HEALTH CURRENT TOPICS 2020
एंटी-वायरल वायरो ब्लॉक टेक्सटाइल
चर्चा में क्यों?
टेक्सटाइल क्षेत्र से संबंधित एक प्रमुख कंपनी अरविंद लिमिटेड (Arvind Limited) ने अपने कपड़े एवं परिधान उत्पादों के लिये 'एंटी-वायरल वायरो ब्लॉक टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी' (Antiviral Viroblock Textile Technology) लॉन्च करने की घोषणा की है।
प्रमुख बिंदु
अरविंद कंपनी ने 30 मिनट के भीतर परिधान की सतह से कोरोनावायरस सहित अन्य वायरस को समाप्त करने वाली उन्नत चाँदी एवं पुटिका तकनीक (Advanced Silver and Vesicle Technology) के एक विशेष संयोजन के साथ उत्पादों को पेश करने के लिये ताइवान की प्रमुख केमिकल कंपनी इजब मैच Jintex कॉरपोरेशन (Jintex Corporation) के साथ मिलकर स्विस टेक्सटाइल इनोवेशन कंपनी 'HeiQ Material AG' के साथ साझेदारी की है। HeiQ वाइरोब्लॉक, स्विस टेक्सटाइल इनोवेशन कंपनी 'HeiQ Material AG' द्वारा निर्मित सबसे उन्नत वैश्विक एंटीवायरस उत्पादों में से एक है जो वायरस की संक्रामकता को 99.99% तक कम करती है।
'HeiQ वाइरोब्लॉक' एक इंटेलीजेंस स्वास टेक्सटाइल तकनीक है जो कपड़ा निर्माण प्रक्रिया के अंतिम चरण के दौरान रासायनिक प्रक्रिया की सहायता से कपड़े में जोड़ी जाती है।
साइलेंट हाइपोक्सिया
चर्चा में क्यों?
COVID-19 से पीड़ित लोगों के इलाज में प्रयासरत दुनिया भर के चिकित्सक एक अजीब स्थिति का सामना कर रहे हैं। चिकित्सकों के अनुसार, COVID-19 से पीड़ित कुछ लोगों के रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा कम होने के बावजूद श्वसन संबंधी समस्याएँ परिलक्षित नहीं हो रही हैं।
प्रमुख बिंदु
चिकित्सकों का मत है कि रक्त में ऑक्सीजन की कमी के बावजूद लोगों में श्वसन संबंधी समस्याओं का परिलक्षित न होना 'साइलेंट/हैप्पी हाइपोक्सिया' (Silent/Happy Hypoxia) को इंगित करता है।
'साइलेंट/हैप्पी हाइपोक्सिया' रक्त में ऑक्सीजन की कमी का एक ऐसा स्वरूप है जिसकी पहचान करना नियमित हाइपोक्सिया की तुलना में कठिन है।
COVID-19 से पीड़ित कुछ मरीज़ों के रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा 80% से कम होने के बावजूद उनको साँस लेने में कोई तकलीफ नहीं हो रही है।
द गार्जियन' की एक रिपोर्ट के अनुसार. साइलेंट हाइपोक्सिया के पश्चात् लोगों में श्वसन संबंधी समस्याएँ ऑक्सीजन की कमी के कारण नहीं बल्कि कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में वृद्धि के कारण हो रही हैं। यह समस्या उस समय उत्पन्न होती है जब फेफड़े कार्बन डाइऑक्साइड गैस को निष्कासित करने में सक्षम नहीं होते हैं। . हाइपोक्सिया एक ऐसी स्थिति है जिसमें रक्त और शरीर के ऊतकों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होता है।
कॉम्पैक्ट सॉलिड स्टेट सेंसर
चर्चा में क्यों?
अप्रैल 2020 में बंगलूरू स्थित 'नैनो एवं मृदु पदार्थ विज्ञान केंद्र' के शोधकर्ताओं की टीम ने एक 'कॉम्पैक्ट सॉलिड स्टेट कैंसर' के विकास में सफलता प्राप्त की है।
प्रमुख बिंदु
. 'कॉम्पैक्ट सॉलिड स्टेट कैंसर' की सहायता से जल में उपस्थित भारी धातु आयनों जैसे- लेड आयन (Pb2+) की पहचान की जा सकती है।
इस सेंसर में लगी फिल्म (Film) को 'मैंगनीज डोप्ड जिंक सल्फाइड क्वांटम डॉट्स' और 'रिड्यूस्ड ग्राफीन ऑक्साइड' (RGO) के मिश्रित पदार्थ की सहायता से तैयार किया गया है।
ये क्वांटम डॉट्स जल में घुलनशील हैं और प्रकाश उत्पन्न करने में दक्ष होने के कारण ल्युमिनिसेंस आधारित सेंसिंग के लिये सबसे उपयुक्त हैं।
जैसे ही भारी धातु आयनों (पारा, सीसा, कैडमियम आदि) से युक्त जल की बूँदें सेंसर में लगी कंपोजिट फिल्म के संपर्क में आती हैं, फिल्म से होने वाला उत्सर्जन कुछ ही सेकेंड में बंद हो जाता है जिससे जल में भारी धातु आयनों की उपस्थिति की पुष्टि होती है।
लाभ
इस सेंसर में प्रयुक्त क्वांटम डॉट्स को 254 नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य के पराबैंगनी प्रकाश से उत्तेजित/सक्रिय किया जा सकता है। अतः दूरस्थ क्षेत्रों में भी इस सेंसर को एक पोर्टेबल डिवाइस के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। यह सेंसर जल में उपस्थित भारी धातु आयनों के सूक्ष्मतम कणों की पहचान करने में सक्षम है। जल में भारी आयनों की उपस्थिति से होने वाले स्वास्थ्य नुकसान को देखते हुए लंबे समय से कुशल और आसानी से उपयोग में लाए जा सकने वाले परीक्षण उपकरण की आवश्यकता बनी हुई थी ऐसे में इस उपकरण की सहायता से दूरस्थ क्षेत्रों में जल प्रदूषण की पहचान कर इसके निवारण के लिये आवश्यक कदम उठाए जा सकेंगे।
जल में भारी धातु के नुकसान मानव शरीर में अधिक भारी धातु आयनों की उपस्थिति मस्तिष्क
और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर सकती है, साथ ही इसके कारण रक्त की संरचना में परिवर्तन, फेफड़े, गुर्दे यकृत एवं अन्य महत्त्वपूर्ण अंगों को नुकसान और कैंसर जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं।
साथ ही प्राकृतिक जल स्रोतों जैसे- नदियों, झीलों में अधिक भारी धातु आयनों की उपस्थिति से वन्यजीवों और प्रजातीय विविधता को क्षति हो सकती है।
आरोग्य सेतु एप
चर्चा में क्यों?
अप्रैल 2020 में केंद्र सरकार ने COVID-19 के मामलों को ट्रैक करने हेतु सार्वजनिक-निजी साझेदारी से ' आरोग्य सेतु' (Aarogya Setu) नामक एक एप लॉन्च किया है।
प्रमुख बिंदु
'आरोग्य सेतु' प्रत्येक भारतीय के स्वास्थ्य और कल्याण हेतु डिजिटल इंडिया से जुड़ा है।
यह लोगों को कोरोनावायरस से संक्रमित होने के जोखिम का आकलन करने में सक्षम बनाएगा। यह अत्याधुनिक ब्लूटूथ तकनीक, गणित के सवालों को हल करने के नियमों की प्रणाली (एल्गोरिथ्म) और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग करते हुए दूसरों के साथ उनकी बातचीत के आधार पर जोखिम की गणना करेगा।
आसान और उपयोगकर्ता के अनुकूल प्रक्रिया द्वारा स्मार्टफोन में इंस्टाल होने के बाद यह एप उपयोगकर्ता के दायरे में आने वाले ऐसे अन्य उपकरणों का पता लगा सकता है जिनमें 'आरोगय सेतु एप' इंस्टाल किया जा चुका है।
उपयोगकर्ता के दायरे में आने वाले कोरोना पॉजिटिव (जिनका परीक्षण हो चुका है) व्यक्तियों का विश्लेषण परिष्कृत मापदंडों के आधार पर करते हुए यह एप संक्रमण के जोखिम की गणना कर सकता है। इस एप का मुख्य उद्देश्य COVID-19 से संक्रमित व्यक्तियों एवं उपायों से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराना होगा।
एप की अन्य विशेषताएँ
यह एप 11 भाषाओं में उपलब्ध है और साथ ही इसमें देश के सभी राज्यों के हेल्पलाइन नंबरों की सूची भी प्रदत्त है। अगर कोई व्यक्ति COVID-19 पॉजिटिव व्यक्ति के संपर्क में आता है, तो एप निर्देश भेजने के साथ ही ख्याल रखने के बारे में भी जानकारी प्रदान करेगा।
निजता संबंधी चिंताएँ
इस एप को लेकर कई विशेषज्ञों ने निजता संबंधी चिंता जाहिर की है। विशेषज्ञों के अनुसार, डेटा एकत्रित, संगृहीत करने तथा इसके उपयोग को लेकर पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है।
हालांकि केंद्र सरकार के अनुसार, किसी व्यक्ति की गोपनीयता सुनिश्चित करने हेतु लोगों का डेटा उनके फोन में लोकल स्टोरेज में ही सुरक्षित रखा जाएगा तथा इसका प्रयोग तभी होगा जब उपयोगकर्ता किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आएगा जिसका COVID-19 परीक्षण पॉजिटिव/सकारात्मक रहा हो। केंद्र सरकार के अनुसार, एप का डिज़ाइन सबसे पहले गोपनीयता सुनिश्चित करता है साथ ही एप द्वारा एकत्रित व्यक्तिगत डेटा को अत्याधुनिक तकनीक की सहायता से एन्क्रिप्ट किया जाता है और चिकित्सा संबंधी सुविधा के लिये आवश्यकता पड़ने तक फोन पर सुरक्षित रहता है।
दुर्लभ रोग हेतु राष्ट्रीय नीति
चर्चा में क्यों?
जनवरी 2020 में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने दुर्लभ रोगों के लिये राष्ट्रीय नीति का मसौदा (Draft National Policy for Rare Diseases) जारी किया है।
पृष्ठभूमि
• स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने जुलाई 2017 में दुर्लभ रोगों के उपचार के लिये एक राष्ट्रीय नीति (NPTRD) तैयार की दु थी।
• इस नीति में दुर्लभ आनुवंशिक बीमारियों के उपचार के लिये र 100 करोड़ के कोष की स्थापना की परिकल्पना की गई थी, लेकिन बजट की कमी के कारण इसे व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सका है।
नीतियों के कार्यान्वयन को लेकर कई अड़चनें सामने आ रही हैं, इनमें तृतीयक देखभाल के संदर्भ में सरकार को मिलने वाले समर्थन के संबंध में अस्पष्टता शामिल है।
इन समस्याओं को हल करने के लिये व्यापक परामर्श और सिफारिशों की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, इसीलिये दुर्लभ रोगों के उपचार के लिये राष्ट्रीय नीति को पुनः लागू करने का निर्णय लिया गया।
उल्लेखीय है कि NPTRD, 2017 की समीक्षा करने के लिये नवंबर 2018 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया। विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर दुर्लभ रोगों के लिये राष्ट्रीय नीति का मसौदा जारी किया गया था।
प्रमुख बिंदु
वर्तमान मसौदा नीति के अनुसार, ऐसे रोगी जिन्हें एकमुश्त उपचार की आवश्यकता है और वे सरकार की प्रमुख आयुष्मान भारत योजना के पात्र हैं, उनके लिये दुर्लभ रोगों के इलाज हेतु र15 लाख तक की राशि प्रदान करने का प्रस्ताव किया गया है।
इसके लिये स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय अपनी अम्ब्रेला योजना 'राष्ट्रीय आरोग्य निधि' के तहत वित्तीय सहायता प्रदान करेगा।
ध्यातव्य है कि इस निधि का उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले रोगियों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है।
नीति के अनुसार, विश्व में सभी दुर्लभ बीमारियों में से 5% से भी कम बीमारियों के उपचार के लिये थेरेपी उपलब्ध है।
भारत में लगभग 450 दुर्लभ बीमारियों को तृतीयक अस्पतालों में दर्ज किया गया है जिनमें से हीमोफीलिया, थैलेसीमिया, सिकल-सेल एनीमिया, ऑटोइम्यून रोग, गौचर रोग (Gaucher's Disease) और सिस्टम फाइब्रोसिस सबसे आम हैं।
नीति के तहत दुर्लभ बीमारियों की तीन श्रेणियाँ हैं:
एक बार के उपचार के लिये उत्तरदायी रोग (उपचारात्मक)। ऐसे रोग जिनमें लंबे समय तक उपचार की आवश्यकता होती है लेकिन लागत कम होती है।
ऐसे रोग जिन्हें उच्च लागत के साथ दीर्घकालिक उपचार की आवश्यकता होती है।
पहली श्रेणी के कुछ रोगों में ऑस्टियोपेट्रोसिस (Osteopetrosis) और प्रतिरक्षा की कमी से संबंधित विकार शामिल हैं।
दुर्लभ रोग किसे कहते हैं?
दुर्लभ बीमारियों की सार्वभौमिक रूप से कोई स्वीकृत परिभाषा नहीं है सामान्यतः सभी देश रोग की व्यापकता, गंभीरता और वैकल्पिक चिकित्सा विकल्पों के अस्तित्व को ध्यान में रखते हुए इसे भिन्न-भिन्न रूप से परिभाषित करते हैं। फिर भी
दुर्लभ बीमारी एक ऐसी स्वास्थ्य स्थिति होती है जिसका प्रचलन लोगों में प्रायः कम पाया जाता है और सामान्य रोगों की तुलना में बहुत कम लोग इन रोगों से प्रभावित होते हैं। WHO द्वारा इसे प्रति 1000 की जनसंख्या पर 1 या इससे कम
व्यक्तियों को प्रभावित करने वाले आजीवन रोग या विकार की स्थिति के रूप में परिभाषित किया गया है।
80 प्रतिशत दुर्लभ बीमारियाँ मूल रूप से आनुवंशिक होती हैं, इसलिये बच्चों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।
इन्हें ' Orphan Disease भी कहा जाता है क्योंकि दवा कंपनियाँ कम लाभप्रदता के कारण इनके उपचार हेतु दवा विकसित करने में रुचि नहीं रखती हैं। नीति के अनुसार, दुर्लभ रोगों में आनुवंशिक रोग (Genetic Diseases), दुर्लभ कैंसर (Rare Cancer), उष्णकटिबंधीय संक्रामक रोग (Infectious Tropical Diseases) और अपक्षयी रोग (Degenerative Diseases) शामिल हैं।
भारत में 56-72 मिलियन लोग दुर्लभ रोगों से प्रभावित हैं। भारत में अब तक लगभग 450 दुर्लभ बीमारियों को दर्ज किया गया है। कर्नाटक दुर्लभ बीमारी और ऑर्फन औषधि नीति (Rare Diseases and Orphan Drugs Policy) जारी करने वाला पहला राज्य है।
COVID-19
चर्चा में क्यों?
फरवरी 2020 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वायरस (Coronavirus) द्वारा जनित बीमारी के आधिकारिक नाम के रूप में COVID-19 को मान्यता दी है।
पृष्ठभूमि
हुबेई प्रांत के वुहान शहर में निमोनिया (Pneumonia) जैसे कई मामलों के बारे में पता चलने पर चीन सरकार द्वारा सतर्क किये जाने के 40 दिन बाद WHO द्वारा इस बीमारी का नामकरण किया गया है।
जिनेवा में COVID-19 के नाम की घोषणा करते हुए WHO के महानिदेशक टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयसस (Tedros Adhanom Ghebreyesus) ने कहा कि हमें भविष्य में कोरोना वायरस जनित बीमारी की पहचान सुनिश्चित करने के लिये यह एक मानक प्रदान
करेगा।
WHO द्वारा इसका नामकरण वैश्विक एजेंसी विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (World Organisation for Animal Health) और खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization) द्वारा वर्ष 2015 में जारी दिशा-निर्देशों के आधार पर किया गया है।
कोरोनावायरस के बारे में
कोरोनावायरस (NCoV), वायरस का एक बड़ा वर्ग है जो सामान्य सर्दी से लेकर गंभीर बीमारियों जैसे मध्य पूर्व रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (MERS-Cov) और सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS- Cov) लिये ज़िम्मेदार होता है।
नॉवेल कोरोनावायरस (nCov) एक नई प्रकार की बीमारी है जो पहले मनुष्यों में देखा नहीं गया है । वायरस की जीनोम संरचना, जो चीन में फैली है, लगभग 70 सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) के समान हैं। वायरस में प्रोटीन स्पाइक्स के साथ एक लिफाफे से घिरे आनुवंशिक पदार्थ का एक कोर होता है, जो इसे एक मुकुट (कोरोना) का रूप
देता है।
कोरोनावायरस एक जूनोटिक बीमारी है इसका अर्थ है कि यह जानवरों और लोगों के बीच संचारित होते हैं।
नामकरण का उद्देश्य
WHO के अनुसार COVID-19 में co का तात्पर्य कोरोना से है, जबकि VI विषाणु को, D बीमारी को तथा संख्या 19 वर्ष 2019 (बीमारी के पता चलने का वर्ष) को चिह्नित करता है। WHO द्वारा बीमारी का नाम बताने की शीघ्रता इसलिये की जाती है ताकि इसके समरूप नामों के दुरुपयोग को रोका जा सके। प्रायः वैज्ञानिक समुदाय से संबंध न रखने वाले लोग किसी नई बीमारी को सामान्य नामों से पुकारते हैं परंतु एक बार जब ये नाम इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से सामान्य तौर पर प्रयोग किये जाने लगते हैं तो उन्हें बदलना मुश्किल होता है, भले ही उस बीमारी के संबंध में अनुचित नाम का उपयोग क्यों न किया जा रहा हो।
मई 2015 में WHO ने कहा कि पहली बार किसी नई बीमारी की रिपोर्ट मिलने पर यह आवश्यक हो जाता है कि उसे आधिकारिक रूप से उपयुक्त नाम दिया जाए जिससे यह वैज्ञानिक रूप से ठपयुक्त एवं सामाजिक रूप से स्वीकार्य हो। गौरतलब है कि वर्ष का उल्लेख तब किया जाता है जब विभिन्न वर्षों में एक ही कारण से हुई कई घटनाओं के बीच अंतर करना हो, जैसे- विभिन्न वर्षों में COVID-19 व अन्य बीमारियों (गंभीर तीव्र श्वसन सिंड्रोम और मध्य पूर्व श्वसन सिंड्रोम) के प्रसार में कोरोनावायरस ही प्रमुख कारण रहा है।
न्यूमोकोकल वैक्सीन
चर्चा में क्यों?
जनवरी 2020 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा विकसित न्यूमोकोकल वैक्सीन 'न्यूमोसिल' (PNEUMOSIL) को आरंभिक स्तर पर स्वीकृति प्रदान की है।
प्रमुख बिंदु
न्यूमोसिल दरअसल एक संयुग्मित वैक्सीन (एक वाहक अणु के साथ मिश्रित) है जो एक कमज़ोर एंटीजन के प्रति मजबूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का निर्माण करता है। इस वैक्सीन की प्रभावकारिता का परीक्षण पहले से ही स्वीकृत न्यूमोकोकल वैक्सीन (Synflorix) के प्रति तुलनात्मक रूप से किया
गया था।
वैक्सीन को तीसरे चरण के परीक्षण (मानव नैदानिक परीक्षण का अंतिम चरण) परिणामों के आधार पर यह स्वीकृति दी गई।
ध्यातव्य है कि तीसरे चरण का परीक्षण पश्चिम अफ्रीकी देश गाम्बिया में 2,250 बच्चों पर किया गया था। पहले और दूसरे चरण के परीक्षण भारत में किये गए थे। निमोनिया पैदा करने वाले बैक्टीरिया (Streptococcus Pneumoniae) के लगभग 90 सीरोटाइप हैं तथा इस रोग के सीरोटाइप एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। इस न्यूमोकोकल वैक्सीन के लिये 10 सीरोटाइप को चुना गया है जो भारत सहित लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में निमोनिया का कारण बनते हैं।
न्यूमोकोकल वैक्सीन क्या है?
न्यूमोकोकल टीकाकरण न्यूमोकोकल नामक जीवाणु के कारण फेफड़े में होने वाले एक विशिष्ट प्रकार के संक्रमण को रोकने की विधि
है। न्यूमोकोकल बैक्टीरिया के 80 से अधिक प्रकारों में से 23 को इस वैक्सीन द्वारा उपचारित किया जा सकता है।
शरीर की सामान्य प्रतिरक्षा प्रणाली को उत्तेजित करने के लिये इस वैक्सीन को शरीर में इंजेक्ट किया जाता है जिससे एंटीबॉडी का उत्पादन होता है। यह एंटीबॉडी न्यूमोकोकल बैक्टीरिया से प्रतिरक्षा प्रदान करता है।
• गौरतलब है कि न्यूमोकोकल वैक्सीन न्यूमोकोकल बैक्टीरिया के अलावा अन्य रोगाणुओं के कारण होने वाले निमोनिया से सुरक्षा प्रदान नहीं करता है।
वैक्सीन की आवश्यकता
वर्ष 2018 में निमोनिया के कारण भारत में 1,27,000 मौतें हुईं, जो विश्व में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर के मामले में दूसरी सबसे बड़ी संख्या है।
निमोनिया और डायरिया भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु के प्रमुख कारणों में शामिल हैं। वर्ष 2017 में न्यूमोकोकल कंजुगेट वैक्सीन को भारत के सार्वभौमिक
टीकाकरण कार्यक्रम (UIP) के अंतर्गत शामिल किया गया था।
निमोनिया
निमोनिया फेफड़े का एक संक्रमण है और सामान्यतः बैक्टीरिया एवं वायरस द्वारा सभी उम्र के लोगों में यह रोग उत्पन्न हो सकता है। टीकाकरण द्वारा बच्चों को इस रोग से सुरक्षित रखा जा सकता है।
0 उल्लेखनीय है कि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने नवजात शिशुओं में निमोनिया से होने वाली मौतों को कम करने के लिये नवंबर 2019 में साँस (Social Awareness and Action to Neutralise
Pneumonia Successfully-SAANS) नामक अभियान की शुरुआत की है।
H9N2: इन्फ्लूएंजा वायरस
चर्चा में क्यों?
इन्फ्लूएंजा वायरस A के एक दुर्लभ उप प्रकार H9N2 वायरस का पहला मामला महाराष्ट्र में सामने आया है। उल्लेखनीय है कि यह वायरस एवियन इन्फ्लूएंजा या बर्ड फ्लू रोग का कारण बनता है।
प्रमुख बिंदु
अमेरिका के रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र (CDC) तथा भारत के राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान (NIV) के वैज्ञानिकों ने इमेजिंग इन्फेक्शस डिज़ीज़ेज़ जर्नल (Emerging Infectious Diseases Journal) में इस वायरस के संबंध में विस्तृत जानकारी प्रदान की
H9N2 वायरस, इन्फ्लूएंजा वायरस A का एक उप-प्रकार है, जो ह्यूमन इन्फ्लूएंजा के साथ-साथ बर्ड फ्लू का भी कारण है।
• अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन (NCBI) के अनुसार, H9N2 वायरस जंगली पक्षियों में विशेष रूप से पाए जाते है।
H9N2 वायरस पहली बार वर्ष 1966 में संयुक्त राज्य अमेरिका के विस्कोसिन में प्रवासी पक्षियों के झुंड टर्की फ्लोक्स (Turkey Flocks)
में पाया गया था।
मनुष्यों में H9N2 वायरस का संक्रमण दुर्लभ होता है, जो अस्पष्ट लक्षणों के कारण प्रकाश में नहीं आ पाता है।
मनुष्यों में H9N2 वायरस के संक्रमण का पहला मामला वर्ष 1908 में हॉन्गकॉन्ग में सामने आया।
विगत कुछ वर्षों में H9N2 वायरस के कारण मनुष्यों में संक्रमण फैलने के मामले हॉन्गकॉन्ग के अतिरिक्त चीन, बांग्लादेश पाकिस्तान तथा मिस्र में भी देखे गए
इस वायरस के सामान्य लक्षणों में बुखार, खांसी तथा श्वसन किया में बाधा इत्यादि शामिल हैं।
भारत में इस वायरस को फरवरी 2019 में महाराष्ट्र के मेलयार जिले के कोरकू जनजाति में समुदाय आधारित निगरानी अध्ययन के दौरान देखा गया।
घर-घर निगरानी' एप
पंजाब के मुख्यमंत्री ने कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी को समाप्त करने के उद्देश्य से घर-घर निगरानी करने के लिये 'घर-घर निगरानी' मोबाइल एप लॉन्च किया है। इस एप का प्रयोग पंजाब में कोरोना वायरस (COVID-19) के सामुदायिक प्रसार को रोकने हेतु शुरुआती जांच एवं परीक्षण के लिये एक उपकरण के रूप में किया जाएगा। इस पहल के तहत पंजाब सरकार राज्य के उन सभी लोगों का सर्वेक्षण करेगी, जिनकी आयु 30 वर्ष से अधिक है साथ ही इसमें उन लोगों को भी शामिल किया जाएगा जिनकी आयु तो 30 वर्ष से कम है, किंतु जिन्हें एक से अधिक बीमारियाँ अथवा रोग हैं।
कोविड कवच एलिसा
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) और राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान ने संयुक्त रूप से COVID-19 के परीक्षण में तेज़ी लाने हेतु 'कोविड कवच एलिसा' को विकसित और प्रमाणित किया
उल्लेखनीय है कि 'कोविड कवच एलिसा' से मानव शरीर में मौजूद COVID-19 के एंटीबॉडी का पता लगाया जाएगा इससे ढाई घंटे के एक निरंतर परीक्षण में एक साथ 90 नमूनों का परीक्षण किया जा सकता है। साथ ही एलिसा परीक्षण जिला स्तर पर भी आसानी से संभव है। कोविड कवच एलिसा' के परीक्षण हेतु मुंबई के दो शहरों को चिह्नित किया गया था इस परीक्षण के दौरान 'कोविड कवच एलिसा' में उच्च संवेदनशीलता और विशिष्टता पाई गई है। पुणे के राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान द्वारा COVID-19 के एंटीबॉडी का पता लगाने हेतु विकसित की गई स्वदेशी 'कोविड कवच एलिसा' परीक्षण किट संक्रमण के अनुपात को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
यादा यादा वायरस
वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलियाई मच्छरों में पाए गए एक नए वायरस को यादा यादा वायरस (Yada Yada Virus-YYV) का नाम दिया है। यह एक अल्फावायरस है जो अल्फावायरस, पॉजिटिव-सेंस सिंगल-स्ट्रैंडेड आरएनए वायरस (Positive-sense Single-Stranded RNA Virus or (+) ssRNA virus) के एक जीनोम के साथ छोटे, गोलाकार, आवरण युक्त विषाणु होते हैं। पॉज़िटिव-सेंस RNA वायरस में हेपेटाइटिस सी वायरस, वेस्ट नील वायरस, डेंगू वायरस तथा SARS और MERS कोरोनावायरस शामिल हैं। यह वायरस के एक ऐसे समूह से संबंधित है जिसमें चिकनगुनिया वायरस (Chikungunya Virus) और ईस्टर्न इक्वाइन इंसेफेलाइटिस वायरस (Eastern Equine Encephalitis Virus) जैसे अन्य अल्फावायरस शामिल हैं। ये मुख्य रूप से मच्छरों द्वारा प्रसारित होते हैं। कुछ अन्य अल्फावायरस के विपरीत यादा यादा वायरस मनुष्य के लिये कम
खतरनाक है।
मेसोथेलियोमा
जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी पर आरोप लगाया गया है कि इसके बेबी पाउडर (Talcum Powder) में एस्बेस्टस होता है जो एक प्रकार के दुर्लभ कैंसर 'मेसोथेलियोमा' (Mesothelioma) का कारण बन सकता है।
टेल्कम (Talcum) पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला खनिज है जिसे नमी अवशोषित करने की क्षमता के कारण बेबी पाउडर के रूप में प्रयोग किया जाता है। टेलकम के खनन के दौरान एस्बेस्टस भी मिलता है जिसे मेसोथेलियोमा (Mesothelioma) और एस्बेस्टॉसिस (Asbestosis) जैसे स्वास्थ्य जोखिमों से जोड़ा गया है। मेसोथेलियोमा (Mesothelioma) कैंसर का एक आक्रामक एवं घातक रूप है जो ऊतक की पतली परत में होता है और आंतरिक अंगों (Mesothelium) के अधिकांश हिस्से को कवर करता है। इसे आंतरिक अंगों (Mesothelium) के हिस्से को प्रभावित करने के आधार पर अलग-अलग प्रकारों में विभाजित किया गया है। एस्बेस्टॉसिस एक पुरानी बीमारी है इसमें फेफड़ों में सूजन आ जाती है। यह बीमारी एस्बेस्टस एक्सपोर्ट के कारण होती है।
यारावायरस
शोधकर्त्ताओं ने ब्राजील की एक झील में एक वायरस की खोज की है, जिसे उन्होंने यारावायरस (Yaravirus) नाम दिया है। इस वायरस का नामकरण एक पज़ल्स ओरिजिन एंड फिलोजेनी (Puzzling Origin And Phylogeny) के साथ अमीबा वायरस की एक नई वंशावली के रूप में किया गया है। इसे यारावायरस नाम ब्राजील की देशज जनजाति टूपी-गुआरानी (Tupi-Guarani) की पौराणिक कहानियों में 'मदर आफ वाटर्स' (Mother Of Waters) जिसे 'यारा' (Yara) कहा जाता है, की याद में दिया गया है। यारावायरस के छोटे आकार के कारण यह अन्य वायरस से अलग है। यह अमीबा (Amoeba) को संक्रमित करता है और इसमें ऐसे जीन होते हैं जिनका उल्लेख पहले नहीं किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि अमीबा को प्रभावित करने वाले अन्य विषाणुओं में कुछ समानताएँ हैं जो यारावायरस में नहीं हैं। यह वायरस मानव कोशिकाओं को संक्रमित नहीं करता है।
स्वस्थ वायु
वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) की 'नेशनल एयरोस्पेस लेबोरेटरी' ने महज 36 दिन के रिकार्ड समय में COVID-19 से संक्रमित रोगियों का इलाज करने के लिये एक 'नान-इनवेज़िव बीपैप (बाई लेवल पॉजिटिव एयरवे प्रेशर-BiPAP) वेंटिलेटर' 'स्वस्थ वायु' (Swasth Vayu) विकसित किया है। यह एक वेंटिलेटर मशीन है जो गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को 'यांत्रिक वेंटिलेशन' प्रदान करती है। 'नॉन-इनवेसिव बीपैप वेंटिलेटर' एक माइक्रोकंट्रोलर आधारित 'क्लोज़-लूप एडैप्टिव कंट्रोल सिस्टम' (Closed-Loop Adaptive Control System) है। इसमें अत्यधिक कुशल पार्टिकुलेट एयर फिल्टर' (HEPA) तथा '3D प्रिंटेड मैनीफोल्ड
एंड कपलर' का उपयोग किया गया है। इस वेंटीलेटर मशीन का सबसे अधिक लाभ यह है कि इसके इस्तेमाल के लिये किसी स्पेशल नर्सिंग की आवश्यकता नहीं है और इसे किसी वार्ड, अस्थायी अस्पताल या डिस्पेंसरी में भी उपयोग में लाया जा सकता है, साथ ही नर्सिंग स्टाफ को इसके लिये प्रशिक्षित करने की भी ज़रूरत नहीं है। इसे स्वदेशी उपकरण एवं तकनीक की सहायता से तैयार किया गया है। इसे 'राष्ट्रीय परीक्षण एवं अंशशोधन प्रयोगशाला प्रत्यायन बोर्ड' (NABL) की मान्यता प्राप्त एजेंसियों ने प्रमाणित किया है।
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