स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत उदारवादी चरण और प्रारंभिक कांग्रेस (1858-1905 ई.)
CH-3 MODERN HISTORYभारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन कारकों का परिणाम माना जाता है, जो भारत में उपनिवेशी शासन के कारण उत्पन्न हुए जैसे-नयी-नयी संस्थाओं की स्थापना, रोजगार के नये अवसरों का सृजन, संसाधनों का अधिकाधिक दोहन इत्यादि । दूसरे शब्दों में भारत में राष्ट्रवाद का उदय कुछ उपनिवेशी नीतियों द्वारा एवं कुछ उपनिवेशी नीतियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। किंतु विभिन्न परिस्थितियों के अध्ययनपरांत यह ज्यादा तर्कसंगत होता है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय किसी एक कारण या परिस्थिति से उत्पन्न न होकर विभिन्न कारकों का
सम्मिलित प्रतिफल था। संक्षिप्त रूप में देखा जाये तो भारत में राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के लिये
निम्न कारक उत्तरदायी थे
(1) विदेशी आधिपत्य का परिणाम।
(ii) पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा ।
(3) फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप विश्व स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना एवं आत्म-विश्वास की भावना का प्रसार।
(iv) प्रेस एवं समाचार पत्रों की भूमिका।
(v) भारतीय पुनर्जागरण।
(vi) अंग्रेजों द्वारा भारत में आधुनिकता को बढ़ावा।
(vi) ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध भारतीय आक्रोश इत्यादि ।
भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के कारण
भारतीय हितों एवं उपनिवेशी हितों में विरोधाभासः
भारतवासियों ने देश के आर्थिक पिछड़ेपन को उपनिवेशी शासन का परिणाम माना। उनका विचार था कि देश के विभिन्न वर्ग के लोगों यथा-कृषक, शिल्पकार, दस्तकार, मजदूर, बुद्धजीवी, शिक्षित वर्ग एवं व्यापारियों इत्यादि सभी के हित विदेशी शासन की भेंट चढ़ गये हैं। देशवासियों की इस सोच ने आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया। उनका मानना था कि देश में जब तक विदेशी शासन रहेगा लोगों के आर्थिक हितों पर कुठाराघात होता रहेगा।
देश का राजनीतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक एकीकरण भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व में असम से पश्चिम में खैबर दरे तक था। अंग्रेजों ने देश में मौर्यों एवं मुगलों से भी बड़े साम्राज्य की स्थापना की। कुछ भारतीय राज्य सीधे ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में थे तो अन्य देशी रियासतें अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के अधीन थीं। ब्रिटिश तलवार ने पूरे भारत को एक झंडे के तले एकत्र कर दिया एक दक्ष कार्यपालिका, संगठित न्यायपालिका तथा संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून, जिन पर दृढ़ता से अमल होता था भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक लागू होते थे। इसने भारत की परम्परागत सांस्कृतिक एकता को एक नये प्रकार की राजनैतिक एकता प्रदान की। प्रशासनिक सुविधाओं, सैन्य, रक्षा उद्देश्यों, आर्थिक तथा व्यापारिक शोपण की बातों को ध्यान में रखते हुए परिवहन के तीव्र साधनों का विकास किया गया । पक्के मार्गों का निर्माण हुआ जिससे एक स्थान दूसरे स्थान से जुड़ गये। परंतु देश को एक सूत्र में बांधने का सबसे बड़ा साधन रेल था। 1850 के पश्चात रेल लाइनें बिछाने का कार्य प्रारंभ हुआ। रेलवे से अन्य कई लाभों के अतिरिक्त इसने देश को अप्रत्यक्ष रूप से एकीकृत करने का भी कार्य किया।
1850 के उपरांत प्रारंभ हुयी आधुनिक डाक व्यवस्था ने तथा विजली के तारों ने देश को समेकित करने में सहायता की। इसी प्रकार आधुनिक संचार साधनों ने भारत के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से संबंध बनाये रखने में सहायता दी। इससे राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला।
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से एकीकरण के इन प्रयासों को दो प्रकार से देखा जा सकता है
(i) एकीकरण से विभिन्न भाग के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गये। जैसे किसी एक भाग में अकाल पड़ने पर इसका प्रभाव दूसरे भाग में खाद्यानो के मूल्यों एवं आपूर्ति पर भी होता था।
(ii) यातायात एवं संचार के साधनों के विकास से देश के विभिन्न वर्गों के लोग मुख्यतयाः नेताओं का आपस में राजनीतिक सम्पर्क स्थापित हो गया। इससे राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया को गति मिली तथा उनके मध्य विभिन्न सार्वजनिक एवं आर्थिक विषयों पर वाद-विवाद सरल हो गया।
प्रमुख विचार
ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित भारत की प्रशासनिक एकता ने सामान्य अधीनता की भावना को जन्म दिया।
जदाहरलाल नेहरू
पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा का प्रभावः
आधुनिक शिक्षा प्रणाली के प्रचलन से आधुनिक पाश्चात्य विचारों को अपनाने में मदद मिली, जिससे भारतीय राजनीतिक चिंतन को एक नई दिशा प्राप्त हुयी। जब ट्रैवेलियन, मैकाले तथा बैटिक ने देश में अंग्रेजी शिक्षा का श्रीगणेश किया तो यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय था। पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार यद्यपि प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिये किया गया था। परंतु इससे नवशिक्षित वर्ग के लिये पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के द्वार खुल गये। बेन्थम, शीले, मिल्टन, स्पेंसर, स्टुअर्ट मिल, पेन, रूसो तथा वाल्टेयर जैसे । प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों के अतिवादी और पाश्चात्य विचारों ने भारतीय बुद्धजीवियों में स्वतंत्र राष्ट्रीयता तथा स्वशासन की भावनायें जगा दी और उन्हें अंग्रेजी साम्राज्य का विरोधाभास खलने लगा।
इसके साथ ही अंग्रेजी भाषा ने सम्पूर्ण राष्ट्र के विभिन्न प्रांतों एवं स्थानों के लोगों के लिये सम्पर्क भाषा का कार्य किया। इसने सभी भाषा-भाषियों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन को अखिल भारतीय स्वरूप मिल सका। अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त कर नवशिक्षित भारतीयों जैसे-वकीलों, डाक्टरों इत्यादि ने उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड की यात्रा की। इन्होंने यहां एक स्वतंत्र देश में विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया देखी तथा वस्तुस्थिति का भारत से तुलनात्मक आकलन किया, जहां नागरिकों को विभिन्न प्रकार के स्वतंत्र अधिकारों से वंचित रखा गया था। इस नव पाश्चात्य भारतीय शिक्षित वर्ग ने में नये बौद्धिक मध्यवर्ग का विकास किया, कालांतर में जिसने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत की विभिन्न राजनीतिक एवं अन्य संस्थाओं को इसी मध्य वर्ग से नेतृत्व मिला।
प्रेस एवं समाचार-पत्रों की भूमिकाः
समय-समय पर उपनिवेशी शासको द्वारा भारतीय प्रेस पर विभिन्न प्रतिबंधों के बावजूद 19वीं शताब्दी के पूवाद्ध भारतीय समाचार पत्रों एवं साहित्य की आश्चर्यजनक प्रगति हुयी। 1877 मे प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषायी एवं हिन्दी समाचार पत्रों की संख्या लगभग 169 थी तथा इनकी प्रसार संख्या लगभग 1 लाख तक पहुंच गयी थी।
भारतीय प्रेस, जहां एक ओर उपनिवेशी नीतियों की आलोचना करता था ही दूसरी ओर देशवासियों से आपसी एकता स्थापित करने का आह्वान करता था। ने आधुनिक विचारों एवं व्यवस्था यथा-स्वशासन, लोकतंत्र, दीवानी अधिकार,औद्योगिकीकरण इत्यादि के प्रसार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। समाचार पत्रों, जर्नल्स, पैम्फलेट्स तथा राष्ट्रवादी साहित्य ने देश के विभिन्न मार्गो में स्थित राष्ट्रवादी नेताओं के मध्य विचारों के आदान-प्रदान में भी सहायता पहुंचायी।
इस प्रकार भारतीय समाचार-पत्र भारतीय राष्ट्रवाद के दर्पण बन गये तथा जनता को शिक्षित करने का माध्यम ।
भारत के अतीत का पुनः अध्ययनः 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतवासियों को अपने प्राचीन इतिहास का ज्ञान अत्यंत कम था । वे केवल मध्यकालीन या 18वीं सदी के इतिहास से ही थोड़ा-बहुत परिचित थे किंतु तत्कालीन प्रसिद्ध यूरोपीय इतिहासकारों जैसे-मैक्समुलर, मोनियर विलियम्स, रोथ एवं सैसून तथा विभिन्न राष्ट्रवादी इतिहासकारों जैसे-आर.जी. भंडारकर, आर.एल. मित्रा एवं स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को पुर्नव्याख्यित कर राष्ट्र की एक नयी तस्वीर पेश की। इन्होंने अथक परिश्रम कर कला, साहित्य, वास्तुकला, संगीत, दर्शन, विज्ञान तथा गणित इत्यादि के क्षेत्रों में भारतीय उपलब्धियों एवं मानव सभ्यता के विकास में भारत के योगदान को पुनः प्रकाशित किया, जिससे लोगों में राष्ट्रप्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुयी यूरोपीय चिंतकों ने व्याख्या दी कि भारतीय तथा यूरोपीय एक ही प्रकार के आर्यों की संतान है। इसका भारतवासियों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा तथा उनमें प्रजातीय हीनता की भावना जाती रही। इससे देशवासियों की यह भ्रांति भी दूर हो गयी कि वे सदैव ही गुलामी की दासता के अधीन जीते रहे हैं।
सुधार आंदोलनों का विकासात्मक स्वरूपः
19वीं शताब्दी में भारत में विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुये इन आंदोलनों ने सामाजिक, धार्मिक नवजागरण का कार्यक्रम अपनाया और सारे देश को प्रभावित किया। आंदोलनकारियों ने व्यक्ति स्वातंत्र्ता,सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर जोर दिया और उनके लिये संघर्ष किया इन आंदोलनों ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सामाजिक एकता कायम की समाज सुधार के प्रस्तावों को सरकारी अनुमति में विलंब ने समाज सुधारकों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि जब तक स्वशासन नहीं होगा सुधार संबंधी विधेयकों को पूर्णतयाः सरकारी सहमति एवं सहयोग नहीं मिल सकता। सुधार-आंदोलनों ने देशवासियों में साहस जुटाया कि वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करें।
मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का उत्थानः
अंग्रेजों की प्रशासनिक तथा आर्थिक प्रक्रिया से नगरों में एक मध्यवर्गीय नागरिकों की श्रेणी उत्पन्न हुई। इस नवीन श्रेणी ने तत्परता से अंग्रेजी भाषा सीख ली जिससे उसे रोजगार तथा सामाजिक प्रतिष्ठा दोनों ही प्राप्त होने लगे। यह नवीन श्रेणी अपनी शिक्षा, समाज में उच्च स्थान तथा प्रशासक वर्ग के समीप होने के कारण आगे आ गई यह मध्यवर्ग भारत की नवीन आत्मा बन गया तथा इसने समस्त देश में नयी शक्ति का संचार किया। इसी वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन को उसके सभी चरणों में नेतृत्व प्रदान किया।
तत्कालीन विश्वव्यापी घटनाओं का प्रभावः
दक्षिण अमेरिका में स्पेनी एवं पुर्तगाली उपनिवेशी शासन की समाप्ति से अनेक नये राष्ट्रों का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त यूनान एवं इटली के स्वतंत्रता आंदोलनों एवं आयरलैंण्ड की घटनाओं ने भारतीयों को अत्यंत प्रभावित किया।
विदेशी शासकों का जातीय अहंकार तथा प्रतिक्रियावादी नीतियां:
अंग्रेज शासकों की जातीय अहंकार एवं श्रेष्ठता की भावना ने भारतीयों को अत्यंत आहत किया। अंग्रेज अधिकारियों तथा कर्मचारियों ने खुले आम शिक्षित भारतीयों को अपमानित किया तथा कई बार उन पर प्रहार किये। अंग्रेज भारतीयों को अनेक अपमानजनक शब्दों से संबोधित करते थे। एक अंग्रेज का जीवन कई भारतीयों के जीवन से अधिक मूल्यवान समझा जाता था। उच्च एवं महत्वपूर्ण पदों पर भारतीयों को नियुक्ति का अधिकार नहीं था। इन सभी कारणों से त्वचा के गोरेपन एवं प्रजातीय श्रेष्ठता के रंग में डूबे अंग्रेजों के प्रति भारतीयों में घृणा पैदा हो गयी। जातीय अहंकार का सबसे घृणित रूप था-न्याय में असमानता। अंग्रेज तथा भारतीयों के झगड़े में दोषी होने पर भी अंग्रेजों को दोषमुक्त करार दिया जाता था तथा दोषहीन होने पर भी भारतीयों को कठोर दण्ड से प्रताड़ित किया जाता था।
लार्ड लिटन की विभिन्न प्रतिक्रियावादी नीतियों जैसे -इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करना (1876), जब पूरा दक्षिण भारत भयंकर अकाल की चपेट में था तब भव्य दिल्ली दरबार का आयोजन (1877), वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878) तथा शस्त्र अधिनियम (1878) इत्यादि ने देशवासियों के समक्ष सरकार की वास्तविक मंशा उजागर कर दी तथा अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत तैयार किया। इसके पश्चात इलबर्ट बिल विवाद (1883) सामने आया । लार्ड रिपन के समय इलबर्ट बिल को लेकर भारत में एक विशिष्ट समस्या खड़ी हो गयी। लार्ड रिपन ने इस प्रस्ताव द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियन अधिकारियों के मुकद्दमे का निर्णय करने का अधिकार देना चाहा। इस बात पर सम्पूर्ण भारत और इंग्लैण्ड में अंग्रेजों ने संगठित होकर ऐसा तीव्र आंदोलन किया कि इस प्रस्ताव का संशोधित रूप ही कानून बन सका। इसमें काले और गोरे को लेकर, जो विवाद खड़ा हुआ उससे स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज रंग के आधार पर भारतीयों से कितनी घृणा करते थे। इससे भारतीयों में अंग्रेजों के विरुद्ध नफरत पैदा हो गयी तथा उनमें संगठित होकर आंदोलन करने की प्रेरणा जागी।
न्यायालयों में हमारे एक भी देशवासी (अंग्रेज) के साक्ष्य का वजन अनेक हिंदुओं के साक्ष्यों से ज्यादा होता है। यह ऐसी परिस्थिति है, जो बेईमान एवं लालची अंग्रेजों के हाथों में सत्ता का भयंकर उपकरण रख देती है।
जी.ओ टेवेलियन (1864)
साहित्य की भूमिकाः
19वीं एवं 20वीं शताब्दी में विभिन्न प्रकार के साहित्य की रचना हुयी उससे भी राष्ट्रीय जागरण में सहायता मिली। विभिन्न कविताओं, निबंधों, कथाओं, उपन्यासों एवं गीतों ने लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की। हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बांग्ला में रवींद्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, बंकिमचंद्र चटर्जी, मराठी में विष्णु शास्त्री चिपलंकर, असमिया में लक्ष्मीदास बेजबरुआ इत्यादि उस काल के प्रख्यात राष्ट्रवादी साहित्यकार थे इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, एकता, भाईचारा तथा राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। साहित्यकारों के इन प्रयासों से आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास को प्रोत्साहन मिला।
कांग्रेस के गठन से पूर्व की राजनीतिक संस्थायें
19वीं शताब्दी के पूर्वाध में भारत में जिन राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुयी
उनका नेतृत्व मुख्यतयाः समृद्ध एवं प्रभावशाली वर्ग द्वारा किया गया इन संस्थाओं का स्वरूप स्थानीय या क्षेत्रीय था। इन्होंने विभिन्न याचिकाओं एवं प्रार्थना पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश संसद के समक्ष निम्न मांगें रखीं-
प्रशासनिक सुधार
• प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी को बढ़ावा तथा
• शिक्षा का प्रसार
किंतु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देश में जिन राजनीतिक संस्थाओं का गठन हुआ उसका नेतृत्व मुख्यतयाः मध्य वर्ग के द्वारा किया गया। इस वर्ग के विभिन्न लोगों जैसे-वकीलों, डाक्टरों, पत्रकारों तथा शिक्षकों इत्यादि ने इन राजनीतिक संगठनों को शसक्त नेतृत्व प्रदान किया इन सभी ने सक्षम नेतृत्व प्रदान कर इन संस्थाओं की मांगों को परिपूर्णता एवं प्रासंगिकता प्रदान की।
बंगाल में राजनीतिक संस्थाएं
बंगाल में राजनीतिक आंदोलनों के सबसे पहले प्रवर्तक थे राजा राममोहन राय। वे पाश्चात्य विचारों से प्रभावित व्यक्ति थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजों का ध्यान भारतीय समस्याओं की ओर आकृष्ट किया । ऐसा माना जाता है कि 1836 के चार्टर एक्ट की अनेक उदारवादी धारायें उन्हीं के प्रयत्नों का परिणाम थीं। लेकिन बंगाल में सर्वप्रथम राजनीतिक संगठन बनाने का श्रेय उनके सहयोगियों को मिला, जब उन्होंने 1836 में बंगभाषा प्रकाशक सभा का गठन किया।
जुलाई 1838 में जमींदारों के हितों की सुरक्षा के लिये जमींदारी एसोसिएशन जिसे लैंडहोल्डर्स एसोसिएशन के नाम से भी जाना जाता था, का गठन किया गया। जमींदारी एसोसिएशन भारत की पहली राजनीतिक सभा थी, जिसने संगठित राजनीतिक प्रयासों का शुभारंभ किया। इसने ही सर्वप्रथम अपने उद्देश्यों के लिये संवैधानिक प्रदर्शन का मार्ग अपनाया।
1843 में एक अन्य राजनीतिक सभा बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी बनायी गयी, जिसका उद्देश्य लोगों में राष्ट्रवाद का भावना जगाना तथा राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना था। सोसायटी, ब्रिटिश शासन के प्रभाव से समाज के सभी वर्ग के लोगों की कठिनाइयों एवं दुखों पर विचार कर उनके समाधान ढूंढने प्रयत्न करती थी।
1851 में जमींदारी एसोसिएशन तथा बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी का आपस में विलय हो गया तथा एक नयी संस्था ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन का गठन हुआ। इसने ब्रिटेन की संसद को एक प्रार्थना पत्र भेजकर अपील की कि उसके कुछ सुझावों को कम्पनी के नये चार्टर में सम्मिलित किया जाये जैसे-
(i) लोकप्रिय उद्देश्यों वाली पृथक विधायिका की स्थापना
(ii) उच्च वर्ग के नौकरशाहों के वेतन में कमी
(ii) नमक कर, आबकारी कर एवं डाक शुल्क में समाप्ति एसोसिएशन के इन सुझावों को आंशिक सफलता मिली, जब 1853 के अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल की विधायी परिषद में कानून निर्माण में सहायता देने के लिये 6 नये सदस्यों को मनोनीत करने का प्रावधान किया गया।
1866 में दादा भाई नौरोजी ने लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन का गठन किया। इसका उद्देश्य भारत के लोगों की समस्याओं और मांगों से ब्रिटेन को अवगत कराना तथा भारतवासियों के पक्ष में इंग्लैण्ड में जनसमर्थन तैयार करना था। कालांतर में भारत के विभिन्न भागों में इसकी शाखायें खुल गयीं।
1875 में शिशिर कुमार घोष ने इण्डियन लीग की स्थापना की, जिसका उद्देश्य लोगों में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना तथा राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहन देना था। शीघ्र ही इण्डियन लीग का स्थान इंडियन एसोसिएशन आफ कलकत्ता ने ले लिया। इसकी स्थापना 1876 में हुई। सुरेंद्रनाथ बनर्जी एवं आनंद मोहन बोस इसके प्रमुख नेता थे। ये दोनों 'ब्रिटिश इंडियन' एसोसिएशन की संकीर्ण एवं जमींदार समर्थक नीतियों के विरुद्ध थे। इंडियन एसोसिएशन आफ कलकत्ता, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाओं में से एक महत्वपूर्ण संस्था थी। इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे-
(i) तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में सशक्त जनमत तैयार करना
(ii) एक साझा राजनीतिक कार्यक्रम हेतु भारतवासियों में एकता की स्थापना करना।
एसोसिएशन की शाखाएं बंगाल के अनेक स्थानों तथा वंगाल से बाहर भी कई स्थानों पर खोली गयीं । एसोसिएशन ने निम्न आय वर्ग के लोगों को आकृष्ट करने के लिए अपनी सदस्यता शुल्क काफी कम रखी।
बंबई में राजनीतिक संस्थाएं
बंबई में सर्वप्रथम राजनीतिक संस्था बाम्बे एसोसिएशन थी. जिसका गठन 26 अगस्त 1852 को कलकत्ता ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन के नमूने पर किया गया । इसका उद्देश्य भेदभावपूर्ण सरकारी नियमों के विरुद्ध सरकार को सुझाव देना तथा विभिन्न बुराइयों को दूर करने हेतु सरकार को ज्ञापन देना था।
1867 में महादेव गोविंद रानाडे ने 'पूना सार्वजनिक सभा बनायी। जिसका उद्देश्य सरकार और जनता के मध्य सेतु का कार्य करना था।
1885 में बाम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन बनायी गयी। जिसका श्रेय सैय्यद बदरुद्दीन तैय्यबाजी, फिरोजशाह मेहता एवं के.टी तैलंग को है।
मद्रास में राजनीतिक संस्थाएं
कलकत्ता की ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन की शाखा के रूप में मद्रास नेटिव एसोसिएशन का गठन किया गया किंतु यह ज्यादा प्रभावी न हो सकी। मई 1884 में एम. वीराराघवाचारी, बी. सुब्रह्मण्यम अय्यर एवं पी. आनंद चार्लू ने मद्रास महाजन सभा का गठन किया। इस सभा का उद्देश्य स्थानीय संगठन के कार्यों को समन्वित करना था।
कांग्रेस से पूर्ववर्ती अभियान
भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर अखिल भारतीय कांग्रेस के अभ्युदय से पूर्व इन राजनीतिक संस्थाओं ने अनेक आंदोलन या अभियान किये। जो इस प्रकार हैं
(i) 1875 में कपास पर आयात शुल्क आरोपित करने के विरोध में।
(ii) सरकारी सेवाओं के भारतीयकरण हेतु (1878-79) में।
iii) लार्ड लिटन की अफगान नीति के विरोध में।
(iv) शस्त्र अधिनियम (1878) के विरोध में।
(v) वर्नाकुलर प्रेस एक्ट (1878) के विरोध में। (
vii) 'प्लांटेशन लेबर' एवं 'इन्लैंड इमिग्रेशन एक्ट' के विरोध में।
(vi) स्वयंसेवक सेना में प्रवेश के अधिकार के समर्थन में।
(viii) इलबर्ट बिल के समर्थन में।
(ix) राजनीतिक प्रदर्शनों हेतु अखिल भारतीय कोष की स्थापना के समर्थन में।
(x) ब्रिटेन में भारत का समर्थन करने वाले दल के लिये मतों हेतु।
(xi) भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश की न्यूनतम आयु कम करने के समर्थन में।
इण्डियन एसोसिएशन ने इस संबंध में अखिल भारतीय प्रदर्शन किया। इसे भारतीय सिविल सेवा प्रदर्शन' के नाम से भी जाना जाता है।
कांग्रेस के गठन से पूर्व की राजनीतिक संस्थायें
1836 | बंगभाषा प्रकाशक सभा |
1838 | जमींदारी एसोसिएशन |
1843 | बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी |
1851 | ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन |
1866 | ईस्ट इंडिया एसोसिएशन |
1867 | पूना सार्वजनिक सभा |
1875 | इण्डियन लीग |
1876 | कलकत्ता भारतीय एसोसिएशन |
1884 | मद्रास महाजन सभा |
1885 | वाम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन |
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसः उद्देश्य एवं कार्यक्रम
कांग्रेस के गठन से पूर्व देश में एक अखिल भारतीय संस्था के गठन की भूमिका तैयार हो चुकी थी। 19वीं शताब्दो के छठे दशक से ही राष्ट्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ता एक अखिल भारतीय संगठन के निर्माण में प्रयासरत थे। किंतु इस विचार को मूर्त एवं व्यावहारिक रूप देने का श्रेय एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी ए.ओ ह्यूम को प्राप्त हुआ। ह्यूम ने 1883 में ही भारत के प्रमुख नेताओं से संपर्क स्थापित किया। इसी वर्ष अखिल भारतीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। 1884 में उन्हीं के प्रयत्नों से एक संस्था 'इंडियन नेशनल यूनियन' की स्थापना हुयी। इस यूनियन ने पूना में 1885 में राष्ट्र के विभिन्न प्रतिनिधियों का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया और इस कार्य का उत्तरदायित्व भी ए.ओ. ह्यूम को सौंपा। लेकिन पूना में हैजा फैल जाने से उसी वर्ष यह सम्मेलन बंबई में आयोजित किया गया। सम्मेलन में भारत के सभी प्रमुख शहरों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, यहीं सर्वप्रथम 'अखिल भारतीय कांग्रेस' का गठन किया गया। ए ओ. ह्यूम के अतिरिक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस कांग्रेस के प्रमुख वास्तुविद (Architects) माने जाते हैं।
कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की तथा इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके पश्चात प्रतिवर्ष भारत के विभिन्न शहरों में इसका वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया जाता था। देश के प्रख्यात राष्ट्रवादी नेताओं ने कांग्रेस के प्रारंभिक चरण में इसकी अध्यक्षता की तथा उसे सुयोग्य नेतृत्व प्रदान किया। इनमें प्रमुख हैं-दादा भाई नौरोजी (तीन बार अध्यक्ष) बदरुड्ीन तैय्यबजी, फिरोजशाह मेहता, पी. आनंद चार्लू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेश चंद्र देत आनंद मोहन बोस और गोपाल कृष्ण गोखले । कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं में महादेव गोविद रानाडे, बाल गंगाधर तिलक, शिशिर कुमार घोष, मोतीलाल घोष मदन मोहन मालवीय, जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, सी विजयराघवाचारी तथा दिनशा इ. वाचा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम महिला स्नातक कादम्बिनी गांगुली ने 1890 में प्रथम बार काग्रेस को संबोधित किया। इस सम्बोधन का कांग्रेस के इतिहास में दूरगामी महत्व था क्योंकि इससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में महिलाओं की सहभागिता परिलक्षित होती है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अतिरिक्त प्रांतीय सभाओं, संगठनों, समाचार पत्रों एवं साहित्य के माध्यम से भी राष्ट्रवादी गतिविधियां संचालित होती रहीं । कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रमः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रम इस प्रकार थे-
(i) लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी आंदोलन चलाना ।
(ii) भारतीयों को राजनीतिक लक्ष्यों से परिचित कराना तथा राजनीतिक शिक्षा देना।
(iii) आंदोलन के लिये मुख्यालय की स्थापना।
(iv) देश के विभिन्न भागों के राजनीतिक नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बंधों की स्थापना को प्रोत्साहित करना।
(v) उपनिवेशवादी विरोधी विचारधारा को प्रोत्साहन एवं समर्थन ।
(vi) एक सामान्य आर्थिक एक राजनीतिक कार्यक्रम हेतु देशवासियों को एकमत करना।
(vi) लोगों को जाति, धर्म एवं प्रांतीयता की भावना से उठाकर उनमें एक राष्ट्रव्यापी अनुभव को जागृत करना।
(vii) भारतीय राष्ट्रवादी भावना को प्रोत्साहन एवं उसका प्रसार ।
क्या कांग्रेस की स्थापना के पीछे 'सेफ्टी वाल्व' की अवधारणा थी?
कहा जाता है कि ए.ओ. ह्यूम ने राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में जिन मुख्य लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सहयोग दिया था उनमें सबसे प्रमुख था-अंग्रेजी शासन के विरुद्ध बढ़ते हुये जन असंतोष के लिये सुरक्षा कपाट (सेफ्टी वाल्व) की व्यवस्था करना।
ऐसा कहा जाता है कि सरकारी अधिकारी के रूप में कार्य करते हुये ह्यूम को कुछ ऐसी सूचनायें प्राप्त हुयीं थीं कि शीघ्र ही राष्ट्रीय विद्रोह होने की सम्भावना है। यदि कांग्रेस का गठन हो जाये तो वह जनता की दबी हुयी भावनाओं एवं उद्गारों को बाहर निकालने का अवसर प्रदान करने वाली संस्था सिद्ध होगी जो ब्रिटिश सरकार को किसी प्रकार की हानि होने से बचायेगी। इसीलिये ह्यूम ने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन से अनुरोध किया कि वे कांग्रेस की स्थापना में किसी तरह की रुकावट पैदा न करें। हालांकि भारत के आधुनिक इतिहासकारों में 'सेफ्टी वाल्व की अवधारणा को लेकर मतएकता नहीं है। उनके अनुसार कांग्रेस की स्थापना भारतीयों में आयी राजनीतिक चेतना का परिणाम थी। वे किसी ऐसी राष्ट्रीय संस्था की स्थापना करना चाहते थे, जिसके द्वारा वे भारतीयों की राजनीतिक एवं आर्थिक मांगों को सरकार के सम्मुख रख सकें। यदि उन परिस्थितियों में भारतीय इस तरह की कोई पहल करते तो निश्चय ही सरकार द्वारा इसका विरोध किया जाता या इसमें व्यवधान पैदा किया जाता तथा सरकार इसकी अनुमति नहीं देती। किंतु संयोगवश ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो गयीं जिनमें कांग्रेस की स्थापना हो गयी। विपिन चंद्र के अनुसार, ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना के लिए तड़ित चालक या उत्प्रेरक का कार्य किया। जिससे राष्ट्रवादियों को एक मंच में एकत्र होने एवं कांग्रेस का गठन करने में सहायता मिली और इसी से 'सेफ्टी वाल्व' की अवधारणा का जन्म हुआ।
कांग्रेस की स्थापना के पश्चात भारत का स्वतंत्रता आंदोलन लघु पैमाने एवं मंद गति से ही सही किन्तु एक संगठित रूप में प्रारंभ हुआ। यद्यपि कांग्रेस का आरंभ बहुत ही प्रारंभिक उद्देश्यों को लेकर किया गया था किंतु धीरे-धीरे उसके उद्देश्यों में परिवर्तन होता गया तथा शीघ्र ही वह राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवा बन गयी।
प्रमुख विचार
यह एक सफल अवसरवादी आंदोलन था। इसने कपटी एवं पाखण्डियों के लिये अवसर खोले। इसने कुछ लोगों को राष्ट्रीयता के नाम को भुनाने का अवसर दिया।
लाला लाजपत राय
कांग्रेस अपने पतन की ओर लड़खड़ाती जा रही है तथा उसकी इच्छा है कि वह कांग्रेस की शांतिमय मृत्यु में सहायता दे सके।
लार्ड कर्जन (1900
प्रारंभिक उदारवादियों के राजनीतिक कार्य या कांग्रेस का प्रथम चरण(1885-1905)
कांग्रेस के इस चरण को उदारवादी चरण के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस चरण में आंदोलन का नेतृत्व मुख्यतया उदारवादी नेताओं के हाथों में रहा। इनमें दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा, डब्ल्यू.सी बनर्जी, एस.एन बनर्जी, रासबिहारी घोष, आर.सी. दत्त, बदरुद्दीन तैयबजी, गोपाल कृष्ण गोखले, पी. आर. नायडू, आनंद चार्लू एवं पंडित मदन मोहन मालवीय इत्यादि प्रमुख थे । इन नेताओं को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रथम चरण के नेताओं के नाम से भी जाना जाता है। ये नेता उदारवादी नीतियों एवं अहिंसक विरोध प्रदर्शन में विश्वास रखते थे। इनकी यह विशेषता इन्हें 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में उभरने वाले नव-राष्ट्रवादियों जिन्हें उग्रवादी कहते थे, से पृथक् करती है।
उदारवादी, कानून के दायरे में रहकर अहिंसक एवं संवैधानिक प्रदर्शन के पक्षधर थे। यद्यपि उदारवादियों की यह नीति अपेक्षाकृत धीमी थी किंतु इसके क्रमबद्ध राजनीतिक विकास की प्रक्रिया प्रारंभ हुयी। उदारवादियों का मत था कि
अंग्रेज भारतीयों को शिक्षित बनाना चाहते हैं तथा वे भारतीयों की वास्तविक समस्याओं से बेखवर नहीं हैं। अतः यदि सर्वसम्मति से सभी देशवासी प्राथनापत्रों, याचिकाओं एवं सभाओं इत्यादि के माध्यम से सरकार से अनुरोध करें तो सरकार धीरे-धीरे उनकी मांगें स्वीकार कर लेगी।
अपने इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उदारवादियों ने दो प्रकार की नीतियों का अनुसरण किया। पहला, भारतीयों में राष्ट्रप्रेम एवं चेतना जागृत कर राजनीतिक मुद्दों पर उन्हें शिक्षित करना एवं उनमें एकता स्थापित करना।
दूसरा, ब्रिटिश जनमत एवं ब्रिटिश सरकार को भारतीय पक्ष में करके भारत में सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ करना।
अपने दूसरे उद्देश्यों के लिये राष्ट्रवादियों ने 1899 में लंदन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी 'इंडिया' की स्थापना की दादाभाई नौरोजी ने अपने जीवन का काफी समय इंग्लैंड में बिताया तथा विदेशों में भारतीय पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयास किया। 1890 में नौरोजी ने 2 वर्ष पश्चात (अर्थात 1892 में) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन लंदन में आयोजित करने का निश्चय किया किंतु 1891 में लंदन में आम चुनाव आयोजित किये जाने के कारण उन्होंने यह निर्णय स्थगित कर दिया।
उदारवादियों का मानना था कि ब्रिटेन से भारत का सम्पर्क होना भारतीयों के हित में है तथा अभी ब्रिटिश शासन को प्रत्यक्ष रूप से चुनौती देने का यथोचित समय नहीं आया है इसीलिये बेहतर होगा कि उपनिवेशी शासन को भारतीय शासन में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाये।
मुख्य विचार
आप नहीं समझते कि इतिहास में हमारे राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण स्थान है। प्रशासनिक तौर पर हमारे राष्ट्रीय स्मारक सरकार का स्वामित्व प्रदर्शित करते हैं। किंतु सच्चाई वह है कि भारतीयों की सम्पत्ति है।
जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले को ( 1891)
1858 से 1905 तक का समय भारतीय राष्ट्रवाद का शैशवकाल था। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने इस काल में राष्ट्रवाद की धरती को सींचा एवं उसमें गहरे तक राष्ट्रीयता के बीज़ बो दिये।
बिपिन चंद्र
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों का योगदान
ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीतियों की आलोचनाः
अनेक उदारवादी नेताओं यथा-दादाभाई नौरोजी, आर.सी. दत्त, दिनशा वाचा एवं कुछ अन्य ने ब्रिटिश शासन की शोषणमूलक आर्थिक नीतियों का अनावरण किया तथा उसके द्वारा भारत में किय जा रहे आर्थिक शोषण के लिये निकास सिद्धांत' का प्रतिपादन किया। इन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों का परिणाम भारत को निर्धन बनाना है। इनके अनुसार, सोची-समझी रणनीति के तहत जिस प्रकार भारतीय कच्चे माल एवं संसाधनों का निर्यात किया जाता है तथा ब्रिटेन में निर्मित माल को भारतीय बाजारों में खपाया जाता है वह भारत की खुली लूट है। इस प्रकार इन उदारवादियों ने अपने प्रयासों से एक ऐसा सशक्त भारतीय जनमत तैयार किया जिसका मानना था कि भारत की गरीबी एवं आर्थिक पिछड़ेपन का कारण यही उपनिवेशी शासन है। इन्होंने यह भी बताया कि भारत में पदस्थ अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी वेतन एवं अन्य उपहारों के रूप में भारतीय धन का एक काफी बड़ा हिस्सा ब्रिटेन भेजते हैं जिससे भारतीय धन का तेजी से इंग्लैंड की ओर प्रवाह हो रहा है।
इन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर सभी उदारवादियों ने एक स्वर से सरकार से भारत की गरीबी दूर करने के लिये दो प्रमुख उपाय सुझायेः
पहला भारत में आधुनिक उद्योगों का तेजी से विकास तथा संरक्षण एवं दूसरा भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार इसके अतिरिक्त उन्होंने भू-राजस्व में कमी करने, नमक कर का उन्मूलन करने, बागान श्रमिकों की दशा सुधारने एवं सैन्य खर्च में कटौती करने की भी मांग की।
व्यवस्थापिका संबंधी योगदान तथा संवैधानिक सुधारः
1920 तक भारत में व्यवस्थापिकाओं को कोई वास्तविक प्रशासनिक अधिकार नहीं प्राप्त थे। सर्वप्रथम 1861 के भारत परिषद अधिनियम द्वारा इस दिशा में कुछ कदम उठाये गये। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय विधान परिषद का विस्तार किया गया इसमें गवर्नर-जनरल और उसकी काउंसिल के सदस्यों के अतिरिक्त 6 से 12 तक अतिरिक्त सदस्यों की व्यवस्था की गयी। केंद्रीय विधान परिषद भारत के किसी भी विषय पर कानून बना सकती थी लेकिन इस परिषद में भारतीय सदस्यों की संख्या अत्यल्प होती थी।
1862 से 1892 के मध्य 30 वर्षों की अवधि में केवल 5 भारतीय ही इस परिषद के सदस्य बन सके। जिनमें से अधिकांश धनी. प्रभावशाली एवं अंग्रेजों के भक्त थे नाममात्र के बौद्धिक व्यक्तियों एवं प्रख्यात लोगों को इसकी सदस्यता मिली। इनमें सैय्यद अहमद खान, क्रिस्टोदस पाल, वी.एन. मंडलीक, के.एल. नुलकर एवं रासबिहारी घोष प्रमुख हैं। इस प्रकार 1861 के एक्ट ने ब्रिटिश भारत में केंद्रीय स्तर पर एक छोटी सी विधानसभा को जन्म दिया। 1885 1892 के मध्य राष्टवादियों की संवैधानिक सधारों की मागे मुख्यतया निम्न दो बिन्दुओं तक केंद्रित रहीं
(1) परिषदों का विस्तार एवं इनमें भारतीयों की भागेदारी बढ़ाना। तथा
(2) परिषदों में सुधार, जैसे परिषदों को और अधिक अधिकार देना मुख्यतयाः आर्थिक विषयों पर।
प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने लोकतांत्रिक स्वशासन हेतु लंबी कार्य योजना बनायी।
इनकी संवैधानिक सुधारों की मांगों को सफलता तब मिली जब ब्रिटिश सरकार ने 1892 का भारतीय परिषद अधिनियम बनाया।
किंतु इन अधूरे संवैधानिक सुधारों से कांग्रेस संतुष्ट नहीं हुयी तथा अपने वार्षिक अधिवेशनों में उसने इन सुधारों की जमकर आलोचना की। इसके पश्चात् उसने मांग की कि-
(i) इनमें निर्वाचित भारतीयों का बहुमत हो तथा (ii) उन्हें बजट में नियंत्रण संबंधी अधिकार दिये जायें। उन्होंने नारा दिया 'बिना प्रतिनिधित्व के कर नहीं।
इसी समय दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले एवं लोकमान्य तिलक ने स्वराज्य की मांग प्रारंभ कर दी। इन्होंने ब्रिटिश सरकार से मांग की कि भारत को कनाडा एवं आस्ट्रेलिया की तरह स्वशासित उपनिवेश का दर्जा दिया जाये। फिरोजशाह मेहता एवं गोखले ने ब्रिटिश सरकार की इस मंशा की आलोचना की जिसके तहत वह भारतीयों को स्वशासन देने की दिशा में ईमानदारी पूर्व कार्य नहीं कर रही थी।
यद्यपि ब्रिटिश सरकार की वास्तविक मंशा यह थी कि ये परिषदें भारतीय नेताओं के उद्गार मात्र प्रकट करने का मंच हो, इससे ज्यादा कुछ नहीं। फिर भी भारतीय राष्ट्रवादियों ने इन परिषदों में उत्साहपूर्वक भागेदारी निभायी तथा अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। राष्ट्रवादियों ने इनके माध्यम से विभिन्न भारतीय समस्याओं की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया। अक्षम कार्यपालिका की खामियां उजागर करना, भेदभावपूर्ण नीतियों एवं प्रस्तावों का विरोध करना तथ आधारभूत आर्थिक मुद्दों को उठाने जैसे कार्य इन राष्ट्रवादियों ने इन परिषदों के माध्यम से किये
इस प्रकार राष्ट्रवादियों ने साम्राज्यवादी सरकार की वास्तविक मंशा के उजागर किया तथा स्वशासन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्ध हासिल की। उन्होंने देश के लोगों में राजनीतिक एवं आर्थिक चेतना जगाने का कार्य किया। राष्ट्रवादियों के इन कार्यों से भारतीयों में साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं का प्रसार हुआ। लेकिन इस उपलब्धियों के बावजूद राष्ट्रवादियों की सबसे प्रमुख असफलता यह रही कि वे इन कार्यक्रमों एवं अभियानों का जनाधार नहीं बढ़ा सके। मुख्यतयाः महिलाओं की भागदारी नगण्य रही तथा सभी को मत देने का अधिकार भी नहीं प्राप्त हुआ।
सामान्य प्रशासकीय सुधारों हेतु उदारवादियों के प्रयास:
(1) सरकारी सेवाओं के भारतीयकरण की मांगः इसका आधार आर्थिक हो
क्योंकि विभिन्न प्रशासकीय पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति से देश पर भारी आथिक बोझ पड़ता है, जबकि भारतीयों की नियुक्ति से आर्थिक बोझ में कमी होगी। इसके अतिरिक्त नैतिक आधार पर भी यह गलत था कि भारतीयों के साथ भेद किया जाये तथा उन्हें प्रशासकीय पदों से दूर रखा जाये।
(ii) न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण।
(iii) पक्षपातपूर्ण एवं भ्रष्ट नौकरशाही तथा लंबी एवं खर्चीली न्यायिक प्रणाली की भर्त्सना।
(iv) ब्रिटिश सरकार की आक्रामक विदेश नीति की आलोचना।
बर्मा के अधिग्रहण, अफगानिस्तान पर आक्रमण, एवं उत्तर-पूर्व में जनजातियों के दमन का कड़ा विरोध।
(v) विभिन्न कल्याणकारी मदों यथा-स्वास्थ्य, स्वच्छता इत्यादि में ज्यादा व्यय की मांग। प्राथमिक एवं तकनीकी शिक्षा में ज्यादा व्यय पर जोर, कृषि पर जोर एवं सिंचाई सुविधाओं का विस्तार, कृषकों हेतु कृषक बैंकों की स्थापना इत्यादि।
(vi) भारत के बाहर अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में कार्यरत भारतीय मजदूरों की सुधार करने की मांग। इनके साथ हो रहे अत्याचार एवं प्रजातीय उत्पीड़न दशा को रोकने की अपील।
दीवानी अधिकारों की सुरक्षाः
इसके अंतर्गत विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता, संगठन बनाने एवं प्रेस की स्वतंत्रता तथा भाषण की स्वतंत्रता के मुद्दे सम्मिलित थे। उदारवादी या नरमपंथियों ने इन अधिकारों की प्राप्ति के लिये एक सशक्त आंदोलन चलाया तथा इस संबंध में भारतीय जनमानस को प्रभावित करने में सफलता पायी। इसके परिणामस्वरूप शीघ्र ही दीवानी अधिकारों की सुरक्षा का मुद्दा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बन गया उदारवादियों के इन कार्यों से भारतीयों में चेतना जाग्रत हुयी एवं जब 1897 में बाल गंगाधर तिलक एवं अन्य राष्ट्रवादी नेताओं तथा पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया तो इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुयी। नात् बंधुओं की गिरफ्तारी एवं निर्वासन के प्रश्न पर भी भारतीयों ने कड़ा रोष जाहिर किया।
प्रमुख विचार
वह भारतीय जनता का सर्वथा तिरस्कार करता है, जनता की भावनाओं की अवहेलना करता है, जनता के हितों के स्थान पर शासन के हितों की चिंता अधिक है, अतः उसके सम्मुख न्याय की दुहाई देना कोरा मजाक है
गोखले, सरकार की उदासीनता एवं कुशासन के संबंध में (1905)
हम कोई भीख नहीं मांगते। हमें केवल न्याय चाहिये। ब्रिटिश साम्राज्य में नागरिक होने के नाते हमारे क्या अधिकार हैं उसकी मीमांसा किये बिना ही केवल एक शब्द 'स्वराज्य' में सब कुछ व्यक्त किया जा सकता है वैसा ही स्वराज्य जैसा आयरलैण्ड, कनाडा अथवा अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में प्रचलित है।
दादा भाई नौरोजी (1906)
भारत की स्थिति अत्यंत सोचनीय है...वह निरंतर लूटा जा रहा है। प्राचीन काल में भी लुटेरे आते थे परतु वे लूटने के बाद चले जाते थे तथा कुछ ही वर्षों में भारत पुनः अपनी आर्थिक हानि पूरी कर लेता था। परंतु अब तो वह लगातार ज्यादा से ज्यादा दरिद्र होता जा रहा है। उसे इस लूट से दम लेने का अवकाश ही नहीं मिलता।
दादाभाई नौरोजी 1905 में जे.डी. सदरलैण्ड को अपने पत्र में
प्रारंभिक राष्ट्रवादियों के कार्यों का मूल्यांकन
कुछ आलोचकों के मतानुसार भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में नरपंथियों का नाममात्र का योगदान था इसीलिये वे अपने चरण में कोई ठोस उपलब्धि हासिल नहीं कर सके। इन आलोचकों का दावा है कि अपने प्रारंभिक चरण में कांग्रेस शिक्षित मध्य वर्ग अथवा भारतीय उद्योगपतियों का ही प्रतिनिधित्व करती थी। उनकी अनुनय-विनय की नीति को आंशिक सफलता ही मिली तथा उनकी अधिकांश मांगे सरकार ने स्वीकार नहीं की। निःसंदेह इन आलोचनाओं में पर्याप्त सच्चाई है। किंतु नरमपंथियों की कुछेक उपलब्धियां भी थीं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता यथा
(1) उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज को नेतृत्व प्रदान किया।
(2) साझा हित के सिद्धांतों पर आम सहमति बनाने एवं जागृति लाने में वे काफी हद तक सफल रहे। उन्होंने भारतवासियों में इस भावना की ज्योति जलाई कि सभी के एक ही शत्रु (अंग्रेज) हैं तथा सभी भारतीय एक ही राष्ट्र के नागरिक हैं।
(iii) उन्होंने लोगों को राजनीतिक कार्यों में दक्ष किया तथा आधुनिक विचारों को लोकप्रिय बनाया।
(iv) उन्होंने उपनिवेशवादी शासन की आर्थिक शोषण की नीति को उजागर किया।
(v) नरमपंथियों के राजनीतिक कार्य दृढ़ विश्वासों पर अविलम्बित थे न की उथली भावनाओं पर।
(vi) उन्होंने इस सच्चाई को सार्वजनिक किया कि भारत का शासन, भारतीयों के द्वारा उनके हित में हो।
(vii) उन्होंने भारतीयों में राष्ट्रवाद एवं लोकतांत्रिक विचारों एवं प्रतिनिधि संस्थाओं के विचारों को लोकप्रिय बनाया। एक समान राजनीतिक एवं आर्थिक कार्यक्रम विकसित किया, जिससे बाद में राष्ट्रीय आंदोलन को गति मिली।
(vii) उन्हीं के प्रयासों से विदेशों विशेषकर इंग्लैण्ड में भारतीय पक्ष को समर्थन मिल सका।
जन साधारण की भूमिका
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी काल में कांग्रेस का जनाधार सीमित था तथा जन सामान्य ने इसमें शिथिल या निष्क्रिय भूमिका निभायी। इसका मुख्य कारण था कि प्रारंभिक राष्ट्रवादी जन साधारण के प्रति ज्यादा विश्वस्त नहीं थे । उनका मानना था कि भारतीय समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों में बंटा हुआ है तथा इनके विचार एवं सोच संकीर्णता से ओत-प्रोत हैं, फलतः प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने उनकी उपेक्षा की।
उदारवादियों का मत था कि राजनीतिक परिदृश्य पर उभरने से पहले जातीय विविधता के कारकों में एकीकरण आवश्यक है। लेकिन ये इस महत्व को नहीं समझ सके कि इस कारक में विविधता के भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रारंभिक चरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बावजूद उसने व्यापक जन समर्थन के अभाव में उदारवादी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आक्रामक राजनीतिक रुख अख्तियार नहीं कर सके। किंतु बाद के राष्ट्रवादियों में उदारवादियों की इस सोच से अंतर था। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता के लिये जनसामान्य में व्यापक पैठ बनायी और जनाधार बढ़ाया। कालांतर में इसका लाभ आंदोलनकारियों को मिला।
ब्रिटिश सरकार का रुख
कांग्रेस के जन्म के प्रारंभिक वर्षों में ब्रिटिश सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कुछ समय के लिये सहयोगात्मक रुख बना रहा। उदारवादियों का विश्वास था कि भारत की स्थिति को ब्रिटिश शासन के अधीन रह कर ही सुधारा जा सकता है। किंतु 1887 के पश्चात कांग्रेस और सरकार के रिश्तों में कड़वाहट आने लगी। नरमपंथियों का भ्रम शीघ्र ही टूट गया क्योंकि शासन का वास्तविक स्वरूप उनके सामने आ गया। इस काल में कांग्रेस ने सरकार की आलोचना और तीव्र कर दी फलतः दोनों के आपसी संबंध और खराब हो गये इसके पश्चात् सरकार ने कांग्रेस विरोधी रुख अख्तियार कर लिया तथा वह राष्ट्रवादियों को 'राजद्रोही व्राह्मण' एवं 'देशद्रोही विप्लवकारी' जैसी उपमायें देने लगी।
लार्ड डफरिन ने कांग्रेस को 'राष्ट्रद्रोहियों की संस्था' कहकर पुकारा। कालांतर में सरकार ने कांग्रेस के प्रति 'फूट डालो एवं राज करो' की नीति अपना ली। सरकार ने विभिन्न कांग्रेस विरोधी तत्वों यथा सर सैय्ययद अहमद खान, बनारस नरेश राजा शिव प्रसाद सिंह इत्यादि को कांग्रेस के कार्यक्रमों की आलोचना करने हेतु उकसाया तथा कांग्रेस के विरोधी संगठन 'संयुक्त भारत राष्ट्रवादी संगठन' (यूनाइटेड इंडियन पेट्रियोटिक एसोसिएशन) की स्थापना में मदद की। सरकार ने सम्प्रदाय एवं विचारों के आधार पर राष्ट्रवादियों फूट डालने का प्रयास किया तथा उग्रवादियों को उदावादियों के विरुद्ध भड़काया।
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