दृष्टिकोण से की
जाये। उन्होंने घोषित किया कि कुरान ही मुसलमानों की एकमात्र धार्मिक है और सभी
अन्य इस्लामिक रचनायें इसके समक्ष गौण हैं। उन्होंने कुरान की व्याख्या समसामयिक
बौद्धिक तकों और ज्ञान के प्रकाश में की उनके मतानुसार पवित्र कुरान की कोई भी
व्याख्या जो मानवीय तर्क बुद्धि से मेल नहीं खाती वह वस्तुतः गलत व्याख्या है।
उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि वे गलत-रीति रिवाजों का अनुसरण न करें। उनके
अनुसार कोई भी धर्म ग्रहण करने के योग्य होना चाहिए अन्यथा यह समाप्त हो जाता है।
उन्होंने धार्मिक रीति-रिवाजों का अन्ध रूप में अनुसरण करने को गलत बताया।
सैय्यद अहमद खान एक
उत्साही शिक्षाविद् थे। उन्होंने कस्बों में स्कूल तथा अनेक पुस्तकों का उर्दू
में अनुवाद किया। 1875 में अलीगढ में उन्होंने 'मोहम्मडन
एंग्लो ओरिएंटल कालेज' की स्थापना की। उन्होंने स्त्रियों
में साक्षरता बढ़ाने एवं उन्हें शिक्षित करने के क्षेत्र में भी अथक परिश्रम
किया वे मुसलमानों में पद प्रथा तथा बहपत्नी प्रथा के घोर विरोधी थे।
उन्होंने तलाक में स्त्रियों की भी सहमति लेने की मांग की तथा 'पीरी'
एवं 'मुरीदी' की प्रथा
की कड़े शब्दों में निंदा की। वे हिन्दू एवं मुसलमान दोनों धर्मों में एकता के
समर्थक थे। उन्होंने कहा हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही एक देश के हैं और एक
राष्ट्र हैं। देश की प्रगति और भलाई हमारी एकता और प्रेम पर निर्भर है।
उन्होंने तर्क दिया कि
मसलमानों को सर्वप्रथम शिक्षा प्राप्त कर नौकरियां प्राप्त करना चाहिए, जिससे वे
हिन्दुओं की बराबरी कर सकें जो पहले से शिक्षित होकर विभिन्न अवसरों लाभ उठा रहे हैं। एक सक्रिय
राजनीतिज्ञ के रूप में उनका विश्वास था कि मुसलमानों को अंग्रेजों से अपने
संबंध सुधारने चाहिए, तभी उनके हितों की पूर्ति हो सकती है। इसीलिये उन्होंने
मुसलमानों की ऐसी किसी भी राजनीतिक गतिविधि का विरोध किया, जो
अंग्रेजों के विरुद्ध हो। दुर्भाग्यवश मुसलमानों में शिक्षा के प्रसार एवं रोजगार के
मुद्दे को लेकर,
वे अंग्रेजी शासन के इतने वशीभूत हो गये कि उन्होंने अंग्रेजों की
फूट डालो एवं राज करो जैसी नीति का भी समर्थन प्रारंभ कर दिया। बाद के वर्षों में तो
उनके साम्प्रदायिक रुख में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया। कभी हिन्दुओं और
मुसलमानों को भारत की दो सुंदर आंखों की संज्ञा देने वाले सर सैय्यद अहमद खान
हिन्दुओं बिल्कुल विरुद्ध हो गये तथा उन्होंने हिन्दुओं की निंदा प्रारंभ कर
दी। उन्होंने यहां तक कहा कि हिन्दुओं के अधीन मुसलमानों का उत्थान कभी नहीं हो
सकता।
उन्होंने अपने विचारों का
प्रचार-तहजीब-उल-अखलाक नामक पत्रिका में किया।
अलीगढ़-आंदोलन ने शिक्षित
मुसलमानों के बीच उदार एवं आधुनिक पद्धति का विकास किया, जो कि
मोहम्डन एंग्लो-ओरिएंटल कालेज अलीगढ़ पर आधारित था। इसके मुख्य उद्देश्यों में-
(1) इस्लाम के दायरे में
रहकर भारतीय मुसलमानों के बीच आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना तथा (ii) मुस्लिम
समाज के विभिन्न क्षेत्रों जैसे पर्दा प्रथा, बहुपत्नी प्रथा,
विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा, दास प्रथा, तलाक इत्यादि के क्षेत्र में सुधार लाना
था।
इस आंदोलन के समर्थकों की
विचारधारा कुरान की उदार व्याख्या पर आधारित थी। इन्होंने मुस्लिम समाज में आधुनिक
एवं उदार संस्कृति को प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया। वे आधुनिक पथ पर चलकर
इस्लामिक समाज का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। इस प्रकार अलीगढ़ आंदोलन
तत्कालीन समय में मुस्लिम सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केंद्र बन
गया।
प्रमुख विचार
हम दोनों (हिन्दू और
मुसलमान) भारत की हवा पर पलते हैं हम गंगा और यमुना का पवित्र जल पीते हैं। हम
दोनों इसी भूमि की पैदावार खाकर पलते हैं .....हम दोनों एक ही देश के हैं और एक ही
राष्ट्र के हैं देश की प्रगति और भलाई हमारी एकता और प्रेम पर निर्भर है।
सर सैय्यद अहमद खां
देवबंद स्कूलः
यह भी एक प्रकार का मुस्लिम
धार्मिक आंदोलन था जिसे मुस्लिम धर्म के रूढ़िवादी उलेमाओं द्वारा प्रारंभ
किया था इस आंदोलन के दो मुख्य उद्देश्य थे-
(i) कुरान
एवं हदीस की शिक्षाओं का मुसलमानों के मध्य प्रचार-प्रसार करना एवं
(ii) विदेशी
आक्रांताओं एवं गैर-मुसलमानों के विरुद्ध धार्मिक युद्ध 'जेहाद'
को प्रारंभ रखना।
देवबंद स्कूल की स्थापना, तत्कालीन
संयुक्त प्रांत के सहारनपुर जिले में देववंद नामक स्थान में 1866 में
मोहम्मद कासिम नानोतवी (1832-80) एवं राशिद अहमद गंगोही (1828-1905) ने
संयुक्त रूप से की थी। ये दोनों मुस्लिम समुदाय के धार्मिक नेता थे। यह आंदोलन,
अलीगढ़ आंदोलन के विरुद्ध था। इसने अलीगढ़
आंदोलन द्वारा मुस्लिम समाज का पाश्चात्यीकरण करने एवं उदार रुख अपनाने के रवैये
का कड़ा विरोध किया तथा मुस्लिम समुदाय का नैतिक एवं धार्मिक उत्थान करने की
वकालत की। इसने अलीगढ़ आंदोलन के अनुयायियों द्वारा अंग्रेज सरकार का समर्थन
करने के कार्य की भी निंदा की
राजनीतिक मोर्चे पर
देववंद स्कूल ने 1888 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन का स्वागत किया
तथा सर सैय्यद अहमद खान के संगठन, संयुक्त राष्ट्रवादी संघ एवं मोहम्मडन एंग्लो
ओरिएंटल एसोसिएशन के खिलाफ फतवा जारी किया। यह आंदोलन सर सय्यद अहमद खान द्वारा
मुस्लिम समाज सुधार हेतु किये जा रहे कार्यों का कड़ा विरोधी था तथा इसने
सैय्यद अहमद के प्रयासों को मुस्लिम समाज के लिये आत्मघाती बताया।
मुहम्मद-उल-हसन ने अपने
नेतृत्व में देवबंद स्कूल के धार्मिक विचारों को नया राजनीतिक एवं बौद्धिक स्वरूप
प्रदान किया। उन्होंने इस्लामिक सिद्धात एवं राष्ट्रवादी प्रेरणा के समन्वय हेतु
सराहनीय प्रयास किये। बाद में जमात-उल-उलेमा ने हसन के विचारों को नये स्वरूप में
ढाला, जिससे कि
राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रवादी उद्देश्यों को क्षति पहुंचाये बिना मुसलमानों के
धार्मिक एवं राजनीतिक हितों की रक्षा हो सके।
देवबंद स्कूल के एक अन्य
समर्थक शिबली नुमानी का मत था कि शिक्षा की पद्धति में अंग्रेजी एवं यूरोपीय
विज्ञान को भी सम्मिलन किया जाये उन्होंने 1894-96 में लखनऊ में नदवाताल उलम एवं
दारुल उलम की स्थापना की। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आर्दशों में विश्वास
करते थे तथा हिन्दू एवं मुस्लिम एकता के समर्थक थे। उनका मत था कि दोनों धर्मों
में एकता से ही राष्ट्र में दोनों समुदाय के लोग आपसी सद्भाव से रह सकते हैं तथा
प्रगति कर सकते हैं।
पारसी सुधार आंदोलनः
अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त
पारसियों के एक समुदाय 1851 में रहनुमाई माजदायास्नान सभा' गठित की। इसका उद्देश्य
पारसी समाज का पुनरुद्धार तथा पारसी धर्म की प्राचीन सभ्यता को पुनःस्थापित करना
था। इस आंदोलन के नेताओं में नौरोजी, फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी,
के.आर. कामा एवं एस.एस. बंगाली प्रमुख थे। इस सभा के संदेशों को
पारसियों तक पहुंचाने की एक पत्रिका रास्त गोफ्तार प्रारंभ की गई। पारसी धर्म की
मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों में इस सभा ने अनेक परिवर्तन एवं सुधार किये। इसने
पारसी महिलाओं की स्थिति सुधारने का भी प्रयास किया तथा विभिन्न बुराइयों
जैसे-पर्दा प्रथा इत्यादि का विरोध किया। सभा, स्त्रियों के
विवाह की आयु में वृद्धि तया स्त्रियों में शिक्षा को बढ़ावा देने की पक्षधर थी।
कुछ समय पश्चात भारतीय समाज में पारसी एक नये पाश्चात्य सभ्यता से ओत-प्रोत कारक
के रूप में सामने आये।
सिख सुधार आंदोलनः
19वीं शताब्दी में भारत
में चल रहे विभिन्न धर्म एवं समाज सुधार आंदोलनों से सिख समुदाय भी अछूता न रहा
सका तथा इसमें भी विभिन्न समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन प्रारंभ हुये। 1873 में
अमृतसर में सिंह सभा आंदोलन प्रारंभ हुआ। इसके दो मुख्य दो उद्देश्य
थे-
(i) सिखों
के लिये आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चित करना तथा
(ii) सिख
धर्म के हितों को नुकसान पहुंचाने वाली ईसाई मिशनरियों एवं हिन्दू रूढ़िवादियों के
विरुद्ध संघर्ष करना।
अपने प्रथम उद्देश्य की
पूर्ति के लिये सभा ने पूरे पंजाब में खालसा स्कूलों की स्थापना की। लेकिन सिंह
सभा के प्रयासों में गतिशीलता तब आयी जब अकाली आंदोलन प्रारंभ हुआ। अकाली
आंदोलन, सिंह सभा
की ही शाखा थी । अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों का प्रबंध सुधारना था। वे
गुरुद्वारों को उन भ्रष्ट उदासी महन्तो से मुक्त कराना चाहते थे, जो सरकारी-संरक्षण की आड़ मे विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट कार्यों में लिप्त
थे। 1921 में अकालियों ने एक नया असहयोग एवं अहिंसक आंदोलन प्रारंभ किया।
लेकिन अकालियों को प्रमुख सफलता तब मिली जब 1922 में (1925 में संशोधित)
बहुप्रतीक्षित एवं लोकप्रिय सिख गुरुद्वारा एक्ट'
पास हुआ। इस एक्ट द्वारा गुरुद्वारों का प्रबंध सिखों की शीर्ष संस्था 'शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी को सौंप दिया गया ।
अकाली आंदोलन एक
क्षेत्रीय आंदोलन था लेकिन यह साम्प्रदायिक नहीं था। कालांतर में भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन में भी समय-समय पर अकाली नेताओं ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध
आवाज उठायी तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में सराहनीय भूमिका अदा की।
थियोसोफिकल आंदोलनः
इस आंदोलन की शुरुआत दो
पाश्चात्य बुद्धिजीवियों मैडम एच.पी. व्लावैटस्की (1831-1891) एवं कर्नल एम एस.
अलकाट ने की। ये दोनों भारतीय विचारों एवं भारतीय संस्कृति से गहरे प्रभावित
थे 1875 में अमेरिका में इन्होंने 'थियोसोफिकल सोसायटी' की स्थापना की। किंतु 1882 में
इन्होंने सोसायटी का मुख्यालय मद्रास के निकट अडयार नामक स्थान में परिवर्तित
कर दिया। इसके अनुयायी ईश्वरीय ज्ञान को आत्मिक हर्षोन्माद एवं अंतर्दृष्टि द्वारा
प्राप्त करने की कोशिश करते थे। उनका मानना था कि ध्यान योग एवं चिंतन जैसे
माध्यमों द्वारा व्यक्ति की आत्मा को परमात्मा से जोड़ा जा सकता है। वे हिन्दू
धर्म के पुर्नजन्म एवं कर्म के सिद्धांत पर भी विश्वास करते थे उन्होंने उपनिषद, सांख्य, योग एवं वेदात के विचारों को अति महत्वपूर्ण बताया सोसायटी का उददेश्य
प्रजाति, नस्ल,
लिंग, जाति एवं रंग में भेदभाव किये बिना सभी
लोगों के कल्याण के लिये प्रयत्न करना था। इसने प्रकृति एवं मानव शक्ति के अनसुलझे
रहस्यों की भी व्याख्या करने का प्रयास किया। सोसायटी ने मुख्यता हिन्दू धर्म
की प्राचीन विरासत एवं पहचान को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।
1907 में
कर्नल अलकाट की मृत्यु के पश्चात एनी बेसेंट (1847-1933) इसकी अध्यक्ष चुनी गयीं। एनी बेसेंट
की अध्यक्षता में सोसायटी की लोकप्रियता मे और ज्यादा वृद्धि हुयी। एनी बेसेंट 1893
में भारत आयी। अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये एनी बेसेंट ने बनारस
में 'सेंट्रल
हिन्दू स्कूल' की आधारशिला रखी और उसकी प्रगति के
लिये भरसक प्रयत्न किया। इस स्कूल में हिन्दू धर्म एवं पाश्चात्य वैज्ञानिक
विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यही स्कूल आगे चलकर कालेज और अंततः 1915 में 'बनारस
हिन्दू विश्वविद्यालय' में परणित हो गया। एनी बेसेंट ने
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया।
थियोसोफिकल सोसायटी ने
विभिन्न धर्मों को मजबूत करने की वकालत की तथा शिक्षित हिन्दुओं को हिन्दू धर्म की
प्राचीन समृद्ध विरासत से अवगत कराया। किंतु अपने अर्थपूर्ण उद्देश्यों एवं
सराहनीय प्रयत्नों के पश्चात भी थियोसोफिकल सोसायटी किसी ऐसे कार्यक्रम या आंदोलन
को जन्म देने में असफल रही, जिसके की हिन्द धर्म या समाज में दूरगामी प्रभाव हो।
यह किसी वड़े परिवर्तन को अंजाम
देने में भी असफल रही।
सोसायटी के अनुयायी भी पाश्चात्य वर्ग के रूप में समाज का छोटा हिस्सा ही थे।
धार्मिक परिवर्तनवादी के रूप में भी थियोसोफिकल समर्थकों को ज्यादा सफलता हाथ नहीं
लगी। लेकिन हिन्दू धर्म की समृद्ध विरासत से लोगों को अवगत कराकर तथा प्राचीन धर्म, दर्शन और
विज्ञान की महत्ता प्रतिपादित कर सोसायटी ने लोगों के मन में राष्ट्रवाद की
प्रेरणा जागृत की। इस प्रेरणा ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में ब्रिटिश शासन के
विरुद्ध आंदोलन करने की चेतना भारतीयों में जागृत की। दूसरे दृष्टिकोण से यह भी
माना जाता है कि थियोसोफिकल सोसायटी । ने भारतीयों को उनकी परंपरागत रीतिरिवाजों
एवं दर्शन में बांधे रखा तथा उनकी समृद्धता का गुणगान करके उनमें मिथ्या का भाव भर
दिया।
सुधार आंदोलनों का योगदान
या सकारात्मक प्रभाव
समाज के रूढ़िवादी वर्ग
ने विभिन्न समाज सुधारकों के द्वारा वैज्ञानिक विचारधारा को सामाजिक-धार्मिक
स्वरूप देने के प्रयासों का अत्यंत कड़ा विरोध किया। इसके कारण अनेक समाज सुधारकों
को अपमानित होना पड़ा,
उनकी निंदा की गयी, उन पर अभियोग लगाये गये,
उनके विरुद्ध फतवे जारी किये गये तथा कुछेक की तो हत्या करने की
चेष्टा भी की गयी।
किंतु तीव्र विरोधों के
बावजूद भी इन सुधार आंदोलनों ने लोगों में स्वतंत्रता एवं समानता का भाव जागृत
किया। इसने लोगों को यह महसूस करने हेतु प्रेरित किया कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ
है, इसलिये
स्वतंत्रता का अधिकार उसे ईश्वर प्रदत्त है तथा कोई भी व्यक्ति, समाज या शासन इस पर रोक नहीं लगा सकता। आंदोलन ने समाज में पुरोहितों के
एकाधिकार को कड़ी चुनौती दी। धार्मिक ग्रंथों के विभिन्न भाषाओं में किये गये
अनुवाद से लोग विभिन्न धर्मों का अध्ययन कर सके तथा उनमें यह विश्वास जागा कि
धार्मिक रीति-रिवाजों के पालन एवं धार्मिक अनुवाद का कार्य प्रत्येक मनुष्य स्वयं
कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह ईश्वर की उपासना या चिंतन कर
सकता है तथा इस कार्य के लिये उसे किसी मध्यस्त की जरूरत नहीं है। इसने लोगों में
किसी भी नियम को तर्क-वितर्क के आधार पर परखने की समझ विकसित की। सुधार आंदोलनां
ने विभिन्न धर्म के लोगों को उनकी समृद्ध धार्मिक विरासत से अवगत कराया जिससे
उनमें यह हीन भावना दूर हो सके कि उनका धर्म पिछड़ा हुआ या अविकसित हैं। इसने मध्य
वर्ग में नई समझ एवं चेतना जागृत की तथा उसके उदय में एक महत्वपूर्ण भूमिका
निभायी। आदीतनों के फलस्वरूप यह स्पष्ट हो गया कि शोषण एवं भेदभाव का शासन लंबे
समय तक अस्तित्व में नहीं रह सकता तथा इसके विरुद्ध तीव्र जनाक्रोश होता है।
इसने तत्कालीन
परिस्थितियों में पाश्चात्य ज्ञान एवं विज्ञान की महत्ता को रेखांकित किया, जिसके
फलस्वरूप विभिन्न शिक्षा संस्थानों में इन विषयों का पठन-पाठन प्रारंभ हुआ।
पाश्चात्य जगत के ज्ञान से भारतीयों ने तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरूप पाया कि उनका
धर्म एवं संस्कृति अपने आप में महान विरासत संजोये हये हैं तथा वे पश्चिम से किसी
भी प्रकार से कम नहीं है। आदोलन ने सामाजिक भेदभाव एवं शोषण पर कड़े प्रहार किये
तथा इसके विरुद्ध संघर्ष करने की चेतना लोगों में जागृत की। पुरातन एवं अव्यवहारिक
रीति- रिवाजों एवं परम्पराओं को छोड़ने की अपील आंदोलनकारियों ने लोगों से की तथा
बताया कि वे परम्पराये एवं मूल्य ही वास्तविक है जो समय के साथ प्रासंगिक बने रहे
। इसने लोगों को चेताया कि वे पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का अंधानुकरण न करें।
इसने भारत के बौद्धिक एवं धार्मिक पृथककरण को समाप्त किया तथा तत्कालीन विश्व के
साथ इसका सम्पर्क स्थापित किया। समाज सुधारकों ने लोगों से अपेक्षा की कि वे
पाश्चात्य ज्ञान एवं परम्पराओं का अनुपालन अपनी धर्म एवं संस्कृति के अनुरूप
करेंगे।
इसने लोगों की शक्ति एवं
आंदोलन करने की प्रवृत्ति को एक नया स्वरूप दिया जो कि उपनिवेशी शासन के तले
बिल्कुल असहाय होकर रह गयी थी। कालांतर में इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप भारतीयों
में यह समझ विकसित हुयी कि वे स्वतंत्र है तथा विदेशी शासन के बोझ तले उन्हें नहीं
रहना चाहिए। समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने तथा स्त्री शिक्षा को
बढ़ावा देने में भी सराहनीय कार्य किया। समाज सुधारकों ने तत्कालीन समाज में
व्याप्त विभिन्न कुरीतियों यथा-सती प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नी प्रथा तथा
पर्दा प्रथा इत्यादि पर कड़े प्रहार किये तथा काफी हद तक इनके उन्मूलन में सफलता
हासिल की। इन्हीं का प्रयत्न था कि विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली तथा
विधवाओं की दशा में सुधार हुआ। दलितों एवं पिछड़ों की दशा सुधारने तथा उन्हें समाज
में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने में समाज सुधारकों ने अथक प्रयास किये।
इस प्रकार, सुधार
आंदोलनों का चरण भारतीय इतिहास में एक ऐसा चरण था जिसने न केवल भारतीय समाज एवं
धर्म का नयी दिशा दी अपितु भारतीय इतिहास में नये अध्याय का समावेश भी किया। इन
आंदोलनों का ही प्रतिफल था कि उपनिवेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने में पूरा
भारतीय समाज उठ खड़ा हुआ तथा उसे जड़ से उखाड़ फेंका।
सुधार आंदोलनों का
नकारात्मक प्रभाव
19वीं सदी
के सुधार आंदोलन मुख्यतया शहरी मध्यम एवं उच्च वर्ग तक ही सीमित रहे तथा
कोई भी आंदोलन देश के गांव और किसानों तथा शहरों के गरीब लोगों तक नहीं पहुंच सका।
इसके अतिरिक्त आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने पीछे देखने या अतीत की महानता और
अपने-अपने धर्मग्रंथों से प्रमाण देने की प्रवृत्ति का सहारा लिया। उनकी इन प्रवृत्ति
ने लोगों में साम्प्रदायिकता के आधार पर विभाजित होने की गलत परम्परा को
अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दिया। अनेक इतिहासकारों का मत है कि देश में अन्य
अनेक कारणों के साथ-साथ इन आंदोलनों ने भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया।
सुधार-आंदोलनों में
संस्कृति के कुछ चुनिंदा पहलुओं को ज्यादा महत्व दिये जाने से संस्कृति के अन्य
क्षेत्र जैसे-स्थापत्य,
संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला
इत्यादि उपेक्षित हुये। हिन्दू समाज सुधारक अपनी विचारधारा में प्राचीन इतिहास
एवं संस्कृति में ही संकुचित होकर रह गये तथा उन्होंने मध्यकालीन इतिहास को
बिल्कुल भुला दिया, जबकि भारतीय इतिहास में मध्यकाल
का अपना एक विशेष स्थान है तथा इसकी अनेक गौरवशाली
उपलब्धियां रही हैं प्राचीन संस्कृति का अतिशय गुणगान करने से वे जातियां इसके विरुद्ध हो गयीं जिनके पूर्वज प्राचीन
काल में विभिन्न प्रकार के शोषण एवं उत्पीड़न के शिकार रहे थे
प्राचीन काल में
पुरोहितों का सामाजिक एकाधिकार एवं वर्चस्व था। इसके कारण भी कई जातियां
विशेष रूप से निम्न जातियां इन आंदोलनों में सक्रिय नहीं हुयी। कई मुस्लिम
मध्यवर्गियों ने मुस्लिम समाज का पाश्चात्यीकरण किये जाने के प्रयास को उच्च वर्ग
के हितों का पक्षपोषण माना तथा इसे मध्य एशिया की मुस्लिम सभ्यता एवं संस्कृति को
नीचा दिखाने का प्रयास समझा । धार्मिक सुधारकों द्वारा केवल अपने धर्म की
श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयास से साम्प्रदायिक सौहार्द को धक्का लगा लोगों का
आपसी आपसी भाईचारा कम हुआ। कालांतर में इसी मनोधारणा से लाभ उठाकर अंग्रेजों ने
भारतीय समाज को विभाजित करने के कुत्सित प्रयत्न प्रारंभ कर दिये जिसकी दुखद
परिणती देश के विभाजन के रूप में सामने आयी।
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